ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

बुधवार, 18 मई 2022

बाइबल, पाप और उद्धार / The Bible, Sin, and Salvation - 5


Click Here for the English Translation


पाप का समाधान - उद्धार - 1


    यूनानी भाषा, जिसमें परमेश्वर के वचन बाइबल का नया नियम खण्ड मूल में लिखा गया है, उसमें प्रयुक्त जिस शब्द का अनुवाद ‘उद्धार’ या ‘बचाव’ किया गया है, उसका अर्थ होता है “किसी खतरे अथवा हानि से सुरक्षा प्रदान करना”; अर्थात उद्धार दिए जाने का अर्थ है बचाया जाना, सुरक्षित कर दिया जाना। यहाँ पर एक बहुत महत्वपूर्ण, और इस संदर्भ में सर्वदा ध्यान में रखने वाली बात है कि उद्धार हमेशा परमेश्वर की ओर से दिया जाता है; कोई भी व्यक्ति कभी भी, किसी भी रीति से परमेश्वर के उद्धार को कमा नहीं सकता है; अर्थात अपने किसी भी प्रयास से अपने आप को उद्धार प्राप्त करने का अधिकारी अथवा योग्य नहीं कर सकता है। हम आगे चलकर इसे कुछ और विस्तार से देखेंगे और समझेंगे। 

    प्रभु यीशु मसीह के पृथ्वी पर आने का उद्देश्य, स्वयँ उन्हीं के शब्दों में, सँसार के सभी पाप में खोए हुए लोगों को बचाना, यही सुरक्षा, अर्थात उद्धार, सारे सँसार के सभी लोगों को उपलब्ध करवाना था “क्योंकि मनुष्य का पुत्र लोगों के प्राणों को नाश करने नहीं वरन बचाने के लिये आया है ...” (लूका 9:56); “यदि कोई मेरी बातें सुनकर न माने, तो मैं उसे दोषी नहीं ठहराता, क्योंकि मैं जगत को दोषी ठहराने के लिये नहीं, परन्तु जगत का उद्धार करने के लिये आया हूं” (यूहन्ना 12:47)। प्रभु द्वारा दिए जाने वाले इस उद्धार के विषय कुछ आधारभूत प्रश्न हैं, जिनके उत्तर जानना और समझना परमेश्वर की मानव जाति को अपनी संगति में बहाल करने की इस योजना को जानने, समझने, और मानने के लिए बहुत आवश्यक है। 

    ये प्रश्न हैं:

·        यह उद्धार, अर्थात बचाव, या सुरक्षा किस से और क्यों होना है?

·        व्यक्ति इस उद्धार को कैसे प्राप्त कर सकता है?

·   इसके लिए यह इतना आवश्यक क्यों हुआ कि स्वयं परमेश्वर प्रभु यीशु को स्वर्ग छोड़कर सँसार में बलिदान होने के लिए आना पड़ा?

उद्धार - किस से और क्यों? 

    कल हमने देखा था कि मनुष्य के प्रति परमेश्वर के प्रेम का संकेत इस बात से मिलता है कि केवल मनुष्य ही है जिसको परमेश्वर ने, अपनी समस्त सृष्टि में से, अपने ही हाथों से, अपनी ही स्वरूप में रचा, और उसके नथनों में अपनी श्वास डालकर उसे जीवित प्राणी बनाया, तथा उसे समस्त पृथ्वी और उसकी सभी बातों और प्राणियों पर अधिकार दिया (उत्पत्ति 1:26-28; 2:7)। केवल मनुष्य ही है जिससे संगति रखने के लिए परमेश्वर अदन की वाटिका में आया करता था। किन्तु आदम और हव्वा के द्वारा किए गए परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता के पाप के कारण, परमेश्वर और मनुष्य की यह संगति टूट गई, और मनुष्य मृत्यु, अर्थात परमेश्वर से सदा के लिए अलग रहने के खतरे में आ गया। यह बहुत महत्वपूर्ण तथा आधारभूत तथ्य है, जिसे समझे बिना उद्धार के बारे में समझना असंभव है। क्योंकि निष्पाप, निष्कलंक परमेश्वर पाप के साथ संगति रखना तो दूर, पाप की ओर देख भी नहीं सकता है (हबक्कूक 1:13) इसलिए उस प्रथम पाप, उस अनाज्ञाकारिता के कारण परमेश्वर और मनुष्य की संगति में अवरोध आ गया (यशायाह 59:1-2), मनुष्य परमेश्वर की संगति से दूर हो गया, और उससे हमेशा के लिए दूर हो जाने, अर्थात, मृत्यु के खतरे में आ गया।

