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रविवार, 13 मार्च 2022

कलीसिया की, तथा मसीही जीवन में उन्नति

 

उन बातों को देखने के पश्चात जिनके कारण मसीही जीवन तथा कलीसिया की उन्नति बाधित होती है, मसीही विश्वासी अपरिपक्व ही बने रहते हैं, आज हम व्यक्तिगत मसीही जीवन में, तथा प्रभु की कलीसिया के द्वारा, उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होने के बारे में देखेंगे। इफिसियों 4:15 में लिखा है कि “वरन प्रेम में सच्चाई से चलते हुए, सब बातों में उस में जो सिर है, अर्थात मसीह में बढ़ते जाएं”; अर्थात मसीही जीवन में उन्नति का, बढ़ोतरी का तरीका है प्रेम, और सच्चाई से रहना तथा व्यवहार करना, और जीवन की हर बात में मसीह यीशु का अनुकरण करना। इन्हीं शिक्षाओं को पवित्र आत्मा ने अन्य कलीसियाओं के लिए भी पौलुस के द्वारा लिखवाया है। वास्तव में, वचन के अनुसार, प्रेम और सच्चाई प्रभु यीशु ही के विभिन्न स्वरूप या उपनाम हैं; इसलिए जो प्रभु यीशु मसीह का अनुकरण करेगा, वह स्वतः ही प्रेम और सच्चाई का व्यवहार भी रखेगा। साथ ही, यह हमको अपने आप को जाँचने का तरीका भी देता है, कि यदि हम में प्रेम और सच्चाई नहीं हैं, तो हम बाहर से चाहे जो भी दिखाते और करते रहें, हम प्रभु यीशु का अनुकरण नहीं कर रहे हैं, इसलिए हमारी अन्य हर बात व्यर्थ है, निष्फल है, यदि प्रेम और सच्चाई हमारे जीवन में नहीं हैं। प्रेम की परिभाषा और प्रेम से चलने या व्यवहार करने के क्या गुण हैं, यह 1 कुरिन्थियों 13 अध्याय में लिखवाया गया है; और इस अध्याय के अंतिम पद, पद 13 में यहाँ तक लिखा है कि “पर अब विश्वास, आशा, प्रेम थे तीनों स्थाई है, पर इन में सब से बड़ा प्रेम है”। प्रेरित यूहन्ना ने पवित्र आत्मा की अगुवाई में लिखा कि परमेश्वर प्रेम है और जो इस प्रेम को नहीं जानता है, वह परमेश्वर को भी नहीं जानता है (1 यूहन्ना 4:8, 16)। यूहन्ना ने ही इस प्रेम के कलीसिया में व्यावहारिक प्रकटीकरण के विषय लिखा, (1 यूहन्ना 4:20-21) और इस संदर्भ में “भाई” शब्द के अर्थ को भी बताया - प्रभु यीशु की मण्डली के हमारे साथी, सह-विश्वासी (1 यूहन्ना 3:14)।


प्रभु यीशु मसीह ने अपने विषय कहा था, “यीशु ने उस से कहा, मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुंच सकता” (यूहन्ना 14:6)। और मसीह यीशु का अनुकरण करने के विषय पौलुस ने लिखा, “तुम मेरी सी चाल चलो जैसा मैं मसीह की सी चाल चलता हूं” (1 कुरिन्थियों 11:1)। कुलुस्सियों 2 अध्याय, प्रभु यीशु मसीह का अनुसरण करते हुए उसके वचन और सच्चाई के साथ चलते रहने के बारे में है। पौलुस में होकर परमेश्वर पवित्र आत्मा ने इस 2 अध्याय लिखवाया है:

  • पद 1-2 - उसका कलीसियाओं में परिश्रम करते रहने का एक उद्देश्य था कि कलीसियाओं को प्रेम में गठे तथा शांति से रहने वाला बनाए, उन्हें परमेश्वर पिता तथा प्रभु यीशु के पहचान में स्थापित और दृढ़ करे। अर्थात, प्रेम में गठना, शांति से रहना, और पिता परमेश्वर तथा प्रभु यीशु की पहचान में स्थापित और दृढ़ होना संबंधित हैं, एक-दूसरे के सहायक एवं पूरक हैं। 

