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रविवार, 8 जनवरी 2023

प्रभु भोज – भाग लेने में गलतियाँ (8) / The Holy Communion - The Pitfalls (8)

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प्रभु की मेज़ - उसकी मृत्यु और पुनरुत्थान की गवाही

 


 पौलुस द्वारा कुरिन्थुस की कलीसिया को लिखी गई पहली पत्री में से प्रभु भोज के बारे में अध्ययन करते हुए, हमने पिछले लेख में देखा है कि मसीही विश्वासी को, अपने उद्धारकर्ता प्रभु यीशु का अनुसरण करते हुए, परमेश्वर पर सदा भरोसा रखने और उसके प्रति धन्यवादी रहने वाला होना चाहिए, हर परिस्थिति में, हर बात के लिए, चाहे वह प्रसन्न करने वाली हो या दुख देने वाली, समझ में आए अथवा न आए; हमेशा ही अपने विश्वास के लंगर को रोमियों 8:28 पर डाले रखना चाहिए। 1 कुरिन्थियों 11:26 में, पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस मसीही विश्वास के एक अन्य अनोखे गुण को सामने लाता है - प्रभु की मृत्यु का प्रचार करना। पौलुस यहाँ पर लिख रहा है कि जब भी मसीह यीशु के अनुयायी प्रभु की मेज़ में भाग लेते हैं, तो साथ ही स्वतः ही वे प्रभु की मृत्यु का भी प्रचार करते हैं, जब तक कि वह न आए। इस पद के अंत की ओर दिया गए वाक्यांश, “जब तक वह न आए” का तात्पर्य है कि यद्यपि प्रभु मारा गया था, परंतु अभी वह जीवित है, और एक दिन फिर से वापस आएगा, अर्थात इस वाक्यांश में प्रभु यीशु मसीह का पुनरुत्थान और लौट कर आना भी निहित है।


इसलिए, प्रभु की मेज़ प्रभु यीशु मसीह के मारे जाने, गाड़े जाए और जी उठने की यादगार है। जब कोई प्रभु भोज में भाग लेता है, तो वह प्रभु यीशु को याद करने के लिए यह करता है, और साथ ही वह प्रभु यीशु के मारे जाने, गाड़े जाने, जी उठने की गवाही भी देता है। भाग लेने वाले को यह गवाही देने के लिए अलग से कुछ विशेष करने की आवश्यकता नहीं है; यह उनके द्वारा मेज़ में भाग लेने के साथ ही जुड़ा हुआ है, उसमें निहित है। दूसरे शब्दों में, जो भी प्रभु भोज में भाग ले, वह इस एहसास के साथ भाग ले कि उसमें भाग लेने के द्वारा वह प्रभु यीशु के मारे जाने, गाड़े जाने और जी उठने की गवाही भी दे रहा है। परमेश्वर की दृष्टि और आँकलन में, वह यह सहमति व्यक्त कर रहा है कि वह अपने और समस्त संसार के उद्धारकर्ता प्रभु यीशु का संसार के सामने गवाह होकर जीने के लिए तैयार है, और वह अपने जीवन को इस एहसास तथा उद्देश्य के साथ जीएगा। प्रभु भोज में भाग लेते समय वह व्यक्ति एक बार फिर से उस पर प्रभु भोज में भाग लेने के द्वारा डाली गई इस ज़िम्मेदारी की पुष्टि करता है और उसे निभाने की स्वीकृति देता है।


संसार के किसी भी अन्य धर्म, विश्वास, या मान्यता के विपरीत, केवल मसीही विश्वास ही है जो उसके केन्द्रीय, या, मुख्य व्यक्ति - प्रभु यीशु मसीह, के जन्म एवं जीवन पर नहीं, परन्तु उसकी मृत्यु और पुनरुत्थान पर आधारित है। थोड़ा सा आगे चलकर पौलुस प्रभु यीशु की मृत्यु और पुनरुत्थान के महत्व एवं अभिप्रायों पर एक लंबा वृतांत लिखता है, इस पत्री के 15 अध्याय में, और पाठकों के लिए इस 15 अध्याय को अध्ययन करना अच्छा रहेगा। इस 15 अध्याय का निष्कर्ष और उपसंहार है कि यदि मसीह यीशु का पुनरुत्थान नहीं हुआ होता, अर्थात, यदि प्रभु यीशु मसीह मारे, गाड़े, और जी उठे नहीं होते, तो फिर मसीही विश्वास का कोई आधार ही नहीं है, यह सब व्यर्थ प्रचार और गवाही देना है, उसका कोई भविष्य नहीं है। किन्तु मसीह यीशु का पुनरुत्थान मसीही विश्वासियों को यह पूर्ण आश्वासन देता है कि प्रभु के समान उनका भी पुनरुत्थान होगा, प्रभु के साथ उन्हें भी अनन्त जीवन मिलेगा। यही तथ्य, अभी इस पृथ्वी पर, उन्हें प्रभु के गवाह और राजदूत बनकर (2 कुरिन्थियों 5:20; इफिसियों 6:20) मसीही जीवन जीने का आधार देता है, कि वे अपने आप को तथा उन्हें जिनके सामने वे इसकी गवाही देते हैं, प्रभु के साथ अनन्त जीवन जीने के लिए तैयार करें।

