ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2022

कलीसिया में अपरिपक्वता के दुष्प्रभाव (12)


भ्रामक शिक्षाओं के स्वरूप - पवित्र आत्मा के विषय गलत शिक्षाएं (4) - अन्य-भाषाएं - प्रार्थना की अलौकिक भाषाएं?

हम पिछले लेखों से देखते आ रहे हैं कि बालकों के समान अपरिपक्व मसीही विश्वासियों की एक पहचान यह भी है कि वे बहुत सरलता से भ्रामक शिक्षाओं में बहकाए भटकाए जाते हैं। इन भ्रामक शिक्षाओं को शैतान और उस के दूत झूठे प्रेरितों और प्रभु के लोगों का भेस धारण कर के प्रस्तुत करते हैं। ये लोग और उनकी शिक्षाएं आकर्षक, रोचक, और ज्ञानवान, यहाँ तक कि भक्तिपूर्ण और श्रद्धापूर्ण भी प्रतीत हो सकती हैं, किन्तु उनमें अवश्य ही बाइबल की बातों के अतिरिक्त भी बातें डाली हुई होती हैं। इन गलत या भ्रामक शिक्षाओं के मुख्य स्वरूपों के बारे में परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस के द्वारा 2 कुरिन्थियों 11:4 में लिखवाया है कि इन भ्रामक शिक्षाओं के, गलत उपदेशों के, मुख्यतः तीन स्वरूप होते हैं, “यदि कोई तुम्हारे पास आकर, किसी दूसरे यीशु को प्रचार करे, जिस का प्रचार हम ने नहीं किया: या कोई और आत्मा तुम्हें मिले; जो पहिले न मिला था; या और कोई सुसमाचार जिसे तुम ने पहिले न माना था, तो तुम्हारा सहना ठीक होता”, जिन्हें शैतान और उसके लोग प्रभु यीशु के झूठे प्रेरित, धर्म के सेवक, और ज्योतिर्मय स्‍वर्गदूतों का रूप धारण कर के बताते और सिखाते हैं। सच्चाई को पहचानने और शैतान के झूठ से बचने के लिए इन तीनों स्वरूपों के साथ इस पद में एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी दी गई है। इस पद में लिखा है कि शैतान की युक्तियों के तीनों विषयों, प्रभु यीशु मसीह, पवित्र आत्मा, और सुसमाचार के बारे में जो यथार्थ और सत्य है वह वचन में पहले से ही बता दिया गया है।

पिछले लेखों में हमने इन लोगों के द्वारा प्रभु यीशु से संबंधित सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं के बाद, परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित सामान्यतः बताई और सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं की वास्तविकता को वचन की बातों से देखना आरंभ किया है। हम देख चुके हैं कि प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी के नया जन्म या उद्धार पाते ही, तुरंत उसके उद्धार पाने के पल से ही परमेश्वर पवित्र आत्मा अपनी संपूर्णता में आकर उसके अंदर निवास करने लगता है, और उसी में बना रहता है, उसे कभी छोड़ कर नहीं जाता है; और इसी को पवित्र आत्मा से भरना या पवित्र आत्मा से बपतिस्मा पाना भी कहते हैं। वचन स्पष्ट है कि पवित्र आत्मा से भरना या उससे बपतिस्मा पाना कोई दूसरा या अतिरिक्त अनुभव नहीं है, उद्धार के साथ ही सच्चे मसीही विश्वासी में पवित्र आत्मा का आकर निवास करना ही है। इन गलत शिक्षकों की एक और बहुत प्रचलित और बल पूर्वक कही जाने वाले बात हैअन्य-भाषाओंमें बोलना, और उन लोगों के द्वाराअन्य-भाषाओंको अलौकिक भाषाएं बताना। यह भी एक ऐसी गलत शिक्षा है जिसका वचन से कोई समर्थन या आधार नहीं है। आज हम इसी के विषय परमेश्वर के वचन बाइबल से देखेंगे। 

अन्य-भाषाओं के विषय सीखने और समझने के लिए हमें उनके प्रभु यीशु के शिष्यों के मध्य पहले प्रकटीकरण, प्रेरितों 2:4-11 का, उसके संदर्भ और वहाँ परभाषाके लिए प्रयोग किए गए मूल यूनानी भाषा के शब्दों का उनके अर्थ के साथ विश्लेषण करना आवश्यक है। यह करने के बाद ही हम सही निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं।  

