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बुधवार, 22 नवंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 88 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 17

 

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पवित्र आत्मा – सत्य का आत्मा – 6

 

    प्रत्येक नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी, उसे परमेश्वर के द्वारा उसके जीवन और सेवकाई के लिए दिए गए संसाधनों का भण्डारी है। इसीलिए विश्वासी को परमेश्वर पवित्र आत्मा, जो उसे उद्धार होने के पल से ही परमेश्वर द्वारा प्रदान कर दिया जाता है, का भी योग्य भण्डारी होना है, और सीखना है कि अपने जीवन और सेवकाई के लिए उसकी सहायता कैसे ली जाए और उपयोग कैसे किया जाए। भण्डारी होने के बारे में सीखते हुए, वर्तमान में हम यूहन्ना 14:17 के पहले वाक्याँश, पवित्र आत्मा सत्य का आत्मा है, और इसलिए कभी भी किसी भी ऐसी बात के साथ जो बाइबल के अनुसार सही नहीं है, पर विचार कर रहे हैं। क्योंकि पवित्र आत्मा ने हमें बाइबल में वह सब कुछ पहले से ही दे दिया है जो जीवन और भक्ति के लिए हमें चाहिए (2 पतरस 1:3), इसलिए वह अब किसी को भी, कोई भी नई शिक्षाएँ अथवा प्रकाशन नहीं देता है; वरन वह केवल जो बाइबल में दे दिया गया है, उसे स्मरण करवाता है, उसका उपयोग करने में सहयता करता है, मार्गदर्शन करता है (यूहन्ना 16:13-15)।


    हमने पिछले लेख में देखा था कि लोगों को धोखा देने और गलत मार्ग पर डालने के लिए शैतान ज्योतिर्मय स्वर्गदूत का भेस धारण करता है, और उसके सेवक भी झूठे प्रेरित और धर्म के सेवकों का रूप धारण करते हैं (2 कुरिन्थियों 11:13-15)। इस से सम्बंधित एक और बहुत महत्वपूर्ण तथ्य है कि ऐसा कोई नहीं है, परमेश्वर के समर्पित और प्रतिबद्ध लोग भी नहीं, जो कभी गलती नहीं करते हैं (याकूब 3:2; 1 यूहन्ना 1:8), और हमने इस के कुछ उदाहरण पिछले लेख में देखे हैं। इसलिए यह मसीही विश्वासियों के लिए अनिवार्य है कि कभी भी किसी भी बात को यूँ ही नहीं मान लें, चाहे उस शिक्षा को देने वाला कोई भी क्यों हो, या वह शिक्षा कितनी भी प्रभावी, तर्कसंगत, रोचक, और आकर्षक क्यों न प्रतीत हो। वरन हमेशा उसे पहले परमेश्वर के वचन से जाँच-परख कर देखें, पुष्टि करें, और तब ही उसे स्वीकार करें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)।


    परमेश्वर के लोगों के द्वारा की जाने वाली एक आम गलती है, जिसे वे सामान्यतः परमेश्वर के प्रति भक्ति, आदर, और श्रद्धा के विचार से करते हैं; यह गलती है बाइबल के शब्दों और वाक्यांशों को उन बातों को कहने और अभिप्राय देने के लिए उपयोग करना, जैसा बाइबल में उनके विषय नहीं किया गया है। बाइबल के किसी वाक्याँश अथवा तथ्य का अपनी ही इच्छा के अनुसार किसी भी मनमाने तरीके से किसी बात में उपयोग करने से वह बात बाइबल के अनुसार सही नहीं हो जाती है। प्रभु यीशु मसीह की परीक्षाओं को स्मरण कीजिए जो मत्ती 4:1-11 और लूका 4:1-13 में दर्ज है, शैतान ने परमेश्वर के वचन को गलत रीति से उपयोग किया, उसका अनुचित हवाला दिया, जैसा कि वचन में कहीं भी, कभी भी, किसी ने कहा या उपयोग नहीं किया था; और प्रभु ने उसकी बात को वचन से ही काटा और गलत प्रमाणित किया। इसी प्रकार से, मत्ती 7:21-23 में प्रभु के नाम के दुरुपयोग का एक और उदाहरण है, जिसके लिए किसी को कोई श्रेय अथवा लाभ नहीं मिला, वरन घोर हानि उठानी पड़ी।


