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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 81
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (23)
व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों के बारे हम अभी प्रेरितों 2:42 में दी गई चार बातों में से चौथी बात, प्रार्थना करने के बारे में, परमेश्वर के वचन में दी गई सम्बन्धित बातों के उदाहरणों और हवालों से देख रहे हैं। प्रार्थना से सम्बन्धित कुछ भ्रांतियों, गलत शिक्षाओं, और अनुचित धारणाओं को देखने के बाद, अब हम मसीहियों में बहुत आम तौर से बोली जाने वाली “प्रभु की प्रार्थना” के बारे देख रहे हैं। हमने देखा है कि बाइबल में इस “प्रार्थना” के बारे में जो लिखा गया है और जिस तरह से इसे उपयोग किया गया है, उससे यही लगता है कि यह प्रभु यीशु द्वारा रटने और बारम्बार, हर अवसर पर, बिना इस समझे या इसके बारे में विचार किए, यूँ ही बोलते रहने के लिए दी गई कोई प्रार्थना नहीं है। बल्कि प्रभु के द्वारा परमेश्वर से सही रीति से, कारगर प्रार्थना करने की एक रूपरेखा, एक ढाँचा है, जिसके आधार पर, या जिसके अनुसार प्रभु के अनुयायियों को अपनी प्रार्थनाओं को स्वरूप देना है। आज हम इसी बात को, “प्रभु की प्रार्थना” की रूपरेखा या ढाँचे को, बहुत संक्षेप में देखना और समझना आरम्भ करेंगे। इसके लिए हम मत्ती 6:5-15 का उपयोग करेंगे, क्योंकि न केवल यह अधिक विस्तृत है, वरन यह प्रभु द्वारा पहली बार कहा गया स्वरूप भी है।
प्रभु द्वारा दिए गए पहाड़ी उपदेश के प्रार्थना से सम्बन्धित इस खण्ड में प्रभु ने अपने शिष्यों से परमेश्वर से प्रार्थना करने केवल एक स्वरूप को ही नहीं दिया है, वरन प्रार्थना करने से पहले की बातों और तैयारियों के बारे में भी बताया है। यहाँ पर, पद 5 में हम देखते हैं कि परमेश्वर पिता से प्रार्थना करने, खराई से उससे वार्तालाप करने की पहली तैयारी, उसकी आधारभूत बात है, प्रार्थना को करने के मर्म को समझना। यह ध्यान रखना और उसका पालन करना कि जो हम करने जा रहे हैं, वह लोगों को दिखाने, उनकी प्रशंसा और सराहना प्राप्त करने के लिए नहीं है। मत्ती 6:5-15, कुल 11 पदों का एक छोटा सा खण्ड है, और इन 11 पदों में ‘प्रार्थना’ के शब्द, पद 9-13, अर्थात 5 पदों में दिए गए हैं। इन पदों में व्यक्त की गई बात, सिखाई गई शिक्षाएं, बहुत सीधे और साधारण शब्दों तथा वाक्यों में हैं। यहाँ पर न तो किसी प्रकार की कोई वाक्पटुता दिखाई गई है, और न ही कोई आलंकारिक भाषा प्रयोग की गई है। थोड़े से शब्दों में इतना कुछ कहा गया है, और इस तरह से कहा गया है जो लोगों से अपनी लम्बी-लम्बी प्रार्थनाओं में नहीं कहा जाता है। परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिए, प्रभु का पहला निर्देश है कि अपने आप को परमेश्वर को सम्बोधित करने के लिए तैयार करें, न कि परमेश्वर से प्रार्थना करने के नाम पर, लोगों को दिखाने, सुनाने, उन्हें प्रभावित करने, और लोगों से ही प्रशंसा और सराहना प्राप्त करने का प्रयास करें। जिनकी प्रार्थनाएं लोगों को सुनाने, अपनी वाक्पटुता और आलंकारिक भाषा का उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए होती हैं, इस पद में प्रभु उन्हें सचेत करते हुए स्पष्ट कह देता है कि “वे अपना प्रतिफल पा चुके।” अब वे पिता परमेश्वर से किसी प्रतिफल की, प्रार्थना के किसी और उत्तर की कोई आशा नहीं रखें। प्रभु की बात का कुल निचोड़ है कि प्रार्थना सीधी, स्पष्ट, संक्षिप्त हो; परमेश्वर से बात करना हो, न कि लोगों को सुनाने और प्रभावित करने के लिए की गई हो।
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए, प्रभु यीशु ने पद 6 में कहा है कि यदि वास्तव में परमेश्वर के साथ बातचीत करनी है, तो उस बातचीत में बाधा डालने वाली बातों और परिस्थितियों से बचकर, एक ऐसे स्थान में परमेश्वर से वार्तालाप करना चाहिए, जहाँ ध्यान बँटाने वाली कोई बात, कोई परिस्थिति न हो। स्वाभाविक है कि जब प्रार्थनाएं एकांत में की जाएंगी, तो अधिक यथार्थ पूर्ण होंगी, साफ, सीधे, और स्पष्ट शब्दों में की जाएंगी। जो प्रार्थनाएं गुप्त में की जाएंगी, पद 5 की बात की तुलना में, उनके प्रतिफल मनुष्यों से नहीं परमेश्वर से मिलेंगे। अब यहाँ पर इस पद के इस अंतिम वाक्य की रचना पर ध्यान कीजिए; प्रभु ने ऐसी प्रार्थना के लिए अपने शिष्यों से कहा “...तुझे प्रतिफल देगा।” अर्थात, यह होना कोई सम्भावना नहीं, वरन अवश्यंभावी है। जब प्रभु के शिष्य, मनुष्यों से मुँह मोड़कर, अपने आप को परमेश्वर से जोड़कर, मनुष्यों को दिखाने, सुनाने, प्रभावित करने के लिए नहीं बल्कि सच्चे मन से, परमेश्वर से सीधे, स्पष्ट शब्दों में अपने आप परमेश्वर के सामने व्यक्त करते हैं, तो परमेश्वर भी उनकी सुनता है, उन्हें उत्तर देता है। यहाँ पर यह निहित है कि, यह स्वाभाविक है कि जब प्रभु का सच्चा शिष्य, परमेश्वर से अपने मन की बात कहेगा और माँगेगा, तो वह कुछ अनुचित अथवा परमेश्वर के गुणों से असंगत नहीं होगा। जबकि लोगों को सुनाने, प्रभावित करने के लिए की गई प्रार्थनाओं में लोगों की इच्छा और प्रसन्नता के अनुसार बातें होंगी, चाहे वे परमेश्वर की इच्छा और प्रसन्नता के अनुसार न भी हों। इसलिए ऐसी प्रार्थनाओं का परमेश्वर से उत्तर मिलने की सम्भावना भी नहीं है। इस पद का यह अर्थ नहीं है कि सामूहिक प्रार्थनाएं नहीं की जानी चाहिएं या सभाओं में की गई प्रार्थनाओं का परमेश्वर उत्तर नहीं देगा। प्रभु के शिष्य सभाओं में, या सामूहिक प्रार्थनाएं भी लोगों की परवाह किए बिना ही सीधी और स्पष्ट कर सकते हैं, खराई से अपने आप को परमेश्वर के सम्मुख व्यक्त कर सकते हैं; और तब परमेश्वर उन शिष्यों की प्रार्थनाओं को सुनेगा, उनका उत्तर देगा।
अगले लेख में हम प्रार्थना पर प्रभु की इस शिक्षा पर, इस खण्ड से विचार करना ज़ारी रखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 81
