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बुधवार, 16 अगस्त 2023

The Law & Salvation / व्यवस्था और उद्धार – 35 – Review & Conclusions / पुनःअवलोकन एवं निष्कर्ष – 1


व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 26

पुनःअवलोकन एवं निष्कर्ष (भाग 1)


हम पिछले कुछ समय से, लेखों की इस शृंखला “परमेश्वर की व्यवस्था हमें क्यों उद्धार नहीं दे सकती है” में हम व्यवस्था और उद्धार से संबंधित विभिन्न बातों को देखते और उनका विश्लेषण करते हुए आ रहे हैं। इस आम धारणा की सच्चाई परखने के लिए कि भला मनुष्य ही परमेश्वर को स्वीकार्य हो सकता है, इसलिए मनुष्य को भला बनना चाहिए, हमने शृंखला का आरंभ यह देखने के साथ किया था कि भला क्या है, भला कौन है? हमने देखा कि भला होने और भलाई की परिभाषा, मनुष्य और संसार नहीं, केवल परमेश्वर ही निर्धारित करता है; और जो उसके अनुसार भला है, केवल वही उसे स्वीकार्य भी है। और उसने इससे संबंधित अपनी मनसा अपने वचन बाइबल में बता दी है। साथ ही हमने देखा था कि वास्तव में भला केवल परमेश्वर है; और मनुष्य अपने किसी भी प्रयास से भला और परमेश्वर को स्वीकार्य हो ही नहीं सकता है। किन्तु हमने यह भी देखा है कि परमेश्वर मनुष्य को उसकी स्वाभाविक पापी दशा में ही, जैसा भी वो है, चाहे उसके पाप कितने भी अधिक हों कितने भी घोर और जघन्य क्यों न हों, स्वीकार करने, और उसे स्वयं पापों से शुद्ध करने, अपने राज्य में प्रवेश देने, अपनी संगति में बहाल करने के लिए सर्वदा तैयार है, यदि वह मनुष्य उसके पास पापों के लिए पश्चाताप और परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण एवं आज्ञाकारिता के साथ आता है। परमेश्वर हर किसी को अपने राज्य में प्रवेश देने, अपने साथ संगति में भाल करने के लिए तैयार है, किन्तु इसके लिए मनुष्य को अपनी नहीं वरन परमेश्वर की शर्तों के साथ आना होगा।


हमने यह भी देखा था कि व्यवस्था का पालन करने का अर्थ रीतियों, त्यौहारों, भेंट-बलिदानों आदि का परमेश्वर को चढ़ाना नहीं है। वरन व्यवस्था का पालन करने का अर्थ है परमेश्वर से सच्चा प्रेम करना, उसके प्रति पूर्णतः समर्पित और आज्ञाकारी रहना, और अन्य मनुष्यों से भी अपने समान ही प्रेम करना (मत्ती 22:35-40)। हमने संसार के इतिहास का एक बहुत संक्षिप्त अवलोकन करने के द्वारा समझा था कि चाहे स्वाभाविक, अपरिवर्तित, उद्धार नहीं पाया हुआ मनुष्य हो, जो अपनी ही बनाई हुई नैतिकता और धार्मिकता की बातों का पालन करता है; या परमेश्वर की व्यवस्था और नैतिकता एवं धार्मिकता की जानकारी रखने वाले, और परमेश्वर के नबियों की अगुवाई प्राप्त करने वाले परमेश्वर के चुने हुए लोग हों; दोनों में से कोई भी परमेश्वर को स्वीकार्य नैतिकता और धार्मिकता के स्तर तक नहीं पहुँच सका है। जिनके पास परमेश्वर की व्यवस्था थी, वो भी उसका पालन करने में असमर्थ रहे हैं, और अन्ततः उन लोगों के समान ही परमेश्वर को अस्वीकार्य रहे हैं, जिनके पास परमेश्वर की व्यवस्था नहीं थी। 


फिर हमने व्यवस्था पालन के लिए मनुष्य की इस दुर्बलता को देखना आरंभ किया, और समझा था कि मनुष्य अपनी सृष्टि से ही स्‍वर्गदूतों कम स्तर का है। साथ ही, पाप में गिरने और उसके अन्य अनुयायी स्‍वर्गदूतों के साथ स्वर्ग से निकाले जाने से पहले शैतान सर्वोच्च स्वर्गदूत था। क्योंकि परमेश्वर अपने दिए हुए अधिकार और वरदान किसी से वापस नहीं लेता है, इसलिए आज भी शैतान और उसके दूत, मनुष्य से अधिक सामर्थी और बुद्धिमान हैं। इसीलिए वे मनुष्यों को अपनी कुटिलता में फँसा कर पाप में गिरा देते हैं। किन्तु जो मनुष्य परमेश्वर को समर्पित होकर, परमेश्वर की आज्ञाकारिता में, उसके वचन और उसकी विधि के अनुसार शैतान का सामना करता है, वह शैतान पर और उसकी युक्तियों पर परमेश्वर की सामर्थ्य के द्वारा जयवन्त भी होता है। और क्योंकि शैतान ने कुटिलता से, अनैतिक रीति से मनुष्यों को पाप में गिराया है, इसीलिए परमेश्वर ने, जो खरा और सच्चा न्यायी है, कभी पक्षपात नहीं करता है, उसी ने सभी मनुष्यों को पापों से पश्चाताप करने की आज्ञा दी है जिससे परमेश्वर के साथ उनके संबंध बहाल हो जाएं। क्योंकि वह जानता है कि मनुष्य किसी भी “व्यवस्था” के पालन से, वह “व्यवस्था” चाहे परमेश्वर की दी हुई हो, या मनुष्यों की बनाई हुई हो, पापों से छुटकारा नहीं पा सकता है। यह छुटकारा केवल प्रभु यीशु मसीह के द्वारा दिए गए बलिदान, उसके काम से ही संभव है। इसीलिए वह सभी को समान अवसर और आज्ञा देकर पापों के दण्ड से बचने का पूरा अवसर दे रहा है। 


