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मंगलवार, 14 फ़रवरी 2023

बपतिस्मा (13) / Baptism (13)

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बपतिस्मा - कब होना है?

    बपतिस्मे पर हमारे इस अध्ययन में अभी तक हम परमेश्वर के वचन बाइबल से देख चुके हैं कि  आरंभिक कलीसिया में, बपतिस्मा हमेशा वयस्कों को दिया जाता था; उन्हें जिन्होंने सुसमाचार को सुन कर उसे स्वीकार किया और उस पर विश्वास किया, और फिर या तो बपतिस्मा लेने के लिए सहमत हुए अथवा स्वयं उसकी माँग की। और साथ ही, मूल यूनानी भाषा में प्रयोग किए गए शब्द “बैपटिज़ो” के शब्दार्थ के अनुसार, बपतिस्मा हमेशा डुबकी का ही होता था, किसी अन्य विधि से नहीं, आरंभिक कलीसिया के लोग किसी अन्य विधि से बपतिस्मा होने के बारे में नहीं जानते थे। आज हम देखेंगे कि मसीही विश्वास में आने के बाद, व्यक्ति का बपतिस्मा कब होना चाहिए?


बहुधा, प्रभु यीशु की मंडलियों में, कलीसियाओं में, और लोगों में इस बात को लेकर असमंजस रहता है, अनिश्चितता रहती है कि व्यक्ति को बपतिस्मा कब दिया जाना चाहिए? अकसर लोग सोचते हैं कि पहले कुछ समय व्यक्ति के जीवन और व्यवहार को देख लेते हैं, और यदि वह विश्वास में सही बना हुआ प्रतीत होता है, तब ही उसे बपतिस्मा देंगे। यद्यपि यह मानवीय बुद्धि और दृष्टिकोण से बहुत सही बात लगती है, किन्तु वचन में ऐसा कोई उदाहरण या शिक्षा नहीं है जो इस धारणा का समर्थन करे।

 

यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने उन सभी लोगों को तुरंत ही बपतिस्मा दिया जो अपने-अपने पापों को मानकर उससे बपतिस्मा लेना चाह रहे थे (मत्ती 3:6); उसने उनसे उनके बदले हुए जीवन का कोई प्रमाण नहीं माँगा। किन्तु उन फरीसियों और सदूकियों को जो पाखंडी जीवन के लिए कुख्यात थे, और बिना पापों का अंगीकार किए, एक रस्म निभाने या औपचारिकता पूरी करने के लिए, और अपने आप को लोगों के सामने धर्मी दिखाने मात्र के लिए बपतिस्मा लेने आ रहे थे, यूहन्ना ने बपतिस्मा देने से मना किया, और उनसे पहले पश्चाताप करने और मन फिराव को जीवन में प्रदर्शित करने के लिए कहा (मत्ती 3:7-9)।


प्रेरितों 2 अध्याय में, पतरस के प्रचार के द्वारा उद्धार पाने वाले 3,000 लोगों को तुरंत ही बपतिस्मा दिया गया (प्रेरितों 2:41), बिना उनसे उनके बदले हुए जीवन का कोई प्रमाण मांगे, या बिना उन्हें कुछ समय तक निरीक्षण में रखे हुए।

 

पौलुस को, जो तब शाऊल कहलाता था, और कलीसियाओं का सताने वाला होने के लिए जाना जाता था, तुरंत ही बपतिस्मा दिया गया, बिना उसके बदले हुए जीवन के किसी प्रमाण को उसमें देखे या उससे मांगे (प्रेरितों 9:17-18)। जबकि उसके पास परमेश्वर का संदेश लेकर आने वाले जन, हनन्याह को उसके विषय संदेह था (प्रेरितों 9:13-15)।


सामरिया में फिलिप्पुस की सेवकाई के दौरान, फिलिप्पुस ने सामरिया के लोगों को बपतिस्मे दिए, और उनमें शमौन टोन्हा करने वाला भी था, जो अपने आप को अन्य विश्वासियों के समान दिखा रहा था (प्रेरितों 8:12-13)। किन्तु बाद में जब पतरस और यूहन्ना यरूशलेम से वहाँ आए, तब शमौन की वास्तविकता प्रकट हो गई, कि उसने वास्तव में पश्चाताप नहीं किया था, और पतरस उससे सच्चे मन से पश्चाताप करने के लिए कहता है (प्रेरितों 8:18-23)। हमारे आज के विषय से संबंधित जो बात इस घटना से प्रकट होती है, वह है पतरस और यूहन्ना द्वारा शमौन को बपतिस्मा दिए जाने को लेकर कोई भी विरोध न जताना, फिलिप्पुस से इसके बारे में कोई भी प्रश्न न करना, और न ही उसे आगे को इसके लिए सचेत रहने को कहना। यह शमौन द्वारा अनुचित रीति से लिए गए बपतिस्मे और फिलिप्पुस से शमौन का आँकलन करने में हुई चूक का स्पष्ट उदाहरण था, और आगे की शिक्षा के लिए इस उदाहरण के आधार पर कुछ बातें कही जा सकती थीं, कुछ निर्देश दिए जा सकते थे। किन्तु परमेश्वर पवित्र आत्मा ने ऐसा कुछ भी नहीं करवाया। किसी मनुष्य के पश्चाताप और मसीही विश्वास की वास्तविक स्थिति को केवल परमेश्वर ही जानता है। मनुष्यों से चूक होती है, होती रहेगी, इसलिए किसी के विश्वास को प्रमाणित या निश्चित करने के बाद ही उसे बपतिस्मा देने की बात वचन में कहीं भी नहीं लिखी या सिखाई गई है।

 

मसीही विश्वासी को बपतिस्मा कब दिया जाना चाहिए, इसका सबसे स्पष्ट संकेत संभवतः कूश देश या इथोपिया की रानी के मंत्री, को फिलिप्पुस द्वारा दिए गए बपतिस्मे में मिलता है (प्रेरितों 8:35-38)। यहाँ हम न केवल फिलिप्पुस द्वारा तुरंत ही उसे बपतिस्मा दिया जाना देखते हैं, वरन हमारी शिक्षा के लिए लिखवाई गई दो बातें भी देखते हैं।

 

पहली है, उद्धार पाए हुए व्यक्ति में इसके बारे में लालसा। प्रेरितों 8 के इससे ऊपर के वर्णन में हम देखते हैं कि फिलिप्पुस ने उसे यशायाह नबी की पुस्तक से सुसमाचार दिया था। किन्तु यशायाह में बपतिस्मे का कोई उल्लेख नहीं है। इसलिए प्रकट है कि सुसमाचार के साथ, फिलिप्पुस ने उसे मत्ती 28:19 की, प्रभु की आज्ञा की बात भी बताई होगी। इसीलिए उस खोजे के मन में इसकी लालसा जागृत हुई, और उसने इसकी इच्छा व्यक्त की। अर्थात, पहली शर्त है व्यक्ति का बपतिस्मे के लिए प्रभु की आज्ञा और उसकी आज्ञाकारिता के महत्व को समझते हुए स्वतः इसकी इच्छा रखना, इसके लिए आग्रह करना। परमेश्वर पवित्र आत्मा सच्चे विश्वासी को प्रेरित करेगा कि वह यह लालसा रखे और आग्रह करे।

 

दूसरी है, फिलिप्पुस द्वारा उससे पूछना और बताना कि यदि वह पूरे मन से विश्वास करता है, तो यह हो सकता है। ध्यान कीजिए, बपतिस्मा लेने से कोई भी व्यक्ति “पूरे मन से विश्वास” करने नहीं लग जाएगा, जैसा कि शमौन टोन्हा करने वाले के उदाहरण से प्रकट है। फिलिप्पुस ने उस कूश देश के खोजे से उसके इस विश्वास की वास्तविकता का कोई प्रमाण नहीं माँगा, बस उसकी बात को स्वीकार कर लिया, और उसे बपतिस्मा दे दिया।

 

इससे हम यह निष्कर्ष लेते हैं कि जब भी सुसमाचार पर विश्वास और पापों से पश्चाताप करने वाला मसीही विश्वासी, बपतिस्मे के महत्व और संबंधित शिक्षाओं को जानते और समझते हुए, अपने आप को बपतिस्मे के लिए तैयार समझे, और लेने का आग्रह करे, उसे बपतिस्मा दिया जा सकता है। इसके लिए किसी भी रीति से किसी प्रमाण को देखने या पहले उसका विश्वास प्रमाणित होने की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता वचन में नहीं सिखाई गई है।

 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में नया जन्म पाए हुए प्रभु यीशु के शिष्य हैं, पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • लैव्यव्यवस्था 15-16           

  • मत्ती 27:1-26      


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English Translation


Baptism - When?

In our study on baptism from God’s Word the Bible, we have seen so far that in the initial Church, baptism was always given only to adults; to those who had heard the gospel, accepted it and believed on it, and then either expressed the desire to be baptized or were consenting to be baptized. Also, in accordance with the literal meaning of the Greek word “baptizo”, baptism was always by immersion, not in any other manner; the people of the initial Church did not know of baptism by any other method. Today we will see, when should a person be baptized after coming into the Christian Faith.


Often, in the Believer’s Assemblies of Lord Jesus Christ, in Churches, and amongst people, this confusion and uncertainty is seen, when should a person be baptized? It is a common thinking that the person’s life and behavior should first be observed for some time, and if he is found to be okay in faith, only then should he be baptized. Though this seems to be a very logical and acceptable thought from human thinking and perspective, but there is no support, example, or teaching in God’s Word for supporting it.


John the Baptist immediately baptized those who came to him confessing their sins and wanted to be baptized by him (Matthew 3:6); he did not ask for any evidence or proof from them of their changed lives. But the Pharisees and Sadducees who were infamous for their hypocritical lives, and wanted to get baptized without confessing their sins, only to fulfill a ritual or a formality, and wanted to get baptized only to show themselves as righteous to the people, John refused to baptize them; he asked them to first show through their lives the fruits of repentance and a changed life (Matthew 3:7-9).


In Acts chapter 2, the 3,000 Jews who accepted the Lord Jesus after Peter’s preaching, were baptized immediately (Acts 2:41), and no proof of a changed life was asked from them, nor were they put under any observation for any period of time.


Paul, then known as Saul, and was dreaded for persecuting the Church, was baptized soon after his encountering the Lord on the road to Damascus, without anyone asking or observing any change in his life (Acts 9:17-18); though Ananias, who brought God’s message to him, had doubts about him (Acts 9:13-15).


During Philip’s ministry in Samaria, Philip baptized the people of Samaria, including Simon the sorcerer, who was presenting himself the same as the other Believers (Acts 8:12-13). But later, when Peter and John came from Jerusalem, then Simon’s actual condition was exposed, that he had not truly repented, and Peter asks him to sincerely repent (Acts 8:18-23). The important thing here for us in this incidence, for our topic today, is that Peter and John never questioned or opposed Philip’s baptizing Simon, did not admonish him for not being able to discern Simon’s actual state, nor asked him to remain alert in future about this happening again. This was a clear example of Simon taking baptism unworthily and of Philip not being able to correctly assess Simon; and this example could have well been used for teaching and instructions about these things, so that they would not be repeated. But God the Holy Spirit did not do this. Only God knows the actual status of any person’s repentance and change of heart, his Christian Faith. Man can and does make mistakes, and will keep making them; therefore, there is no teaching or instruction in God’s Word to first ascertain a person’s faith and only then baptize anyone.


Probably the best answer for when should a Christian Believer be baptized is in the baptism of the Ethiopian Eunuch by Philip (Acts 8:35-38). Here we see that not only did Philip baptize him immediately, but for our learning there are two things mentioned here.


The first is, the longing within the saved person to be baptized. From the preceding verses of Acts 8, we see that Philip preached the gospel to the eunuch from the book of Isaiah. But Isaiah has no mention of baptism. Therefore, it is evident that along with the gospel, in accordance with the Lord’ instructions of Matthew 28:19, Philip would have also told him about the Lord’s command to be baptized. That is why the desire to be baptized would have come into the heart of the Ethiopian Eunuch, and he expressed this desire to Philip. So, the first condition for baptism that can be inferred here is that the person, knowing the commandment of the Lord and its importance, should have this longing within himself to be baptized, and request for it. The Holy Spirit will encourage a true Christian Believer to live in obedience to the Lord’s commands and give him a desire to be baptized in his heart.


The second is, Philip’s conforming from him about it; Philip said to him that if he believes with all his heart, then he can be baptized. Take note, baptism was not to create a sincere belief in his heart, as is also evident from the example of Simon the sorcerer. Philip did not ask for any proof from the Ethiopian Eunuch about his faith, simply accepted his word for it, and baptized him.


We infer from this that the Christian Believer who accepts and believes in the gospel, repents of his sins, knows and understands the importance of baptism and its related teachings and instructions in God’s Word, if he considers himself ready for baptism, and asks for it, then it can be given to him. There is no need to ask for any proof, or to wait for any period of observation before baptizing him; nothing like this has been taught in God’s Word.

 

If you are a Christian Believer, then please examine your life and make sure that you are actually a Born-Again disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. Whoever may be the preacher or teacher, but you should always, like the Berean Believers, first cross-check and test all teachings that you receive, from the Word of God. Only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


Through the Bible in a Year: 

  • Leviticus 15-16 

  • Matthew 27:1-26



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