The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (23)
Presently we are considering the fourth of the four things related to practical Christian living, given in Acts 2:42, i.e., prayer, through the examples and references given in God’s Word about it. Having considered some wrong notions, false teachings, and inappropriate concepts about prayer, we are now considering the very commonly spoken “Lord’s prayer.” We have seen from what is written about this ‘prayer’ and the way this ‘prayer’ has been used in the Bible, that this is not a ‘prayer’ to be spoken by rote on all occasions, without understanding or pondering over it. Rather, it is an outline, a framework given by the Lord, based on which the Christians should mold their prayers, for their prayers to be effective. Today we will begin considering and understanding this outline or framework or effectively praying to God, briefly. For this we will use Matthew 6:5-15, since not only is this somewhat more detailed, but is also the first form of what the Lord has said about this “prayer.”
In this section from the Sermon on the Mount spoken by the Lord regarding prayer, not only has He spoken about praying, but also about the preliminary preparations related to praying. Here, in verse 5, we see that for praying to God, for sincerely conversing with Him, the initial preparation, the basic requirement is to first understand the essence of praying to God. To recognize, and observe the basic fact that what we are going to do, is not to show-off to the people, nor is it for being appreciated and commended by people. The things that have been spoken here in these verses, the teachings that have been given here, are all in very simple and straightforward words and sentences. There is no usage of any eloquence, nor of any ornamental or figurative language here. Stil, in these few words and verses so much has been said, and has been said in a manner that people are unable to say in the long and verbose prayers they say. For praying to God, the first instruction given by the Lord is that we should first prepare ourselves to express ourselves to God, instead of trying to show-off to people and impress them, to get their admiration and acclaim, in the name of praying to God. Those who pray to get the admiration and acclaim of the people, who use eloquent and ornamental or figurative language to impress people in the name of prayer, the Lord very clearly says something to them in this verse to caution them, “...they have their reward.” Now they should not expect anything more as an answer to their prayers from God the Father. The essence of what the Lord has said is that the prayers should be straightforward, clear, and to-the-point; they should be for conversing with God, not to impress people, to show-off to them.
Carrying this same thought ahead, in verse 6 the Lord has said that if one really wants to converse with God, then it should be done in a place where there are no disturbances and distractions that interfere in this conversation with God. It is only natural that when prayers are said in solitude, they will be more realistic, and in a clear, simple, and straightforward manner. The prayers that are said in secret, in contrast to the kind of prayers said in verse 5, their rewards will be given not by men, but by God. Now, pay attention to the construction of this sentence; the Lord has said for such a prayer that God “...will reward you openly.” In other words, the answer to such prayers is not a possibility, but a certainty. When the disciples of the Lord turn away from impressing people, instead of trying to impress people and show-off to them, truly join themselves with God, converse with God and express themselves in a clear, straightforward, to-the-point manner, then God too listens to them and answers them. It is implied over here that when a true disciple of the Lord will express his heart to the Lord and ask for something, then it will not be something that is inappropriate or inconsistent with the attributes of God. In contrast, the prayers made to impress people and to show-off to them will be of the kind that the people like to hear, whether or not their content is consistent with what God wants to hear. Therefore, there is no possibility of such prayers being heard or answered. This verse should not be taken to mean that it forbids the praying in a gathering or that God will not answer corporate prayers. The disciples of the Lord can, even in assemblies and gathering, in corporate settings, pray without being concerned about the people present, in a simple, straightforward, clear manner, express themselves sincerely to God; and then God will listen to their prayers and answer them.
In the next article we will carry on considering about this section, about the Lord’s teachings on prayer.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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