    फिर हमने व्यवस्था के उद्देश्य, उसकी सीमाओं को भी देखा था, और समझा था कि व्यवस्था मनुष्य को पाप की पहचान करवा सकती है; उसे पाप करने का दोषी ठहरा सकती है; किन्तु पाप से बचने का मार्ग नहीं दे सकती है, और न ही पाप करने से रोक सकती है। हमने यह भी देखा था कि व्यवस्था परमेश्वर द्वारा दिया गया उसकी धार्मिकता को समझने का एक पैमाना है, जिसके समक्ष हर बात को लाकर मनुष्य देख और समझ सकता है कि उस बात में वह परमेश्वर की धार्मिकता के स्तर के अनुसार कहाँ खड़ा है, उसकी अपनी धार्मिकता का स्तर क्या है। व्यवस्था पाप और धार्मिकता की पहचान करने के लिए है, पाप का समाधान करने और धर्मी बनाने के लिए नहीं। हमारे पापों का समाधान और हमें धर्मी बनाना तो पापों से पश्चाताप करने और प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास और उसे उद्धारकर्ता स्वीकार करने से है, अन्य किसी प्रकार से नहीं।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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Why The Law Cannot Save Us – 26

Review and Conclusion (Part 1)

 


    For the past some time, in this series on "Why God's Law Can't Save Us", we've been looking at and analyzing various aspects of the Law and salvation. To check the reality and truth of the common belief that only good persons can be acceptable to God, therefore, man must be good, we began the series by looking at what is good, who is good? We saw that the definition of good and of being good is only by God, not by man or the world. And only that which is good according to God is acceptable to Him; and He has given His criteria related to this in His word the Bible. We also saw that it is only God who actually is good. Man can never be good and acceptable to God through any of his efforts. But we have also seen that God is ever willing to accept man, even in his natural sinful state, just as he is, no matter how many and how heinous his sins may be. God is willing to accept, and cleanse the natural man, who comes to Him in repentance of his sins, and with full submission and obedience towards Him. God is willing to give everyone an entry into His kingdom, to be restored to fellowship with, but only on God’s terms and conditions, not man’s.


    We have also seen that keeping the Law does not mean fulfilling rituals, observing and celebrating festivals, giving of offerings to God, etc. Rather, to obey the Law means to truly love God, to be completely devoted and obedient to Him, and to similarly love other human beings as well (Matthew 22:35-40). We understood by taking a very brief look at the history of the world that whether a natural, unregenerate, unsaved man, who follows the morality and righteousness of man’s own making; or whether God's chosen people, having knowledge of God's Law and His morality and righteousness, and being led by God's prophets; neither of them could reach the level of morality and righteousness acceptable to God. Those who had God's Law were unable to keep it, and ultimately were as unacceptable to God as those who did not have God's law.


    Then we began to look at the reasons for man's weakness to keep God’s Law. We saw that man, from his creation itself, is inferior to the angels. Satan was the supreme angel before he fell into sin and was cast out of heaven along with other angels following him. Because God does not take away from anyone the authority and gifts He has given, Satan and his demons are still more powerful and wiser than man. That is why they easily entrap human beings by their wickedness and make them fall into sin. But the man who, in submission to God, in obedience to God, confronts Satan according to God’s Word and His method, can overcome Satan and his tactics through the power of God. And because Satan has brought men into committing sin through his deviousness, therefore God, who is the upright and true Judge, is impartial, commands all men to repent of their sins so that their relationship with God gets restored; since God knows that man cannot be redeemed of his sins by observing any "law", whether that "law" is given by God, or made by men. This redemption is possible only through the work of the sacrifice made by the Lord Jesus Christ. That is why he is giving equal opportunity and the command to all, to escape from the punishment of sins.


    Then we also looked at the purpose of the Law, and its limitations; and understood that the Law can help man to recognize sin; can convict him of sinning; but it cannot give man a way to escape from sin, nor can it prevent him from committing sin. We also saw that the Law is a measure of God's standard of righteousness. By bringing everything before it for comparison, man can see and understand where he stands according to the standard of God's righteousness, what is the level of his morality? The Law is meant to identify sin and righteousness, not to remedy and solve the problem of sin. The solution of our sins and the way to make us righteous is only by repenting of our sins and by believing in the Lord Jesus Christ, accepting Him as Savior; there is no other way.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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