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बुधवार, 8 नवंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 74 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 3

पवित्र आत्मा – हमारा सहायक – 2

 

    हम मसीही विश्वासियों का परमेश्वर पवित्र आत्मा के योग्य भण्डारी होने के बारे में देख रहे हैं। हमने देखा है कि जिस पल व्यक्ति प्रभु यीशु में विश्वास कर के उसे अपना उद्धारकर्ता ग्रहण करता है, नया जन्म पा कर परमेश्वर के परिवार का सदस्य बन जाता है, परमेश्वर पवित्र आत्मा उसी पल से आकर उसमें रहने लग जाता है। हमने देखा था कि प्रभु यीशु ने अपने क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए पकड़वाए जाने से पहले ठीक पहले, अपने शिष्यों के साथ हुए वार्तालाप में, पवित्र आत्मा के बारे में उन्हें सिखाया था। पवित्र आत्मा से सम्बन्धित यह वार्तालाप हमारे लिए यूहन्ना 14 से 16 अध्याय में दर्ज किया गया है। पिछले लेख में हमने यूहन्ना 14:16 को देखना आरम्भ किया था, जिसमें प्रभु ने अपने शिष्यों के जीवन से संबंधित, पवित्र आत्मा के बारे में दो बातें कही हैं – कि वह उनका सहायक होगा, और हमेशा उनके साथ बना रहेगा। पवित्र आत्मा के मसीही विश्वासी का सहायक होने को समझने के लिए, हमने देखा था कि जिस शब्द का अनुवाद ‘सहायक’ किया गया है, मूल यूनानी भाषा का वह शब्द है ‘पैराक्लीटोस’, जिसका अर्थ होता है साथ बने रहने वाला, या साथी। हमने यह भी देखा था कि क्यों प्रत्येक मसीही विश्वासी को, यीशु को अपने जीवन का प्रभु स्वीकार कर लेने के पल से ही पवित्र आत्मा की सहायता, मार्गदर्शन, और सामर्थ्य की आवश्यकता होती है। आज हम पवित्र आत्मा के हमारा ‘सहायक’ या ‘साथी’ होने के बारे में और समझेंगे।


    हमने पिछले लेख का अंत इस बात के साथ किया था कि बहुधा मसीही विश्वासी पवित्र आत्मा को  अपने स्थान पर काम करने वाला बना कर उपयोग करना चाहते हैं, बजाए उसे अपने सहायक या साथी होने के। लेकिन न तो वह यह है, और न ही कभी यह करेगा; अर्थात, परमेश्वर ने जो हमारे करने के लिए निर्धारित किया है, उसे वह हमारे स्थान पर नहीं करेगा। जो हम से करने के लिए कहा गया है, उसके लिए वह हमें सिखाएगा, हमारा मार्गदर्शन करेगा, और हमें उसके लिए उपयुक्त सामर्थ्य देगा, लेकिन उसे करने के लिए हमारा स्थान नहीं लेगा। लेकिन बहुत से मसीही इस प्रार्थना के पीछे छुपना चाहते हैं कि, “प्रभु में यह नहीं कर सकता हूँ, मैं उतना सामर्थी नहीं हूँ, मैं अपने सभी प्रयासों में सदा ही असफल रहा हूँ, आदि, इसलिए अब आप ही इसे कर के दें”, और वे अपनी ज़िम्मेदारी प्रभु पर या उन में निवास करने वाले पवित्र आत्मा पर डाल देना चाहते हैं। इस प्रकार की सोच की गलती और ऐसी प्रार्थनाओं की व्यर्थता समझने के लिए हमें परमेश्वर के वचन के दो अन्य पदों – 2 पतरस 1:3, और भजन 103:14 को देखना होगा।


    2 पतरस 1:3 हमें बताता है कि जीवन और भक्ति से संबंधित प्रत्येक बात हमें प्रभु यीशु की पहचान के द्वारा पहले से ही दे दी गई है। इसलिए प्रत्येक मसीही के पास वे सभी संसाधन उपलब्ध हैं जो उसे अपने साँसारिक जीवन तथा भक्ति के जीवन के लिए चाहिएँ। परमेश्वर पवित्र आत्मा हमें उन संसाधनों को सही और प्रभावी रीति से उपयोग करना सिखाता है।


    साथ ही, हम भजन 103:14 से सीखते हैं कि परमेश्वर को हमारी सृष्टि ध्यान रहती है और यह भी कि हम मिट्टी ही हैं। इसलिए वह कभी हमें हमारी सामर्थ्य और क्षमता से बाहर कुछ भी करने के लिए नहीं कहेगा; अगर कुछ करने के लिए कहेगा तो वही कहेगा जो हमारी क्षमता और सामर्थ्य की सीमा में होगा।