प्रेरितों के काम के इस खंड (प्रेरितों 2:4-11) में, इन पदों में, मूल यूनानी भाषा में दो महत्वपूर्ण शब्द प्रयोग किए गए हैं, किन्तु हिन्दी में दोनों ही का अनुवादभाषाकिया गया है। ये शब्द हैं ग्लौसा (Tongue/Glossa), जिसका यहाँ पर और वचन में अन्य स्थानों पर, मनुष्यों द्वारा बोली जाने वाली कोई भाषा के अर्थ में प्रयोग किया गया है। वास्तव में ग्लौसा शब्द का शब्दार्थ होता हैजीभ”; और इसेजीभ के समान दिखने वालीकिसी वस्तु के लिए भी प्रयोग किया जाता है, जैसा कि पद 3 में हुआ है; और इसे जीभ से निकलने वाले शब्द या स्वरों के लिए भी प्रयोग किया जाता है। और इन पदों में प्रयोग किया गया दूसरा शब्द है डियालेकटौस (Language/Dialektos), बोली, जिसका अर्थ किसी बोली जाने वाली मुख्य भाषा का एक उप-स्वरूप याबोलीहोता है। उदाहरण के लिए पूरे उत्तर भारत में बोली जाने वाली भाषाहिन्दीहै; उत्तराखंड के मैदानी इलाकों से लेकर पूर्व में बिहार तक हिन्दी ही बोली जाती है। किन्तु जैसे-जैसे भौगोलिक क्षेत्र बदलते हैं, उस हिन्दी का स्वरूप भिन्न होता जाता है, मुख्य हिन्दी भाषा की बोलियाँ भिन्न होती चली जाती हैं। और हिन्दी की उन बोलियों के द्वारा यह पहचाना जा सकता है कि हिन्दी बोलने वाला वह व्यक्ति उत्तर भारत के किस क्षेत्र का है। अर्थात मुख्य भाषा का ही एक भिन्न स्वरूप बोली है। पद 4 और 11 में मुख्य भाषा दिखाने वाला शब्द गलौसा शब्द प्रयोग किया गया है; किन्तु, पद 6 और 8 में मुख्य भाषा के भिन्न स्वरूपबोलीको दिखाने वाला शब्द डियालेकटौस प्रयोग किया गया है।

यद्यपि यदि केवल इसके मूल अर्थ के अनुसार देखें तो ग्लौसा शब्द जीभ या मुँह से निकलने वाले हर शब्द के लिए सही है; और इसी अभिप्राय का प्रयोग करते हुए ये गलत शिक्षाओं को देने वाले उनकी जीभ या मुँह से निकलने वाले अज्ञात और निरर्थक शब्दों को भीभाषाकहते हैं। किन्तु शेष पदों के साथ मिला कर देखने से यह स्पष्ट है कि इन पदों में ग्लौसा का अर्थ पृथ्वी की ज्ञात और पहचानी जाने वाली भाषा है, कोई अलौकिक भाषा, अथवा मुँह से निकाली जाने वाली कोई भी ध्वनि नहीं। 

पद 4 में लिखा है कि उस स्थान पर एकत्रित सभी जन पवित्र आत्मा से भरने के साथ ही अन्य-अन्य भाषाओं (ग्लौसा) में बोलने लग गए। 

पद 5-8 में लिखा है कि उस पिन्तेकुस्त के पर्व को मनाने के समय पर संसार के विभिन्न क्षेत्रों से आए हुए यहूदी यरूशलेम में एकत्रित थे; और साथ ही उन्हेंभक्त यहूदीकहा गया है। पद 6 और 8 में हिन्दी में जोभाषालिखा गया है वह मूल यूनानी मेंडियालेकटौस”, अर्थातबोलीहै। इसे इससे आगे के पदों के साथ अधिक सरलता से समझा जा सकता है। ये लोग अचंभित होकर कहने लगे किइस्राएल के गलील इलाके के रहने वाले ये लोग, अपनी गलीली बोली के स्थान पर, हमारीबोली” (डियालेकटौस) कैसे बोलने लग गए?” क्योंकि उन सभी भक्त यहूदियों को शिष्यों के मुँह से अपनी-अपनी जन्म-भूमि की बोलियाँ (डियालेकटौस) सुनाई दे रही थीं। 

