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सोमवार, 15 जनवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 141 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 17

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कलीसिया का निर्माण – 8 – प्रभु यीशु मसीह पर – 1

 

बाइबल अध्ययन के इन लेखों के द्वारा हम प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी के उस हर एक बात का भण्डारी होने के बारे में सीख रहे हैं, जो परमेश्वर ने उसे दी है। उसे इस ज़िम्मेदारी का योग्य रीति से निर्वाह करना है, क्योंकि अन्ततः, उसे परमेश्वर के सामने खड़े होकर परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई बातों का हिसाब देना होगा। वर्तमान में हम मसीही विश्वासी के परमेश्वर की कलीसिया का, जिसका एक अंग परमेश्वर ने उसे बनाया है, तथा परमेश्वर की अन्य सन्तानों के साथ सहभागिता रखने का भण्डारी होने के बारे में सीख रहे हैं। इस ज़िम्मेदारी का योग्य रीति से निर्वाह करने के लिए, विश्वासी को यह समझना है कि बाइबल के अनुसार वास्तव में परमेश्वर की कलीसिया क्या है; न कि उसे इसके बारे में मनुष्यों की धारणाओं और शिक्षाओं में फँसे पड़े रहना है। पिछले लेखों में हमने परमेश्वर के वचन बाइबल में सबसे पहली बार “कलीसिया” शब्द के प्रयोग के पद - “और मैं भी तुझ से कहता हूं, कि तू पतरस है; और मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊंगा: और अधोलोक के फाटक उस पर प्रबल न होंगे” (मत्ती 16:18) के बाइबल पर आधारित विश्लेषण से कलीसिया से संबंधित कुछ अति महत्वपूर्ण बातों को देखा और समझा था।

    सबसे पहले हमने देखा था कि बाइबल के अनुसार, कलीसिया शब्द का अर्थ कोई विशिष्ट भौतिक भवन अथवा आराधना स्थल नहीं है, वरन ‘बुलाए गए’ या ‘एकत्रित किए गए’ लोगों का समूह है। फिर हमने कुछ विस्तार से देखा और समझा था कि यह पद एक बहुत आम किन्तु बिलकुल गलत शैतानी धारणा, कि प्रभु ने यहाँ पर अपनी कलीसिया को पतरस पर बनाने के लिए कहा है का कदापि समर्थन नहीं करता है। हमने यह भी देखा है कि कलीसिया किसी मनुष्य पर नहीं, किन्तु प्रभु यीशु और उसके वचन – अर्थात, प्रभु परमेश्वर के द्वारा अपने नबियों और प्रेरितों में होकर दी गई शिक्षाओं की नींव पर स्थापित है। कलीसिया के वास्तविक अर्थ और पतरस के कलीसिया का आधार नहीं होने के स्पष्ट हो जाने के बाद, अब हम इस पद में प्रभु द्वारा कही गई और बातों को देखेंगे तथा समझेंगे, जिससे प्रभु द्वारा लोगों को मसीही विश्वास में बुलाने और उनके जीवनों से प्रभु के प्रयोजन को, उसके उद्देश्यों को हम भली-भांति समझ सकें। 

    मत्ती 16:18 में पतरस से संबंधित बात कहने के पश्चात, प्रभु यीशु का अगला वाक्य था, “...और मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊंगा...”। हम पहले देख चुके हैं कि “इस पत्थर” से प्रभु का अभिप्राय पतरस द्वारा मत्ती 16:16 में कही गई बात है कि “... तू जीवते परमेश्वर का पुत्र मसीह है”, जिसका अनुमोदन प्रभु ने पद 17 में किया, जिसके लिए पतरस को धन्य भी कहा, और यह भी कहा कि पतरस को यह प्रभु यीशु के विषय परमेश्वर द्वारा दिया गया स्वर्गीय दर्शन है, उसकी अपनी समझ अथवा बुद्धि की बात नहीं है। मत्ती 16:18 में प्रभु इसी दर्शन के अनुसार अपने द्वारा बुलाए हुए लोगों को एक समूह में एकत्रित करने, अपनी कलीसिया बनाने की बात करता है। मत्ती 16:18 की और बातों को आगे देखने से पहले यह बात समझना और ध्यान में बनाए रखना अनिवार्य है कि पतरस द्वारा पद 16 में कही गई बात, “... तू जीवते परमेश्वर का पुत्र मसीह है” क्यों परमेश्वर द्वारा पतरस को दिया गया एक स्वर्गीय दर्शन है, और क्यों यह बात इतनी महत्वपूर्ण है कि यही प्रभु द्वारा उसकी कलीसिया के बनाए जाने का आधार ठहरेगी।

    ध्यान कीजिए कि पतरस द्वारा मत्ती 16:16 में कही गई बात, “... तू जीवते परमेश्वर का पुत्र मसीह है” में प्रभु के लिए उसका वास्तविक नाम, संज्ञा “यीशु” प्रयोग नहीं किया गया है, जबकि “यीशु” ही उस का नाम था, जो स्वर्गदूत ने यूसुफ को बताया था (मत्ती 1:20-21)। इसलिए यहाँ पर पतरस द्वारा यह कहना कि  “... तू जीवते परमेश्वर का पुत्र यीशु है” अधिक उचित एवं सही होता। किन्तु न तो पतरस ने यह कहा, न ही प्रभु ने उसे सुधार के उस से यह कहलवाया, अपितु, उसकी इसी बात के लिए उसे सराहा और उसे धन्य कहा, तथा इसी बात को पिता परमेश्वर द्वारा उसे प्रदान किया गया स्वर्गीय दर्शन बताया; अर्थात, पतरस ने यह ईश्वरीय दर्शन के द्वारा कहा था। यह कलीसिया की सही समझ प्राप्त करने के लिए अनिवार्य और अत्यावश्यक तथ्य है जिसकी अवहेलना करने के द्वारा कलीसिया के विषय अनेकों गलफहमियाँ ईसाई या मसीही समाज में व्याप्त हो गई हैं, शैतान ने फैला दी हैं। हम देखते हैं कि पतरस द्वारा “यीशु” के स्थान पर “मसीह” प्रयोग करने का क्या अर्थ एवं महत्व है? 

    आम धारणा के विपरीत, “मसीह” प्रभु का नाम नहीं है; वरन उसके कार्य तथा उद्देश्य को बताने के लिए यह प्रभु को दी गई उपाधि या पहचान है। “मसीह”, या अंग्रेजी का “Christ” शब्द मूल यूनानी भाषा के “Christos” शब्द से हैं; और “Christos” शब्द का शब्दार्थ होता है किसी विशेष कार्य के लिए अभिषिक्त या मस्सा किया हुआ, या अंग्रेजी में “the Anointed one”; और हिन्दी के “मस्सा किया हुआ” से ही “मसीह” शब्द आया है। अर्थात जब पतरस ने प्रभु के प्रश्न के उत्तर में कहा कि “... तू जीवते परमेश्वर का पुत्र मसीह है”, तो वास्तव में पिता परमेश्वर ने पतरस से प्रभु यीशु के लिए कहलवाया था कि “तू ही वह परमेश्वर का पुत्र है जो अभिषिक्त या मस्सा किया हुआ है” - पतरस पर पिता परमेश्वर द्वारा प्रभु यीशु के परमेश्वर का पुत्र और जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता होने का दर्शन प्रकट किया गया, और उसने इस दर्शन को अपने शब्दों में बोल दिया। और जब प्रभु यीशु ने पतरस द्वारा कहे गए इस वाक्य को वह “पत्थर”, अर्थात वह ‘पेत्रा’, या वह “स्थिर, दृढ़, और अडिग चट्टान” कहा जिस पर वह अपनी कलीसिया, या अपने बुलाए और एकत्रित किए हुए लोगों के समूह को स्थापित करने जा रहा था, तो प्रभु के कहने का अभिप्राय था कि “जो भी इस विश्वास के साथ उसके पास आएगा कि केवल वही परमेश्वर का पुत्र और पिता परमेश्वर की ओर से ठहराया हुआ, अभिषिक्त किया हुआ जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता है, वही और केवल वही उसके एकत्रित किए हुओं में सम्मिलित होगा, उनके लोगों का एक भाग होगा”। प्रभु की कलीसिया का सदस्य होने के लिए इस वाक्य के महत्व पर ध्यान कीजिए, उसे अपने मन में गहराई से उतर लेने दीजिए; उस को समझिए, और आज “कलीसिया” या “चर्च” से संबंधित कई गलत धारणाओं की सच्चाई प्रकट हो जाएगी। हम अगले लेख में इसे और आगे देखेंगे तथा समझेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Building the Church – 8 – On The Lord Jesus Christ – 1


Through these Bible study articles, we are learning about every Born-Again Christian Believer being a steward of whatever God has given him. He has to carry out this responsibility worthily, since eventually he will stand before God to give an account of what God had placed in his hands. Presently, we are learning about the Christian Believer being a steward of the Church of God of which God has made him a member and of fellowshipping with other of God’s children, the other Christian Believers. To worthily fulfil this responsibility, the Believer has to understand about what, Biblically speaking, the Church of God actually is, instead of remaining bogged down by man-made concepts and teachings. In the preceding articles we have seen through Matthew 16:18, “And I also say to you that you are Peter, and on this rock I will build My church, and the gates of Hades shall not prevail against it.” The word Church has been used for the very first time in the Bible in this verse.