    लेकिन लोग बहुधा, यद्यपि श्रद्धा, भक्ति, और भले उद्देश्यों से, किन्तु गलत रीति से बाइबल के शब्दों और तथ्यों का, कई वाक्यांशों और कथनों में उस रीति से उपयोग करते हैं जैसा उनके लिए बाइबल में नहीं दिया गया है, अर्थात उनका दुरुपयोग करते हैं। वे ऐसा परमेश्वर को प्रसन्न करने के प्रयास में, प्रार्थनाओं को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए, और जो प्रार्थना वे कर रहे हैं उसका उत्तर उसी रीति से जैसा वे चाहते हैं प्राप्त करने के लिए, करते हैं। इस तरह से दुरुपयोग किये जाने वाले कुछ शब्द और वाक्याँश हैं, प्रभु यीशु का लहू, कलवारी का क्रूस या मसीह का क्रूस, शैतान को बाँधना, किसी पर आशीषों को खोल देना, यह मान कर चलना कि उनकी प्रार्थनाओं का वही उत्तर दे दिया गया है जैसा उन्होंने माँगा है, आदि। वे अपने इन मनगढ़ंत कथनों को “मन्त्र” के समान उपयोग करते हैं कि परमेश्वर को, जो वे चाहते हैं, वही करने के लिए बाध्य कर सकें। ये, बाइबल पर आधारित, किन्तु बाइबल से असंगत वाक्याँश और कथन उस बात को करने के समान हैं जो अय्यूब के मित्र कह रहे थे, वे परमेश्वर के पक्ष में तो बोल रहे थे किन्तु वैसे नहीं जैसा सही था (अय्यूब 42:7), इसलिए परमेश्वर उन से प्रसन्न नहीं किन्तु क्रोधित हुआ। परमेश्वर को मनुष्यों के द्वारा गढ़े गए शब्दों और वाक्यांशों में बाँधा नहीं जा सकता है, चाहे वे शब्द उसके वचन में से लेकर ही क्यों न अनुचित रीति से उपयोग किए जाएँ। और न ही परमेश्वर की किसी भी सँतान को, अपनी प्रार्थना अथवा आराधाना चढ़ाने के लिए, बारंबार अपनी पहचान और परमेश्वर के पास आने का आधार बताते हुए, परमेश्वर के पास आने की आवश्यक्ता है। परमेश्वर अपने लोगों को पहले से ही जानता है, और उसके लोगों को वह जो ‘अधर्म’ है, गलत है, उससे बचे रहने की आवश्यक्ता है (2 तीमुथियुस 2:19)।


    प्रभु यीशु ने अपने पहाड़ी उपदेश में अपने शिष्यों को प्रार्थना का एक साधारण और सीधा सा नमूना दिया है, जो परमेश्वर के सामुख आने, प्रार्थनाओं के विषय, और प्रार्थना को अन्त करने के बारे में बताता है (मत्ती 6:7-13); और साथ ही प्रभु ने इस बात पर भी बल दिया कि अन्य-जातियों के समान न बनें, जो व्यर्थ बातें दोहराते रहते हैं। प्रभु द्वारा दी गई इस नमूने की प्रार्थना में ऐसा कोई भी शब्द अथवा वाक्याँश नहीं है जिन्हें ये लोग अपनी प्रार्थनाओं और आराधना में बारंबार दोहराते हैं; और कुछ तो अपनी प्रार्थानाओं और आराधना के हर वाक्य में कुछ निश्चित शब्दों और वाक्याँशों को बोलते ही रहने के आदि हैं; उन्हें सभोपदेशक 5:2 की चेतावनी पर विशेष ध्यान देना चाहिए।


    ज़रा विचार कीजिए, परमेश्वर के वचन में लिखी गई किसी भी प्रार्थना अथवा आराधना में क्या वे शब्द और वाक्याँश कहे गए हैं जिन्हें व्यर्थ ही दोहराते रहने के लिए ये लोग इतने प्रतिबद्ध हैं? साथ ही इस तथ्य पर भी ध्यान कीजिए कि जो लोग इन शब्दों और वाक्यांशों का उपयोग नहीं करते हैं, क्या परमेश्वर द्वारा उनकी प्रार्थनाएँ सुनी नहीं जाती हैं; क्या परमेश्वर उनके उत्तर नहीं देता है? और फिर, इन शब्दों और वाक्याँशों का उपयोग करने से क्या हर प्रार्थना सुन ली जाती है और उसका वाँछित उत्तर मिल जाता है? क्या इन शब्दों और वाक्याँशों के उपयोग के बावजूद प्रार्थनाएँ अनुत्तरित नहीं रहती हैं? तो फिर बाइबल के शब्दों और वाक्याँशों को बाइबल के बाहर तात्पर्य के साथ, एक “मन्त्र” के समान उपयोग करने का क्या औचित्य अथवा उपयोगिता है?