पद 9-10 में पृथ्वी के 15 विभिन्न क्षेत्रों या भू-भागों का नाम दिया गया है जहाँ के लोग उस समय यरूशलेम में एकत्रित थे। और इन सभी लोगों को - जो हजारों की संख्या में थे (3000 का तो उद्धार हुआ और उन्होंने बपतिस्मा लिया), सभी को अपनी-अपनी ग्लौसा और डियालेकटौस में सुनाई दे रहा था कि प्रभु यीशु के वे शिष्य क्या कह रहे हैं। 

पद 11 में फिर से ग्लौसा अर्थात भाषा शब्द का प्रयोग किया गया है और साथ ही पवित्र आत्मा ने यह भी और स्पष्ट कर दिया है कि क्यों यह ग्लौसा पृथ्वी की ही भाषाएं थीं, स्वर्गीय या दिव्य भाषाएं नहीं थीं। इसके तीन प्रमाण पवित्र आत्मा ने यहाँ लिखवाए हैं:

1. जैसा हम ऊपर पद 6 और 8 में देख चुके हैं, न केवल उन लोगों ने मुख्य भाषाएं बोलीं, किन्तु साथ ही उन मुख्य भाषाओं से संबंधितबोलियाँया उन भाषाओं के क्षेत्रीय स्वरूपों को भी बोला। किन्तु आजअन्य-भाषाको पृथ्वी से बाहर की भाषा कहने वालों में कभी भी उन लोगों के द्वारा यह मुख्य भाषा और उसकी संबंधित विभिन्न बोलियों को बोलने की बात देखने में नहीं आती है, अर्थात यह कि कोई अपनी या किसी और की बोली जाने वालीअन्य-भाषाको किसी और मुख्य भाषा कीबोलीया क्षेत्रीय भाषा बताए। उन्हें तो अपने द्वारा बोली जाने वाली भाषा का ही नाम, अर्थ, व्याकरण, आदि पता नहीं होता है, तो किसी दूसरे की भाषा या बोली के लिए क्या कहेंगे? अन्य-भाषाओं से संबंधित वचन का यह प्रमुख गुण, आजअन्य-भाषाएंबोलने के नामे पर मुँह से निरर्थक ध्वनियाँ निकालने वालों में बिलकुल दिखाई नहीं देता है, तो फिर वे कैसे अपने इस व्यवहार कोवचन के अनुसारसही और जायज़ कह सकते हैं?

2. पद 6, 8 और 11 में लिखा है कि वहाँ एकत्रित सुनने वाले सभी यह पहचान रहे थे कि वे लोग उनकी भाषा या बोली में कुछ कह रहे हैं। यदि बोलने वाले पृथ्वी के बाहर की भाषाएं बोल रहे होते, तो फिर ये पृथ्वी के विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों से एकत्रित हुए यहूदी मनुष्य यह कैसे कहने पाते कि उन्हें अपनी ही भाषा सुनाई दे रही है; क्योंकि उनकी अपनी भाषा का अभिप्राय तो उनके पृथ्वी के भौगोलिक क्षेत्र की भाषा या बोली से होता? आज जोअन्य-भाषाएंबोलने का दावा करते हैं, न तो उन्हें खुद ही और न ही उन्हें सुनने वालों को यह पता होता है कि उन्होंने क्या कहा है! जबकि प्रेरितों 2:4-11 में, और अन्य स्थानों पर भी, वचन में सदा ही यह स्पष्ट किया गया है कि सुनने वाले समझ रहे थे कि क्या कहा जा रहा है।

3. विभिन्न देशों से आए वे यहूदी न केवल अपनी भाषा और बोली पहचान रहे थे, वरन उन्हें यह भी समझ आ रहा था कि क्या कहा जा रहा है -परमेश्वर के बड़े-बड़े कामों की चर्चाकी जा रही है; अर्थात परमेश्वर के आराधना की जा रही है, उससे प्रार्थना नहीं की जा रही है। ध्यान कीजिए, वचन में न यहाँ पर, और न किसी अन्य स्थान पर अन्य-भाषा को प्रार्थना के लिए उपयोग किया गया दिखाया गया है। गलत शिक्षा वाले ये लोग अन्य-भाषाओं कोप्रार्थना करने की भाषाकहकर लोगों को भरमाते हैं, जबकि वचन में ऐसा कहीं नहीं लिखा है। अपनी बात के समर्थन में वे लोग रोमियों 8:26-27 “इसी रीति से आत्मा भी हमारी दुर्बलता में सहायता करता है, क्योंकि हम नहीं जानते, कि प्रार्थना किस रीति से करना चाहिए; परन्तु आत्मा आप ही ऐसी आहें भर भरकर जो बयान से बाहर है, हमारे लिये बिनती करता है। और मनों का जांचने वाला जानता है, कि आत्मा की मनसा क्या है क्योंकि वह पवित्र लोगों के लिये परमेश्वर की इच्छा के अनुसार बिनती करता हैका दुरुपयोग, उसमें अपने ही शब्द और तात्पर्य डालने के द्वारा करते हैं। 