    परमेश्वर का वचन बाइबल बताती है कि पाप करने के बाद, पवित्र परमेश्वर के समक्ष निःसंकोच आने, और उससे उन्मुक्त होकर संगति और वार्तालाप करने की मनुष्य, आदम और हव्वा, की प्रवृत्ति बदल गई। उनके अंदर परमेश्वर की दृष्टि में दोषी होने का बोध आ गया, उन्होंने अपने इस नंगेपन, अपनी लज्जा को अपनी दृष्टि में उपयुक्त और उचित, अपने प्रयासों, अंजीर के पत्तों से बने आवरण के द्वारा ढाँप लिया, और जब परमेश्वर उनसे मिलने, संगति करने आया, तो वे परमेश्वर द्वारा उन्हें लगाकर दी गई वाटिका के वृक्षों में छिप गए: “तब उन दोनों की आंखें खुल गई, और उन को मालूम हुआ कि वे नंगे है; सो उन्होंने अंजीर के पत्ते जोड़ जोड़ कर लंगोट बना लिये। तब यहोवा परमेश्वर जो दिन के ठंडे समय वाटिका में फिरता था उसका शब्द उन को सुनाई दिया। तब आदम और उसकी पत्नी वाटिका के वृक्षों के बीच यहोवा परमेश्वर से छिप गए” (उत्पत्ति 3:7-8)। यहाँ सांकेतिक भाषा में, पाप के प्रभाव और मनुष्य में आए परिवर्तनों के विषय कुछ महत्वपूर्ण बातें दी गई हैं:

·        “आँखें खुलना” उन्हें पवित्र परमेश्वर के सम्मुख उनकी वास्तविक दशा तथा अपने किए पाप के दोषी होने का बोध होना दिखाता है।

·        “नंगापन” पाप के कारण उत्पन्न आत्म-ग्लानि, लज्जा को दिखाता है। उनकी सृष्टि से लेकर उस समय तक, वे अपनी इसी निर्वस्त्र दशा में परमेश्वर के साथ मिला करते थे, संगति करते थे, किन्तु उन्हें इसमें कोई लज्जा नहीं होती थी, उन्हें कभी अपने आप को ढाँपने की आवश्यकता नहीं हुई, क्योंकि वे भी निष्पाप और पवित्र दशा में थे। 

·        उनकी सृष्टि के समय से लेकर उनकी यह निर्वस्त्र दशा परमेश्वर के सम्मुख उनके बिल्कुल खुले, प्रकट और किसी भी प्रकार के आवरण रहित होने, और परमेश्वर द्वारा उनके विषय में सब कुछ जानने की ओर भी संकेत करता है।

·        “अंजीर के पत्तों के लंगोट पहनना” मनुष्य के अपने आप को अपने ही प्रयासों से परमेश्वर के सम्मुख प्रस्तुत कर पाने योग्य बनाने को दिखाता है। मनुष्य अपने धर्म के कामों, अपने भले कार्यों, अपने ही बनाए तौर-तरीकों से अपनी लज्जा, परमेश्वर के प्रति अनाज्ञाकारिता और पाप की दशा, को छुपाने का प्रयास करता है। वह यह भूल जाता है कि परमेश्वर के सामने उसका सब हाल खुला है, बेपरदा है। वह अपना कुछ भी परमेश्वर से छिपा नहीं सकता है। 

·        जिस प्रकार वे अंजीर के पत्ते वास्तविकता में केवल एक अस्थाई समाधान थे - थोड़े समय वे मुरझा जाते, सूख कर गिर जाते, और मनुष्य का नंगापन फिर से प्रकट हो जाता, उन्हें फिर से कुछ नया प्रावधान करना पड़ता; उसी प्रकार मनुष्य की धार्मिकता के काम, उसके अपने भलाई के प्रयास, सभी अस्थाई और नश्वर हैं, उसे कभी परमेश्वर के सम्मुख “ढँपा” हुआ और प्रस्तुत होने योग्य नहीं बना सकते हैं। वह बार-बार अपने इन प्रयासों को दोहराता रहता है, किन्तु पाप का दोषी होने का बोध उसके विवेक से नहीं जाता है।

·        उन्होंने परमेश्वर की आवाज़ सुनकर अपने आप को “वाटिका के वृक्षों” में छुपा लिया। आज भी मनुष्य अपनी ही गढ़ी हुई धार्मिकता को ओढ़ कर, अपने आप को परमेश्वर की सृष्टि की बातों में छुपाए रखने के प्रयास करता है; परमेश्वर के सामने अपनी वास्तविकता में आने के स्थान पर, वह अपने बनाए हुए आवरण ओढ़े हुए, अपने आप को अपनी ही गढ़ी हुई नश्वर बातों में छिपाए रखना चाहता है। 

 