  • पद 3-8 - प्रभु यीशु मसीह ही में बुद्धि और ज्ञान के सारे भण्डार छिपे हैं; इसलिए जो मसीह यीशु की पहचान और ज्ञान में स्थापित और दृढ़ होगा, वह मनुष्यों की लुभाने वाली बातों से भरमाया भी नहीं जाएगा। जब भी कोई शंका हो, प्रभु यीशु मसीह और उसकी शिक्षाओं की ओर लौट आएं, और गलत शिक्षा तथा भरमाए जाने से बच जाएंगे। 

  • पद 9-15 - मसीह यीशु ही परमेश्वर का सदेह प्रतिरूप है, और पूर्णतः परमेश्वर भी है। जो मसीह यीशु में, अर्थात उसके वचन और उसकी शिक्षाओं में बने रहते हैं, उनका पालन करते रहते हैं, वे उसकी भरपूरी के भी संभागी होते हैं। मसीह यीशु में हमारे लिए व्यवस्था की विधियों की सभी बातें पूरी कर दी गई हैं, और उन्हें पूरा करके उसने उनका हमारे द्वारा फिर से उनका पालन किए जाने को हटा दिया है, व्यवस्था के पालन से मुक्त कर दिया है। मसीह यीशु में होकर अब हम परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी ठहरते हैं। इसलिए फिर से व्यवस्था की बातों के पालन में जाना, कर्मों द्वारा धर्मी बनने के प्रयास करना, प्रभु यीशु मसीह के कार्य को व्यर्थ करना, उसका अपमान करना है। 

  • पद 16-23 - उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए, अब किसी भी मसीही विश्वासी को किसी भी प्रकार के कर्मों की धार्मिकता के द्वारा अपने आप को धर्मी दिखाने और ठहराने की आवश्यकता नहीं है। इन पदों में कही गई विभिन्न बातें देखने और सुनने में अच्छी और सही लगती हैं, किन्तु किसी का भी जीवन नहीं बदल सकती हैं, उसे पापों से मुक्ति प्रदान नहीं कर सकती हैं; जो केवल और केवल पापों से पश्चाताप करने और प्रभु यीशु मसीह से उनके लिए क्षमा माँगकर उसे अपना जीवन समर्पित करने के द्वारा मिलती है। जैसा इस अध्याय के अंतिम पद में, अंतिम वाक्य में लिखा है, विभिन्न कर्मों और अनुष्ठानों की ये सारी बातें तो शारीरिक लालसाओं को भी नहीं रोकने पाती हैं, तो फिर उन पर विजयी कैसे बनाने पाएंगी?


इसलिए प्रेम, सच्चाई और प्रभु यीशु में बढ़ते जाना, प्रभु यीशु को “सिर” अर्थात नियंत्रण करने और मार्गदर्शन करने वाला मानकर उसकी तथा उसके वचन की अधीनता में बने रहना ही व्यक्तिगत रीति से मसीही जीवन में, और कलीसिया के जीवन की उन्नति और सुरक्षा का मार्ग है। 


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप प्रेम, सच्चाई और प्रभु यीशु मसीह के अनुकरण में निरंतर न केवल बने रहें, वरन बढ़ते भी जाएं। यही आपके मसीही जीवन को और उन्नत बनाने, सुधारने, और परमेश्वर के लिए उपयोगी बनाने का मार्ग है, तथा साथ ही आपको अपने स्वयं की जाँच करते रहने का एक माप-दण्ड भी प्रदान करता है, जिससे आप मसीही जीवन में अपनी प्रगति और उन्नति को जाँचते तथा देखते रहें। इसलिए अपने जीवन में इन तीन बातों के व्यावहारिक उपयोग को कभी कम न होने दें, उनमें बढ़ते ही रहने के प्रयास में लगे रहें। 


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

   

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • व्यवस्थाविवरण 20-22          

  • मरकुस 13:21-37      


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