    इसलिए, यदि 2 पतरस 1:3 मसीहियों के लिए सही है, तो किसी भी मसीही विश्वासी के लिए ऐसी कोई भी प्रार्थना करना बिलकुल व्यर्थ है कि, “प्रभु मैं यह नहीं कर सकता हूँ, आप ही मेरे लिए इसे कर के दें”, क्योंकि ऐसी प्रार्थना करने का तात्पर्य है कि:

·        परमेश्वर ने हर परिस्थिति का सामना करने के लिए हमें सभी प्रावधान नहीं दिए हैं, तैयार नहीं किया है।

·        उसने हमारे जीवन और भक्ति का जीवन जी पाने के लिए आवश्यक कुछ बातें हम से रख छोड़ी हैं।

·        हम पर शैतान जो कुछ भी ला सकता है, उस सभी के लिए परमेश्वर ने हमें तैयार और सक्षम नहीं किया है। जो यह कहने के समान है कि शैतान परमेश्वर से अधिक चतुर और बुद्धिमान है, और परमेश्वर से बढ़कर सोच सकता है।


    यह उसी जाल में फँसना है जिस में उसने हव्वा को फँसाया था – परमेश्वर ने तुम्हें जो कुछ चाहिए, वह सब कुछ नहीं दिया है; इसलिए मैं जो कहता हूँ वह करो, और तुम्हें वह भी मिल जाएगा जो परमेश्वर ने तुम से रोक कर रखा है, और इस प्रकार से तुम उस से भी बेहतर हो जाओगे जैसा परमेश्वर ने तुम्हें बनाया है।


    शैतान के इस झूठ को स्वीकार करने और मानने का अर्थ है तीन ऐसी बातों को स्वीकार कर लेना और मान लेना जो परमेश्वर के चरित्र और गुणों को ही नकार देती हैं। ये बातें हैं:

·        पहली, परमेश्वर न तो सर्वज्ञानी है और न ही सर्वसामर्थी है – वह यह जान ही नहीं पाता है कि शैतान क्या कर कुछ सकता है और न ही उसका सामना करने के लिए उपयुक्त प्रावधान प्रदान कर पाता है। इसलिए वह अपने बच्चों को शैतान की युक्तियों पर जयवंत जीवन जीने के लिए उपयुक्त संसाधन नहीं देने पाता है।

·        दूसरी, परमेश्वर झूठा है, या फिर झूठे आश्वासन देने वाला है; आश्वासन जिन्हें वह पूरा नहीं कर सकता है, और इसलिए उसके वचन पर भरोसा नहीं रखा अजा सकता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि यद्यपि परमेश्वर कहता तो है कि जीवन और भक्ति से संबंधित हर बात उसने हमें पहले से ही प्रदान कर रखी है; लेकिन जब उसके इस आश्वासन को परखा जाता है, तो उसके दावे खरे नहीं निकलते हैं।

·        तीसरी, इस से परमेश्वर की संतानों के मनों में परमेश्वर के बारे में, उसके द्वारा प्रार्थनाओं का उत्तर देने, और हमारी किसी आवश्यकता के समय पर परमेश्वर की सहायता के उपलब्ध होने के बारे में सन्देह उत्पन्न होते हैं। इस से विश्वासियों अन्दर फिर अजेय विफलताओं की, अयोग्यताओं की, और अपर्याप्त प्रावधानों की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं; विशेषतः तब जब इस प्रकार की बारम्बार की गई प्रार्थनाओं का कोई उत्तर नहीं मिलता है, समस्या वैसी ही बनी रहती है। और समस्या वैसी ही बनी भी रहेगी क्योंकि कमी परमेश्वर में नहीं हमारी समझ और प्रार्थनाओं में है।


    पवित्र आत्मा हमारी सहायता और मार्गदर्शन करता है कि हम परमेश्वर द्वारा हमें प्रदान किए गए संसाधनों का सही और प्रभावी उपयोग कर सकें, और शैतान की युक्तियों पर जयवंत हो सकें। लेकिन यह सोचना और मानना कि वह हमारे स्थान पर हमारे लिए हमारा कार्य कर देगा, शैतान के बहकावे में फँसना है; ऐसे बहकावों में जिन्हें शैतान हमें भक्ति और धार्मिकता की बातों के रूप में परोसता है, लेकिन जिनका वास्तविक उद्देश्य हमें निराश करना, हमारे विश्वास को कमज़ोर करना, हमारे समय को व्यर्थ बातों में बर्बाद करना, और परमेश्वर के लिए हमारी सेवकाई में हमें प्रभावहीन बनाना होता है। हम इस बात को अगले लेख में कुछ और विस्तार से देखेंगे, और समझेंगे कि शैतान की युक्तियों में फँसने से कैसे बचें, परमेश्वर के वचन की बातों की गलत व्याख्या और अनुचित अर्थों में पड़ कर परमेश्वर के आश्वासनों पर संदेह करने से कैसे बच कर रह सकते हैं।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Holy Spirit – Our Helper – 2