    We have seen some important Biblical facts about the Church. First, we had seen that according to the Bible, the word Church does not stand for any building, place of worship, or an organization. Rather it means a group of ‘called out people.’ We then saw in some detail that this verse does not at all support or imply a very commonly held misunderstanding that the Lord, here, was talking about building His Church on Peter. We also saw that the Church is founded not on any man, but on the Lord Jesus and His Word – i.e., the teachings given by the Lord God through His apostles and prophets. Having understood the actual meaning of the word “Church” and why the Church is not built on Peter, we will now look at and understand the other things said by the Lord in this verse bout building His Church. Through this understanding we can clearly understand the calling of the people by Lord Jesus into Christian Faith, His purpose for their lives, and what He is accomplishing through them.

    In Matthew 16:18, after saying the part related to Peter, the next thing the Lord Jesus said was “...on this rock I will build My church...” We have already seen that the words “this rock” are meant for what Peter had stated in Matthew 16:16 that “...You are the Christ, the Son of the living God” which the Lord not only affirmed in verse 17, but also appreciated Peter and commended him for saying this, and said that his saying so was a heavenly revelation to him God the Father. In Matthew 16:18, the Lord Jesus is talking about gathering His called-out ones according to this heavenly revelation together, to form His Church. Before looking at the other things said in Matthew 16:18, it is necessary to understand and bear in mind why Peter’s statement in verse 16, “...You are the Christ, the Son of the living God”, is a heavenly revelation, and why this statement is so important that it would be the basis of the Lord building His Church.

    Take note that in when Peter in Matthew 16:16 said that “...You are the Christ, the Son of the living God,” he did not use the proper noun, the actual name of the Lord, “Jesus,” which was the name of the Lord, and which the angel had told his earthly father Joseph, would be his name (Matthew 1:20-21). Therefore, it would have been more appropriate and specific for Peter to have said “...You are Jesus, the Son of the living God.” But not only did Peter not say this, the Lord also did not correct him and had him say it. Rather, the Lord appreciated and commended Peter for what he said and called his statement a heavenly revelation given to Him by God; i.e., Peter said this under divine inspiration. This is a very basic and important fact that is very necessary to learn and understand, to have a proper understanding of the Church. Because of neglecting to pay attention to it, because of ignoring it, many wrong doctrines and false teachings related to the Church have become rampant in Christendom, started and spread by Satan to cause harm to the Church. Let us see what is the meaning and importance of the word “Christ” used by Peter, instead of “Jesus”?

    Contrary to the common belief and understanding, “Christ” is not the name of the Lord Jesus; it is a title given to Him to denote His work and purpose. The word “Christ” comes from the Greek word “Christos” used in the original language, and its literal meaning is ‘one who is anointed to carry out a specific work,’ which in English can also be stated as ‘the Anointed One.’ So, when Peter, in response to the Lord’s question, said to Him “...You are the Christ, the Son of the living God,” what God the Father through the heavenly revelation had made him say was “you are the Anointed Son of God” - God the Father had revealed to Peter that the Lord Jesus was the Son of God, the Anointed one and only savior and redeemer of mankind, which Peter then spoke out in those words. Then, the Lord Jesus said for the statement Peter had made that it, i.e., the revelation received by Peter from God, was the “petra” i.e., the firm, unshakeable, established “rock” on which He will be building His Church, will be establishing the group of His called-out ones. The implication of what the Lord said regarding Peter’s statement can be surmised as follows: “whoever comes to Him with the faith that He, the Lord Jesus, is the Son of God and the only one anointed by God to be the one and only savior and redeemer, only that person will be included amongst His called-out ones, entitled to be one of His people.” Ponder over the importance of this statement about being a member of the Lord’s Church, and let it sink in; understand it, and the actual truth about many of the wrong concepts and notions about the “Church” or “Assembly” prevalent today will be exposed and become clear. In the next article we will consider and understand this further.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 
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