    आज किसी भी पूछ लें, सब के पास परमेश्वर की संगति में और उसके वचन के साथ समय न बिताने का एक ही बहाना है - “जीवन इतना व्यस्त है कि इन बातों के लिए समय ही नहीं मिलता है; जो थोड़ा बहुत कर सकते हैं, वह कर लेते हैं, वरना संसार की माँगें यह सब करने के लिए समय ही नहीं देती हैं” - सभी अपने आप को संसार की बातों “वाटिका के वृक्षों” में छुपाए रखना चाहते हैं। यह जानते हुए भी कि संसार की यह सब बातें अस्थाई हैं, नश्वर हैं, यहीं रह जाएंगी, इनमें से कोई भी साथ नहीं जाएगी, ऐसा कोई बहाना परमेश्वर के सामने नहीं चलेगा।

    अन्ततः वह समय सभी के जीवन में आएगा जब उन्हें परमेश्वर के सम्मुख अपनी वास्तविक “निर्वस्त्र” दशा में आना ही होगा, और अपने जीवन की हर बात का हिसाब उसे देना होगा। तब उनके बनाए हुए “अंजीर के पत्तों के लंगोट” उनके पाप की दशा को ढाँपने नहीं पाएँगे, और उनके अपने नहीं वरन परमेश्वर के मानकों के आधार पर उन्हें न्यायसंगत ठहराने नहीं पाएंगे। परमेश्वर से उनकी वास्तविकता न अभी छुपी हुई है, और न तब छुपी हुई होगी, “सो जब तक प्रभु न आए, समय से पहिले किसी बात का न्याय न करो: वही तो अन्धकार की छिपी बातें ज्योति में दिखाएगा, और मनों की मतियों को प्रगट करेगा, तब परमेश्वर की ओर से हर एक की प्रशंसा होगी” (1 कुरिन्थियों 4:5)। 

    पहले पाप से उत्पन्न हुई स्थिति के बारे में हम आगे अगले लेख में देखेंगे। अभी के लिए आप से निवेदन है कि अपने जीवनों को परमेश्वर के दृष्टिकोण से जाँच कर देखें, आप की वास्तविक स्थिति क्या है? ध्यान करें, आपके अपने कोई भी प्रयास और उपाय आपको परमेश्वर की दृष्टि से छुपा नहीं सकते हैं; आपकी लज्जा - आपके पाप की दशा उसके सामने खुली है। फिर भी वह आप से प्रेम करता है, आपके साथ संगति को बहाल करना चाहता है। लेकिन यह संभव हो पाना आपके निर्णय पर आधारित है। आपकी स्वेच्छा और सच्चे पश्चाताप तथा समर्पित मन से की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु, मैं मान लेता हूँ कि मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता करके मैंने पाप किया है। मैं धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर, मेरे स्थान पर उनके मृत्यु-दण्ड को कलवरी के क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा सह लिया। आप मेरे स्थान पर मारे गए, और मेरे उद्धार के लिए मृतकों में से जी भी उठे। कृपया मुझ पर दया करें और मेरे पाप क्षमा करें। मुझे अपना शिष्य बना लें, अपनी आज्ञाकारिता में अपने साथ बना कर रखें।” परमेश्वर आपकी संगति की लालसा रखता है, आपको आशीषित देखना चाहता है; इसे संभव करना या न करना, आपका अपना व्यक्तिगत निर्णय है। 

 

एक साल में बाइबल:

  • 1 इतिहास 4-6

  • यूहन्ना 6:1-21

***********************************************************


English Translation

The Solution for Sin - Salvation - 1


In the Greek language in which the New Testament section of God's Word of the Bible was originally written, the word translated as 'salvation' or 'saved' means "to provide deliverance from danger or harm"; i.e., to be saved means to be delivered, to be secured. A very important thing, something that should always be kept in mind in this context, is that salvation is always given from God; No person can ever, by any means, earn God's salvation; i.e., no one by any of his efforts, can ever make himself worthy or eligible to gain or earn salvation from God. We will see and understand this in some more detail later.


In his own words, the purpose of the Lord Jesus Christ's coming to earth was to save all the people of the world from their state of being lost in their sin, to provide this deliverance, this, salvation, to all the people of the whole world "For the Son of Man did not come to destroy men's lives but to save them…” (Luke 9:56); “And if anyone hears My words and does not believe, I do not judge him; for I did not come to judge the world but to save the world” (John 12:47). There are some fundamental questions about this salvation that the Lord gives; and the answers to these questions are vital for knowing, understanding, and accepting God's plan to restore mankind to His fellowship.


These are the questions:

  • From what is this salvation, i.e., being saved, or being rescued provided; and why?

  • How does one attain this salvation?

  • To accomplish this, why was it so necessary that the Lord Jesus, Himself, had to leave heaven and come to the world to be sacrificed?


Salvation - from Whom and Why?