 

क्योंकि प्रभु भोज में भाग लेने वाला, स्वतः ही, प्रभु यीशु की मृत्यु और पुनरुत्थान की गवाही देता है, इसलिए जब पृथ्वी का उसका जीवन समाप्त होगा, तब उसे प्रभु के सामने खड़े होकर अपने जीवन का तथा उसे सौंपी गई जिम्मेदारियों का हिसाब भी प्रभु को देना होगा (प्रेरितों 17:30-31; 2 कुरिन्थियों 5:10)। यह प्रभु भोज में भाग लेने वाले पर एक बहुत गंभीर ज़िम्मेदारी डाल देता है; क्योंकि नीतिवचन 19:9 में लिखा है “झूठा साक्षी निर्दोष नहीं ठहरता, और जो झूठ बोला करता है, वह नाश होता है”, और हम 1 कुरिन्थियों 11:30 से देखते हैं कि यह बात कुरिन्थुस की मण्डली के उन लोगों के लिए सत्य भी हुई जिन्होंने अयोग्य रीति से मेज़ में भाग लिया। यह एक बार फिर से इस बात पर ज़ोर देता है कि प्रभु की मेज़ में भाग लेना कोई रीति अथवा रस्म नहीं है, क्योंकि यदि अनुचित प्रकार से इसमें भाग लिया जाए तो इसके गंभीर और हानिकारक परिणाम भी हैं; किन्तु यदि जिस प्रकार से प्रभु ने इसे स्थापित किया और सिखाया, यदि वैसे ही, उचित रीति से इसमें भाग लें, तो बहुत आशीष भी है।


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • उत्पत्ति 20-22          

  • मत्ती 6:19-34     


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English Translation



The Lord’s Table - Witnessing His Death & Resurrection


  In our study about the Holy Communion from Paul’s first letter to the Corinthians, we have seen in the last article that the Christian Believer, emulating his savior Lord Jesus Christ, like the Lord, should be one who trusts God and is thankful to Him, in and for every circumstance or situation, whether it pleasing or distressing, understandable or not understandable; anchoring himself and his faith on Romans 8:28. In 1 Corinthians 11:26, Paul, through the Holy Spirit, presents another unique feature of the Christian Faith - the proclamation of the Lord’s death. Paul says here that whenever the followers of Christ Jesus partake of the Lord’s Table, they also automatically proclaim the Lord’s death, till He comes. This ending phrase of the verse “till He comes”, implies that though the Lord had died, but He is alive now, and will come again someday, i.e., implies the resurrection and return of the Lord Jesus.

 

Therefore, the Lord’s Table is a reminder of the death, burial and resurrection of the Lord Jesus Christ. When one participates in the Holy Communion, it is in remembrance of the Lord, and as witnessing for the death, burial, and resurrection of the Lord Jesus. The participants do not have to make any extra or special efforts to do so, it is inherent in their participating in the Table, it is an implied fact of their participation. In other words, those who participate in the Holy Communion, should do so with the realization that through their participation they are also witnessing about the Lord’s death, burial, and resurrection. In God’s eyes and assessment, they have agreed to be witnesses for their savior Lord in the world, and they agree to live their lives with this realization and for this purpose. They are participating in the Holy Communion to once again affirm their resolve about this responsibility that the Communion places upon them.


Unlike practically every other religion, belief, or faith of the world, the Christian Faith is founded not on the birth and life of its central or key figure - the Lord Jesus Christ; but on His death and resurrection. And a little ahead, Paul writes a detailed account of the significance and implications of the death and resurrection of the Lord Jesus - chapter 15 of this letter, and the readers would do well to study this chapter too. The theme and conclusion of chapter 15 is that if the resurrection of Christ Jesus did not happen, i.e., had Christ not died, been buried, and then resurrected, there is no basis of the Christian Faith, then it is all a false preaching and witnessing, and it has no future. The resurrection of the Lord Jesus Christ assures the Believers in Christ, that they too will be resurrected to life, they too will have an eternal life with the Lord. It establishes the grounds of Christian living now, while alive on earth, as witnesses and Ambassadors of the Lord (2 Corinthians 5:20; Ephesians 6:20), who are preparing themselves and others, to whom they witness, for eternity with the Lord Jesus.


Since the participant in the Holy Communion, ipso facto, is also a testifying witness to the Lord’s death and resurrection; he will also be called to account for this when at the end of his earthly life he stands before the Lord to give and account of his life and answer for what he had been trusted with (Acts 17:30-31; 2 Corinthians 5:10). This places a grave responsibility upon every participant; for it is written in Proverbs 19:9 “A false witness will not go unpunished, And he who speaks lies shall perish”, and we see from 1 Corinthians 11:30 that this had come upon those of the Corinthian Church who had participated unworthily. This again emphasizes why participating in the Lord’s Table cannot be taken lightly or as ritual, since it has serious implications and grave consequences if done inappropriately; but also has rich blessings if done in the manner and for the purpose it was established by the Lord.

 

If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


Through the Bible in a Year: 

  • Genesis 20-22

  • Matthew 6:19-34



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