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रविवार, 7 मई 2023

Miscellaneous Questions / कुछ प्रश्न - 6 - Unjust Steward / चतुर भण्डारी

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चतुर भण्डारी (लूका 16:1-13) का दृष्टांत क्या सिखाता है?


    यह दृष्टांत प्रभु यीशु द्वारा दिए गए दृष्टांतों और शिक्षाओं में से, समझने और समझाने में, सबसे कठिन में से एक है। कठिनाई मुख्यतः इस कारण है क्योंकि जो हम पढ़ते और देखते हैं उससे यह स्पष्ट है कि उस भण्डारी ने गलत किया हैवह बेईमान रहा हैपरन्तु फिर भी ऐसा लगता है मानो प्रभु उसकी सराहना कर रहे हैंऔर उसे अनुसरण के योग्य उदाहरण के समान प्रस्तुत कर रहे हैं। यह कुछ सीमा तक सत्य भी है, परन्तु पूर्णतया नहीं।

    इस दृष्टांत में प्रभु के अभिप्राय को समझने के लिए हमें उस भण्डारी द्वारा प्रयुक्त बातों पर ध्यान देना होगा –योजना बननाचतुराईबुद्धिमत्ताउद्देश्य या लक्ष्य साधना, और उचित कार्यविधि अपनानाजिससे वह अपनी परिस्थिति का सर्वोत्तम उपयोग कर सके। अन्त के पदों से, अर्थात 10 से 13 पदों सेयह बिलकुल स्पष्ट है कि प्रभु बेईमानी के विरुद्ध तथा गलत तरीकों से कमाए गए धन के विरुद्ध हैअतः इसमें कोई संदेह नहीं है कियहाँ प्रभु अपने शिष्यों से न तो यह कह रहे थे और न ही अभिप्राय दे रहे थे कि उस भण्डारी की बेईमानी अनुसरणीय है। किन्तु, निःसंदेह भण्डारी ने जो किया प्रभु ने उसमें कुछ योग्य भी पायाऔर इसलिए उन्होंने अपने शिष्यों से उससे कुछ सीखने और उन शिक्षाप्रद बातों को अपने जीवनों में लागू करने के लिए कहा। जो प्रशंसनीय बातें प्रभु को उस भण्डारी में दिखाई दीं वे थींजोखिम भरे समय में भी अपनी बुद्धिमता को बनाए रखनाचतुर और बुद्धिमान होनाऔर योजनाबद्ध तरीके से अपने लक्ष्य को पूरा करना (लूका 16:3-4).

    वह भण्डारी समझ गया था कि उसके हिसाब देने का समय आ गया है (लूका 16:2)और वह अपने आते अन्त से भी अवगत था। किन्तु उसने न तो हिम्मत हारी और न ही हार मानीवरन जो भी समय और संसाधन उसे उपलब्ध थे उसने उनका प्रयोग कियाऔर जो कुछ भी वह कर सकता था उसने कियायह सुनिश्चित करने के लिए कि उसका भविष्य अंधकारमय न रहेपरन्तु अच्छा हो जाए (लूका 16:5-7)। प्रभु अपने शिष्यों को यही बात सिखा रहे थे (लूका 16:8), कि जैसे सँसार के लोग चतुर होते हैं शिष्यों को भी चतुर होना चाहिएऔर जो कुछ भी उनके पास है उसका, अपने संसाधनों का उपयोगउचित रीति से भली-भांति करना चाहिए। प्रभु ने हमें मूर्ख या सरलता से धोखा खा जाने वाले होने के लिए नहीं बुलाया हैवरन चतुर और समझदार होने के लिए बुलाया है (मत्ती 10:16)।  ऐसा नहीं है कि प्रभु हमें कुटिल या चालाक (बुरे अभिप्राय में) बनाना चाहता हैपरन्तु वह चाहता है कि हम अपनी परिस्थितियों का आंकलन करना सीखेंऔर फिर उसके अनुसार बुद्धिमत्ता से व्यवहार करें (लूका 12:56-58; लूका 14:25-33; मत्ती 10:23).

    यह केवल प्रभु यीशु ही कीया केवल नए नियम की शिक्षा नहीं है। पुराने नियम मेंनीतिवचन की पुस्तक चतुर, बुद्धिमान, और समझदार होने की शिक्षा के साथ आरंभ होती है (नीतिवचन 1:1-7); और तुरंत ही चतुर, बुद्धिमान, और समझदार नहीं होने के दुष्परिणामों के विषय सचेत करती है (नीतिवचन 1:20-33)। दाऊदजो परमेश्वर के मन के अनुसार व्यक्ति था, ने अपने दायित्वों के निर्वाह और अपने प्राणों की रक्षा के लिए बुद्धिमानी से कार्य किया (1 शमूएल 18:5, 14, 30)। भजन 119:98-100 हमें दिखाता है कि कैसे परमेश्वर अपने अनुयायियों को सँसार के लोगों से अधिक चतुर और सूझ-बूझ वाला बनाता हैऔर अपने वचनों के द्वारा अपने लोगों को चतुराई और बुद्धिमत्ता सिखाता है जिससेवे इन सदगुणों का उपयोग अपने दैनिक जीवनों में, सँसार के लोगों और परिस्थितियों का सामना करते समय करेंजिससे प्रभु के लिए जीने और उसके गवाह होने के अपने उद्देश्यों को पूरा कर सकें।

    प्रभु के शिष्यों का सदैव यही प्रयास रहना चाहिए कि वे परमेश्वर के राज्य में अपना अनन्तकाल बिताने के लिए आदर के साथ प्रवेश करेंअर्थातदूसरे शब्दों मेंभले प्रतिफलों के साथ प्रवेश करेंजिन्हें वे अनन्तकाल में उपयोग करेंगे। अपने पृथ्वी के समय मेंअन्हें अच्छी योजनाएं बनाकर, चतुराई और बुद्धिमता के साथ प्रभु के लिए जीवन जीने और गवाही देने के उद्देश्य की पूर्ति करते रहना चाहिएतथा इस कार्य के लिए जो अवसर परमेश्वर उन्हें प्रदान करता है उनका भली-भांति उपयोग करना चाहिए। प्रभु यीशु के समान हीप्रभु के शिष्यों को भी परमेश्वर की ओर से उन्हें सौंपे गए उद्देश्यों को पूरा करने में दृढ़ बने रहना चाहिए (लूका 9:51-52); और पौलुस के समान, सभी शिष्यों को अपने कार्यों को योजनाबद्ध तरीके से करना चाहिए (2 कुरिन्थियों 1:17) तथा किसी न किसी प्रकार से प्रभु के लिए उपयोगी होने के लिए प्रयासरत तथा सक्रीय रहना चाहिएबजाए इसके कि निष्क्रीय रहकर बातों के होने की प्रतीक्षा करें (प्रेरितों 16:6-10).

    स्वर्ग में प्रवेशअर्थात हमारा उद्धार, प्रभु में विश्वास लाने तथा अपने पापों से पश्चाताप करने और प्रभु से उनकी क्षमा प्राप्त करने के द्वाराकेवल परमेश्वर के अनुग्रह ही से है। परन्तु हमारे अनन्तकाल के लिए प्रतिफल हमें परमेश्वर द्वारा हमारे कर्मों के आधार पर प्रदान किए जाते हैंमसीही विश्वासियोंअर्थात नया जन्म पाए हुए परमेश्वर की संतानों का न्यायउनके उद्धार पाने के लिए नहीं वरन उन्हें प्रतिफल प्रदान करने के लिए हैऔर कुछ ऐसे भी होंगे जो अनन्तकाल के लिए स्वर्ग में छूछे हाथ प्रवेश करेंगे (1 कुरिन्थियों 3:12-15).

    चतुर भण्डारी के दृष्टांत के द्वारा प्रभु अपने शिष्यों को सिखा रहे हैं कि वे परिस्थितयों से कभी न घबराएंचतुर और बुद्धिमान बनेंअपने उद्देश्य पर दृष्टि गड़ाए रखें और उस उद्देश्य को पूरा करने में प्रयासरत रहें। परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी कठिन या निराशाजनक क्यों न होंशिष्यों को चतुराई और बुद्धिमता के साथ उपयुक्त कार्यविधि को अपनाना चाहिएजैसा कि उस भण्डारी ने कियाऔर विकट परिस्तिथियों को भी अपने पक्ष में मोड़ लिया। प्रभु के शिष्यों को अपनी सांसारिक धन-संपदा का उपयोग ऐसी रीति से करना चाहिए कि 'जब वह जाता रहे,’ या चला जाएअर्थात पृथ्वी के उनके समय के पूरे होने परवे लोग जिन्हें शिष्यों के धन और संसाधनों के द्वारा पृथ्वी पर लाभ पहुँचावे उन शिष्यों के आदर के साथ अनन्तकाल में प्रवेश का कारण बन जाएँ (लूका 16:9)

    इस दृष्टांत के द्वारा प्रभु हमें बेईमान होना नहीं सिखा रहा हैवरन बिना निराश हुए, बिना हार माने, चतुर और बुद्धिमान होनाअपने उद्देश्य की पूर्ति की कार्यविधि पर अपना ध्यान केंद्रित रखनाऔर बुद्धिमता के साथ अपनी परिस्थितियों का प्रयोग करना सिखा रहा है, जिससे हम अपने अनन्तकाल के लिए प्रतिफल बनाए रखें और उन्हें अधिक बढ़ा सकें।

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What Does the Parable of the Unjust Steward (Luke 16:1-13) Teach us?


    Of all the parables and teachings given by the Lord Jesus this is one of the most difficult to understand and explain. The difficulty is primarily because it is apparent from what we read and see that the steward has done wrong, he has been dishonest, but yet it appears that the Lord Jesus is commending him, and presenting him as an example worth emulating. This is true to some extent, but not entirely.

    To understand the Lord Jesus's intentions in this parable we need to pay attention to what the steward used – planning, smartness, prudence, purpose and appropriate methodology, to make the most out of the circumstance he was in. From the latter verses i.e. 10 to 13, it is quite apparent that the Lord is clearly teaching against dishonesty and wealth acquired through wrong means; hence it stands to reason that here in the parable, the Lord could not be saying or implying to His disciples that the steward's dishonesty was something worth emulating. Yet, there is no doubt that the Lord Jesus did find something worthy in what the steward did, and therefore asked His disciples to learn from what the steward did and implement it in their lives. The things that the Lord commended in the steward were, his sense of keeping his wits about him in dire circumstances, his being smart and prudent, and his working with a plan to fulfill his purpose (Luke 16:3-4).

    That steward knew that the time has come for him to give an account Luke 16:2; and he was also aware of his impending fate. But he did not loose heart or give up; instead he used whatever time and resources were available to him, he did all that he could do, to ensure that his future does not remain dark, but becomes good (Luke 16:5-7). This is what the Lord is teaching to His disciples (Luke 16:8), that as the people of the world are they too should be clever, and learn to use their resources, whatever they have, worthily and properly. The Lord has not called us to be foolish or gullible, but to be clever and discerning (Matthew 10:16). It is not that the Lord want us to be devious, but that we learn to take stock of the situation at hand, and then prudently act accordingly (Luke 12:56-58; Luke 14:25-33; Matthew 10:23).

    This is not just the teaching of the Lord Jesus, or only the New Testament. In the Old Testament, the book of Proverbs begins with instructions to be wise, prudent and understanding (Proverbs 1:1-7); and immediately goes on to warn about the serious consequences of not paying heed to these instructions to be wise, prudent and understanding (Proverbs 1:20-33). David, a man after God’s heart, behaved wisely in carrying out his responsibilities and caring for preserving his life (1 Samuel 18:5, 14, 30). Psalms 119:98-100 shows us how God makes His followers more wise and understanding than the people of the world around them, and He teaches His people wisdom and prudence through His Word, so that they may utilize these qualities in their day to day life, when facing the people and circumstances of the world, in achieving their purpose of witnessing and living for the Lord.

    It should be the endeavor of the Lord's disciples to enter their eternity in the Kingdom of God with honor; or, in other words, to enter with good rewards, which they will utilize in their eternity. While on earth, they should plan well, be smart and prudent, and keep looking for ways to fulfill their purpose of living and witnessing for the Lord, and making good use of the opportunities God provides them for this purpose. Like the Lord Jesus, His disciples should be resolute and firm in fulfilling their God given purposes (Luke 9:51-52); and like Paul, all disciples should plan their activities (2 Corinthians 1:17) and actively keep striving and trying one way or another to work for the Lord, instead of being passive and waiting for things to happen (Acts 16:6-10).

    The entry into heaven, i.e. our Salvation is through coming to faith in the Lord Jesus, repenting of our sins and receiving the Lord's forgiveness for them, solely through the grace of God. But our rewards for our eternity are granted to us by God based on our works; the judgment of Christian Believers, the Born Again children of God will not be for their salvation, but for giving them rewards for their work for the Lord, and there will be some who will enter heaven for eternity empty handed (1 Corinthians 3:12-15).

    Through this parable of the Unjust Steward the Lord is teaching His disciples to ever remain undaunted by circumstances, be smart and prudent, to keep an eye on their purpose and endeavor to fulfill that purpose. No matter how difficult or disappointing the situation may be, they ought to adopt a prudent or appropriate methodology, as that steward did, to turn the dire circumstances into favorable ones. The Lord’s disciples ought to use their worldly possessions and wealth in such a manner that 'when it fails,’ or is gone, i.e. at the completion of their time on earth, the people who benefited from the disciple’s wealth and other resources on earth, will be the reason for the disciple’s being welcomed into eternity with honor (Luke 16:9).

    Through this parable the Lord was not teaching us to be dishonest, but to be smart and prudent, to remain focused on our purpose, and without getting disappointed, without loosing heart, use all our circumstances wisely to maintain and increase our eternal rewards.

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