 

    We have been looking at Christian Believer’s being the stewards of God’s Holy Spirit, who comes to reside in them the moment they are Born-Again and become members of God’s family, by coming to faith in the Lord Jesus Christ. We have seen that the Lord Jesus taught His disciples about the Holy Spirit in His last discourse with them before being caught and taken for crucifixion. The Lord’s teachings about the Holy Spirit in this final discourse have been recorded for us in John’s gospel, chapters 14 to 16. In the previous article we had started looking at John 14:16, where the Lord stated two functions of the Holy Spirit in His disciple’s life – that He will be their Helper and will always be with them. In understanding the Holy Spirit being the disciple’s ‘Helper’, we had seen that the word translated as ‘Helper’, in the original Greek language is ‘parakletos’ which means one who remains alongside, is a companion. We had also seen why every disciple of the Lord Jesus needs the help, guidance, and power of the Holy Spirit since the time of his accepting Jesus as the Lord of his life. Today, we will continue to understand the Holy Spirit being a ‘Helper' or a 'Companion' of the Lord’s disciple.


    We had concluded the last article by saying that very often Christian Believer’s tend to try to use the Holy Spirit as their substitute, as one who will do their work for them, instead of seeing Him as their Helper or Companion. But He is neither meant to do that, nor will He do it, i.e., do what we have been asked to do by God, instead of us. He will teach, guide and empower us for what we have been asked to do and show to us or lead us into how to do it, but will not replace us to do it for us. But many Christian Believers tend to hide behind the prayer “Lord, I cannot do it, I am not strong enough to do it, I have always failed in all my attempts, etc., so now you do it for me” and pass the responsibility to the Lord or to the Holy Spirit residing in them to do their work instead. To understand the fallacy and vanity of this thinking and prayers for this, we need to consider two other verses of God’s Word – 2 Peter 1:3, and Psalm 103:14.

    2 Peter 1:3 tells us that everything for life and Godliness has already been given to us in the knowledge of the Lord Jesus. Hence, every Christian Believer has every resource he will ever need for living his physical or worldly life and also for Godliness in this life. The Holy Spirit teaches us how to utilize those resources properly and effectively.

    Moreover, we learn from Psalm 103:14 that God remembers our frame and that we are but dust. Therefore, God will only ask us to do something that we can, that thing which is within our God given capabilities; and not something we cannot.

    Therefore, if 2 Peter 1:3 is true for the Believers, then it is vain for a Believer to pray that "Lord, I cannot do it, you do it for me", since praying this prayer implies that:

  • God has not fully equipped us to handle every situation.

  • He has held back something required for our life and Godly living.

  • God has left us inadequately prepared and deficient to handle everything that Satan can bring upon us. Indirectly saying, Satan is smarter, more cunning, and can out-think, out-do God.

    This is to fall into the same trap as Satan laid out for Eve - God has not given you everything, that you need; therefore, do what I say, and you will acquire what God has kept back from you and thus become better than what God has made you.

    Accepting and believing this satanic lie, then implies three things, things that negate the very character and attributes of God. These three things are:

  • First, God is neither omniscient nor omnipotent - He is unable to know and anticipate what Satan can do, and therefore unable to equip His children to give them the power and ability to be victorious over Satan's ploys.

  • Second, God is a liar, or one who gives false assurances; assurances that He cannot keep it, and therefore His Word is unreliable. It implies that though God says He has already given us all things for life and Godliness, but the actual reality is that when His assurances are tested, His claims do not stand true.

  • Third, it creates doubts in the minds of God’s children about God really answering prayers and about God's help actually being available in our time of need. This, then generates feelings of unsurmountable failure and inadequacies in the Believer, when his repeated prayers of this kind remain unanswered - as they always will; because the misunderstandings and fault in those prayers is ours, not God's.

    The Holy Spirit helps and guides us in properly utilizing our God given resources, and to overcome the ploys of the devil. To think and believe that He will take over from us and do our job for us, is to fall for the satanic deceptions; deceptions that are fed to us in the garb of religiosity and being pious, but actually meant to disappoint us, weaken our faith, waste our time on vain things, and make us ineffective in our ministry for God. We will consider this a bit more in the next article, and see how not to be misled by Satan into coming to wrong conclusions, misinterpreting God’s Word and doubting God’s assurances for us.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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