    परमेश्वर पवित्र आत्मा सत्य का आत्मा है। वह कभी भी उस के साथ किसी भी रीति से संलग्न नहीं होगा जो बाइबल के अनुसार सही और सत्य नहीं है, चाहे वह असत्य बाइबल ही के किसी तथ्य पर आधारित क्यों न हो। इसलिए, उसकी सामर्थ्य कभी भी किसी भी भक्तिपूर्ण प्रतीत होने वाली किन्तु मनगढ़ंत बात के साथ कार्य नहीं करेगी। पवित्र आत्मा का बाइबल से बाहर रीति से दुरुपयोग करने का प्रयास, परमेश्वर की आशीषों का अयोग्य भण्डारी होना है।


    अगले लेख से हम यूहन्ना 14:17 के दूसरी वाक्याँश, अर्थात, “सँसार उसे न तो ग्रहण कर सकता है, न देख सकता है, और न जान सकता है।”


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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English Translation

Holy Spirit – The Spirit of Truth – 6

 

    Every Born-Again Christian Believer is a steward of his God given provisions, given to him for his Christian life and Ministry. Therefore, the Believer is to be a worthy steward of God the Holy Spirit, who is given to him by God at the moment of his salvation, and has to learn to utilize His help for his life and ministry. In learning about this stewardship, presently we are considering the first phrase from John 14:17, that the Holy Spirit is the Spirit of Truth; and therefore, cannot in any manner be associated with anything that is not a Biblical truth. Since the Holy Spirit has already given to us in the Bible everything we need for life and godliness (2 Peter 1:3), therefore He no longer gives any fresh or new teachings and revelations to anyone; He only reminds, helps, and guides in utilizing what has been given in the Bible (John 16:13-15).


    We have seen in the last article that to deceive and mislead the people, Satan turns himself into an angel of light, and his ministers also present themselves as apostles of the Lord and ministers of righteousness (2 Corinthians 11:13-15). Another very important related fact is that there is no one, not even the committed people of God who do not make mistakes (James 3:2; 1 John 1:8), and we have seen some examples of this in the last article. Therefore, it is imperative for the Christian Believers to not assume anything, no matter who it is who is giving the teaching, or how impressive, logical, interesting, and attractive it may seem; but to always cross-check and verify every teaching from God’s Word, and only then accept them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21).

    One common error committed by God’s people, usually out of reverence and godliness, is to use Biblical facts and phrases, in ways and to say things that have not been given in the Bible. Simply using a Biblical phrase or fact, in any manner, according to one’s own fancy, does not make it Biblically true. Remember, in the temptations of the Lord Jesus, given in Matthew 4:1-11 and Luke 4:1-13, the devil misused and misquoted God's Word in a manner that was neither intended, nor was similarly used or applied in God's Word, and the Lord proved him wrong using God’s Word. Similarly, Matthew 7:21-23 is another example of misusing Lord's name, but not getting any credit for it. Doing this with God's Word, this misuse, neither made the assumptions the truth, nor gave any one any benefit; rather caused grave harm.

    But people often, though reverentially, piously, and with good intentions, misuse Biblical terms and facts in many phrases and statements in a manner that is not given in the Bible about them. They do this to try and please God, to seemingly make prayers more effective, and make sure that they are fulfilled the way they are being asked for. Some commonly misused terms and phrases are the blood of the Lord Jesus, the Cross of Calvary or the Cross of Christ, binding Satan, opening blessings upon others, taking for granted that their prayers have been answered by God in just the manner they have asked them for them, etc. They use these, their contrived statements, like a "mantra" trying to compel God to do what they ask Him to do. These Bible based, but unbiblically used phrases and statements are like what Job's friends were doing, speaking in favour of God but unlike what the truth actually was (Job 42:7), which angered God instead of pleasing Him. God cannot be bound and coerced by man-made words and phrases, even if they have been taken from His Word, but are being used inappropriately. Nor does any child of God need to repeatedly identify himself to God and state the basis of his approaching God, every time he comes to Him for prayer or worship, since God already knows those who are His, and His people are to stop doing what is wrong (2 Timothy 2:19).

    In His Sermon on the Mount, the Lord Jesus gave His disciples a simple, straightforward pattern of prayer, showing how to approach God and begin their prayers, what the contents of their prayers should be about, and then how to close the prayer (Matthew 6:7-13); and the Lord emphasized not to be like the heathens, using vain repetitions. This Lord’s model of prayer does not contain any of the phrases and words that people keep repeating time and again in their prayers or worship to God; and some are also habituated to vainly repeating a few words and phrases in every sentence of their prayer; they should pay particular attention to Ecclesiastes 5:2.

    Think it over, do any of the prayers, or any worship, given in God’s Word, ever contains any of these words and phrases that some people are so committed to repeating unnecessarily? Moreover, consider the fact that the prayers of those who do not use these phrases are also heard and answered by God, while many prayers of those habituated to use these vain unBiblical phrases go unanswered. So, what is the rational or necessity of using these Biblical words and phrases in an unBiblical manner, like a "mantra" to get things done from God?

    God the Holy Spirit is the Spirit of Truth. He will never be associated with anything that is not the truth according to the Bible, even though that untruth may be based on a Biblical fact. Therefore, His power will never be available or applicable to such seemingly pious but presumptive and misguided phrases and words. To try to misuse the Holy Spirit in any unBiblical way, is to be poor Stewards of God's blessings.

    From the next article we will start considering the second phrase of John 14:17, i.e., ‘World cannot receive Him, see Him, or know Him.’

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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