Yesterday we saw that God's love for man is indicated by the fact that out of the whole of His creation, man is the only one whom God created with His own hands, in His own image, and Himself breathed life into his nostrils. He not only made him a living creature, but also gave him authority over all the earth and all its things and all creatures (Genesis 1:26–28; 2:7). God used to come to the Garden of Eden to have fellowship only with Adam and Eve. But because of Adam and Eve's sin of disobedience to God, this fellowship between God and man was broken, and man came in the danger of death, that is, of eternal separation from God. This is a very important and fundamental fact, and without understanding this fact, it is impossible to understand about salvation. Because the sinless, spotless God cannot even look towards sin, let alone fellowship with sin (Habakkuk 1:13) so, that first sin, that disobedience, broke the fellowship between God and man and hinders its restoration (Isaiah 59:1- 2); man got separated away from the fellowship of God, and came into a position of being in danger of being separated from Him forever, that is, dying.


God's Word The Bible tells us that after sinning, the attitude and behavior of humans, of Adam and Eve, to come freely before the Holy God, changed. They were no longer able to have fellowship and converse with Him, they started to feel guilty in the presence of God, they tried to cover this nakedness, their shame by something appropriate and worthy in their own eyes, something they made by their own understanding, wisdom, and efforts, i.e., a covering made of fig leaves; and when God came to meet them, they hid in themselves the trees of the garden God had given to them: “Then the eyes of both of them were opened, and they knew that they were naked; and they sewed fig leaves together and made themselves coverings. And they heard the sound of the Lord God walking in the garden in the cool of the day, and Adam and his wife hid themselves from the presence of the Lord God among the trees of the garden" (Genesis 3:7-8). Through this incidence, some important points about the effects of sin and changes it brought in man, are given in allegorical language:

  • The “opening of their eyes” shows the realization of their actual condition before the Holy God and the guilt of the sin they have committed.

  • “Nakedness” refers to the self-condemnation, or the sense of shame that is caused by sin. From their creation till that time, they used to meet, and fellowship with God in this naked state, but they were never ashamed of it, they never needed to cover themselves, because they too were sinless and in a holy state.

  • Their being “naked”, since the time of their creation, also indicates that they were completely open, exposed, and without any covering before God, and God always knew everything about them.

  • “Wearing coverings made of fig leaves” refers to the efforts of man to make himself presentable to God by his own efforts. Man tries to hide his shame, disobedience to God, and his state of sin, by his works of self-righteousness, his works that are good in his own eyes, through his own imagined and contrived ways. He forgets that before God his condition is always evident and exposed. He cannot hide anything from God.

  • Just as those fig leaves, in reality, were only a temporary solution - in a short time they would have withered, dried up, and fallen off, and the nakedness of man would have reappeared, therefore, they would have had to make a new provision all over again. Similarly, man's acts of self-righteousness, his own pursuit of good in his own eyes, etc. are all temporary and fallible; they can never keep him "covered" and make him worthy of being presentable to God. Man keeps on repeating his efforts again and again to come before God, but the nagging feeling of being guilty of sin does not go from his conscience.

  • Hearing the voice of God, they hid themselves in the "trees of the garden". Even today man, after covering himself in his own assumed righteousness, tries to hide himself in the things of the earth that God created. Instead of coming forward and appearing before God in his actual condition, he seeks to keep himself covered in his own contrived and fallible self-righteousness, hoping to be worthy of coming before God, and be acceptable to Him, through the vain veil of his own efforts.


Today, ask anyone, and everyone has only one excuse for not spending time in the company of God and with His Word - “Life is so busy that there is no time for these things; Whatever little we can do, we do it, otherwise the demands of the things of the world do not allow time to do all this'' - all want to hide themselves in the “trees of the garden” of the world, and excuse themselves from coming into His presence. Despite knowing very well that all the things of the world they are indulging in, are temporary, perishable, will remain here, and none of these things of the world will go along with them, none of their excuses will work before God.


Eventually the time will come in everyone's life when they will have to come before God, in their true "naked" state, and give account of everything in their lives to Him. Then their self-made “fig leaf coverings” will no longer be able to cover the condition of their sin, and will not be able to justify them by the standards of righteousness, not their own, but of God. Their actual condition is neither hidden from God, nor will ever be hidden, "Therefore judge nothing before the time, until the Lord comes, who will both bring to light the hidden things of darkness and reveal the counsels of the hearts. Then each one's praise will come from God" (1 Corinthians 4:5).


We'll look further at the situation created by the first sin in the next article. For now, a humble request, please examine your life from God's point of view, and see what your actual situation really is? Think it over, none of your own efforts and measures can hide you from God's sight; Your shame - the state of your sin is open to him. Yet, He still loves you - just as you now are; He wants to restore His fellowship with you. But making this possible is dependent upon your decision. A short prayer from a willing heart, with sincere repentance for sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, and have committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; To make this possible or not, is your personal decision.


Through the Bible in a Year:

  • 1 Chronicles 4-6

  • John 6:1-21

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें