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मंगलवार, 28 मार्च 2023

आराधना (24) / Understanding Worship (24)

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आराधना के लिए परिवर्तित (1) 


हमने आराधना के बारे में अभी तक परमेश्वर के वचन से जो कुछ देखा है, देखा है कि मसीही विश्वासी के लिए आत्मा और सच्चाई से परमेश्वर की वास्तविक आराधना करना कितना महत्वपूर्ण है, देखा है कि वह सब करते रहना जिसे सामान्यतः ‘आराधना’ कह तो दिया जाता है, लेकिन वह आराधना होती नहीं है, और यह जानते हुए कि अधिकांश कलीसियाओं और मण्डलियों में आराधना करने और आराधक बनने के विषय सार्थक शिक्षाएँ बहुत ही कम दी जाती हैं, सच्ची आराधना करना और वास्तविक आराधक बनना बहुत से लोगों को एक बहुत कठिन कार्य प्रतीत हो सकता है। लोगों के मनों में यह अनिश्चितता हो सकती है कि क्या वे कभी वैसे आराधक बनने पाएँगे, जैसा परमेश्वर चाहता है कि वे हों? मसीही विश्वासियों के पास एक अनुपम विशेषाधिकार है, परमेश्वर को पिता कहकर संबोधित करने का। और हम यह भी जानते हैं कि एक प्रेमी पिता होने के नाते, वह न केवल हमारी आवश्यकताओं को पूरा करता रहता है, बल्कि वह हमारी आने वाली आवश्यकताओं के प्रति भली-भांति अवगत भी रहता है, उन आवश्यकताओं के आने और हमारे उन्हें जानने से भी पहले। इसलिए, उसके बच्चों में, आराधना से संबंधित इस अनिश्चितता के बारे में भी परमेश्वर भली-भांति जानता है। उसे पता है कि उसकी संतान को उनके विश्वास के जीवन में, उसके साथ चलने में, उससे संगति रखने के लिए, इस महत्वपूर्ण बात को सीखने की आवश्यकता होगी। इसीलिए, अपने वचन, बाइबल में परमेश्वर ने कई उदाहरणों से आराधना करने और आराधक बनने के बारे में बताया है। हम उनमें से एक उदाहरण, 2 इतिहास 29 अध्याय से, राजा हिजकिय्याह के जीवन से देखेंगे कि सामान्य से वैसे सच्चे आराधक में, जैसा परमेश्वर चाहता है, व्यक्ति कैसे परिवर्तित होता है।


राजा हिजकिय्याह यहूदा का एक भक्त राजा था, लेकिन उसका पिता, राजा आहाज, परमेश्वर से विमुख होकर चलने वाला राजा था, जो इस्राएल के राजाओं के समान चलता था (2 इतिहास 28:2)। आहाज के कारण, यहूदा बहुत गंभीर आत्मिक गिरावट में आ गया, परमेश्वर के प्रति अविश्वासयोग्य हो गया (2 इतिहास 28:19), और जब आहाज की मृत्यु हुई तो उसके इस व्यवहार के कारण उसे राजाओं के स्थान पर भी नहीं दफनाया गया (2 इतिहास 28:27)। हिजकिय्याह का जन्म और पालन-पोषण ऐसे ही आत्मिक गिरावट और खोखलेपन के समय में हुआ था, और उसने जब राज्य की बागडोर संभाली, तब राज्य ऐसे आत्मिक और नैतिक पतन में था, परमेश्वर के प्रति अविश्वासयोग्य हो रखा था।


लेकिन राजा हिजकिय्याह में होकर, परमेश्वर अपने लोगों में एक बहुत बड़ा परिवर्तन लेकर आया और उन्हें वापस अपनी सच्ची आराधना करने वाले लोग बना दिया। परमेश्वर के लोगों का इस प्रकार से आराधक बनने में परिवर्तित होना, चार क़दमों से होकर होता है, जो इस प्रकार से हैं:


1. 2 इतिहास 29:2 - परमेश्वर के एक सच्चे और प्रतिबद्ध अनुयायी बनना -  

यद्यपि हिजकिय्याह मूर्तिपूजा, अन्य देवी देवताओं की उपासना और परमेश्वर के प्रति अभक्ति के माहौल से आया था, लेकिन उसने सच्चाई और दृढ़ निश्चय के साथ परमेश्वर का अनुसरण किया। उसने अपनी इस प्रतिबद्धता को अपने कामों और व्यवहार से प्रत्यक्ष दिखाया, जैसे के उसके पूर्वज दाऊद ने भी किया था। यह वह पहला कदम है; पाप, शैतानी बातों और प्रभावों का जीवन, संसार के साथ समझौता कर के रहना, आदि बातों के अन्धकार से बाहर निकलकर परमेश्वर भक्ति की ज्योति में आना और परमेश्वर का एक ईमानदार, समर्पित, प्रतिबद्ध अनुयायी बन जाना। प्रत्येक व्यक्ति को सबसे पहले इसी बात का निर्णय लेना होता है कि वह परमेश्वर और उसके वचन ही की आज्ञाकारिता में चलेगा। बिना यह निर्णय लिए और उसका पालन किए, परिवर्तन आरंभ नहीं हो सकता है। पौलुस ने 1 कुरिन्थियों 3:1-3 में कुरिन्थुस के उन मसीही विश्वासियों को सांसारिक, अपरिपक्व, और बच्चों के समान कहा जिन्हें ‘ठोस भोज’ नहीं दिया जा सकता है। यद्यपि वे नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी थे, लेकिन उन्होंने अपने आत्मिक जीवन में कोई उन्नति नहीं की थी; क्योंकि वे परमेश्वर तथा उसके वचन के नहीं, मनुष्यों के अनुयायी बने हुए थे (1 कुरिन्थियों 3:4-7)। पौलुस ने उन्हें इस बात के लिए भी चिताया कि यदि उनका व्यवहार और कार्य, अर्थात, उनके मसीही विश्वास के प्रत्यक्ष प्रमाण, मसीह यीशु की दृढ़ नींव पर स्थापित नहीं होंगे, यदि वे जाँचने के परमेश्वर के मानकों के अनुसार सही नहीं पाए जाएँगे, तो वे छूछे हाथ ही अनन्त काल में प्रवेश करेंगे (1 कुरिन्थियों 3:10-15)। उनका उद्धार तो कभी नहीं जाएगा, वे स्वर्ग में तो प्रवेश करेंगे, लेकिन उनके पास अनन्त काल का आनन्द लेने के लिए कोई प्रतिफल नहीं होंगे, और हमेशा खाली हाथ ही रहेंगे।


इसलिए, नया-जन्म पा लेना, मसीही विश्वासी बन जाना, स्वतः ही आत्मिक परिपक्वता और प्रतिफल नहीं ले आता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने आप को प्रभु का अनुसरण करने के लिए समर्पित करके उसके प्रति प्रतिबद्ध होना पड़ता है, प्रभु तथा उसके वचन के प्रति आज्ञाकारी होना पड़ता है। केवल तब ही व्यक्ति आत्मिक रीति से उन्नति कर सकता है, इस जीवन में परिपक्व हो सकता है, तथा आने वाले जीवन के लिए प्रतिफल अर्जित कर सकता है। हम इस बात को पौलुस के जीवन में देखते हैं, जिसने अपने भूतपूर्व जीवन के बावजूद, मसीह में आगे ही बढ़ते रहने का दृढ़ निर्णय लिया और उसे निभाया (फिलिप्पियों 3:7-13); और अन्त में, जब उसे पता पड़ा कि पृथ्वी पर उसका समय पूरा हो गया है, वह आनन्द के साथ कह सका कि परमेश्वर ने उसे जो कहा था, उसने वह सब किया है, और अब उसके लिए धार्मिकता का मुकुट रखा हुआ है (2 तिमुथियुस 4:6-8)।


परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला, उसे स्वीकार्य आराधना करने वाला आराधक बनने के लिए पहला कदम होता है, मनुष्यों और उनकी शिक्षाओं का नहीं, वरन, परमेश्वर और उसके वचन की आज्ञाकारिता में प्रतिबद्ध होकर चलना। यदि यह केवल एक निर्णय है, जिसे निभाया नहीं जाता है; जिसका जीवन में कोई व्यावहारिक निर्वाह नहीं है, तो यह व्यर्थ है, एक खोखला आश्वासन है, और इससे कोई परिवर्तन नहीं आएगा। अगले लेख में हम दूसरे कदम के बारे में देखेंगे।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • न्यायियों 4-6           

  • लूका 4:31-44      


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English Translation


Being Transformed To Worship (1)


After all that we have seen about worship from God’s Word, having seen how important actually worshipping God in spirit and truth is for a Christian Believer’s life, instead of doing things that are usually seen and accepted as worship, but in reality, are not, and being well aware that in most Churches and Assemblies, hardly any worthwhile teaching is given about worshipping God and becoming a worshipper; doing it may seem quite daunting to many people. There might be an uncertainty in people’s hearts, whether or not they will be able to become the kind of worshippers that God wants them to be; will they ever be able to do it? The Christian Believers have a unique privilege of addressing God as our Father; and we also know that as a loving Father He not only meets all our needs, but even knows our coming needs, even before we know about them. Therefore, this uncertainty in hearts of people regarding worship is not unknown to God; He is well aware that His children, in their life of faith, in their walk with Him, will need to learn this important aspect of fellowshipping with Him. Therefore, in His Word, the Bible, God has already given the way of becoming a worshipper, through various examples. We will use one example, that of King Hezekiah, from 2 Chronicles 29, to learn about being transformed into a worshipper, as God wants to be.


King Hezekiah was a godly King of Judah, but his father, King Ahaz, was an ungodly king, and it is written about Ahaz that he walked in the ways of the ungodly kings of Israel (2 Chronicles 28:2), because of him Judah was brought low, suffered a moral decline and became unfaithful to God (2 Chronicles 28:19), and eventually when he died, he was not buried in the tombs of the kings of Israel  (2 Chronicles 28:27). Hezekiah had been born and brought up in such a condition of moral and spiritual depravity and bankruptcy, and took over the reins of the kingdom when it was in such a state of spiritual decline and unfaithfulness to God.

 

But through Hezekiah, God brought about a transformation in His people, and brought them back into truly worshipping Him. The process of God’s people getting transformed into worshippers is through four steps, as follows:


 1. 2 Chronicles 29:2 – Become a committed and true follower of God -        Hezekiah, though coming from the darkness of paganism and ungodliness, sincerely followed God. Demonstrating his commitment through his works, just as his ancestor David did. This represents the first step of stepping out from the darkness of sin, from living a life under satanic influences and worldliness, into the light of godliness, and becoming a sincere committed follower of God. Every person has to first and foremost take a decision and make a commitment of following God and His Word. Without this resolve, and implementation of this resolve in his life, the transformation cannot begin. Paul, in 1 Corinthians 3:1-3 calls the Corinthian Believers as carnal, immature, children who are unable to take in the ‘solid food’. Although they were Born-Again Believers, but they had not grown in their spiritual lives, since they were following men, giving the primary place and honor to men in their lives, and not to God and His Word (1 Corinthians 3:4-7). Paul also warned them that if their life and works, i.e., the practical evidences of their faith, are not built on the firm foundation of Jesus Christ, if they do not stand up to God’s standards of evaluation, then they will enter eternity empty handed (1 Corinthians 3:10-15). Their salvation will not be lost, they will still enter heaven, but will remain without any rewards to enjoy throughout eternity.


So, being Born-Again, becoming a Christian Believer, does not by itself bring spiritual maturity and rewards to a person. Every person has to commit himself to following the Lord, being obedient to Him and His Word. Only then can the person grow and mature spiritually, in this life, and have eternal rewards for the next life. We see this in the life of Paul, who despite his past, committed himself to pressing on ahead (Philippians 3:7-13); and then finally, when he knew that his time on earth is over, he could joyfully say that he has done what God had asked him to do, and now a crown of righteousness awaits him (2 Timothy 4:6-8).

 

The first step in becoming a worshipper pleasing and acceptable to God is to make a commitment to follow God and His Word, not men and their teachings; and to also live by it. Without a practical application in life, empty promises and vain resolves, will not bring any transformation. We will look at the second step for this transformation in the next article.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.  


Through the Bible in a Year: 

  • Judges 4-6

  • Luke 4:31-44


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