रोमियों के इन पदों में साफ लिखा है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा हमारी दुर्बलताओं की स्थिति में, जब हम नहीं जानते कि ऐसे में क्या प्रार्थना की जाए, तब स्वयं आहें भरकर हमारे लिए परमेश्वर की इच्छा के अनुसार विनती करता है। यहाँ यह कहीं नहीं लिखा या अर्थ दिया गया है कि पवित्र आत्मा मसीही विश्वासियों से अन्य-भाषा बोलने के द्वारा प्रार्थना करवाता है। आहें भरना, और वह भी किसी मनुष्य के द्वारा नहीं, वरन पवित्र आत्मा के द्वारा, अन्य भाषा बोलना नहीं है। इन पदों मेंहम नहीं जानतेमसीही विश्वासी की दुर्बलता की उस स्थिति के लिए आया है जिस में मसीही विश्वासी अपनी परिस्थिति से इतना अभिभूत या प्रभावित है कि उसे समझ ही नहीं आ रहा है कि वह क्या प्रार्थना करे; तब पवित्र आत्मा स्वयं उसके लिए प्रार्थना करके उसकी सहायता करता है। न तो रोमियों के ये पद मनुष्यों द्वारा अन्य-भाषाएं बोलने से संबंधित हैं, और न ही ये पद अन्य-भाषा बोलने को प्रार्थना की भाषा बताना जायज़ ठहराते हैं। इन पदों की इस प्रकार व्याख्या सर्वथा गलत है, वचन के साथ खिलवाड़ और वचन का जान-बूझ कर किया गया दुरुपयोग है। सामान्य समझ की बात है, जब हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं तो हमें पता होता है कि हम क्या और क्यूँ कह रहे हैं, परमेश्वर से क्या माँग रहे हैं। इन गलत शिक्षाओं वालों को तो स्वयं ही पता नहीं होता है कि उन्होंने कहा क्या है, तो फिर वे क्या प्रार्थना करते हैं, या क्या आराधना करते हैं, किसे पता है?

       आजअन्य-भाषाको पृथ्वी के बाहर की भाषा बताने वाले लोगों द्वारा मुँह से निकाली जाने वाली विचित्र आवाजों पर ऊपर कही गई तीनों में से एक भी बात लागू नहीं होती है। अर्थात, जब प्रेरितों 2:4-11 को उसके संदर्भ और शब्दों के अर्थ तथा अभिप्रायों के साथ देखा और अध्ययन किया जाए, तो इन गलत शिक्षाएं फैलाने वालों की बातों का झूठ तुरंत ही सामने आ जाता है। अगले लेख में हम अन्य-भाषाएं बोलने से संबंधित एक और बहुत फैलाई जाने वाली किन्तु बिलकुल गलत शिक्षा, कि अन्य-भाषा बोलना ही पवित्र आत्मा प्राप्त करने का प्रमाण है, के बारे में वचन से देखेंगे।   

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह जानना और समझना अति-आवश्यक है कि आप परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित इन गलत शिक्षाओं में न पड़ जाएं; न खुद भरमाए जाएं, और न ही आपके द्वारा कोई और भरमाया जाए। लोगों द्वारा कही जाने वाले ही नहीं, वरन वचन में लिखी हुई बातों पर भी ध्यान दें, और लोगों की बातों को वचन की बातों से मिला कर जाँचें और परखें। यदि आप इन गलत शिक्षाओं में पड़ चुके हैं, तो अभी वचन के अध्ययन और बात को जाँच-परख कर, सही शिक्षा को, उसी के पालन को अपना लें।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • गिनती 7-8         
  • मरकुस 4:21-41

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें