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शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 138 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 14

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कलीसिया का निर्माण – 5 – पतरस पर? – 5

 

परमेश्वर के प्रावधानों का योग्य भण्डारी होने के लिए मसीही विश्वासियों को उन प्रावधानों के बारे में सीखना भी चाहिए। क्योंकि परमेश्वर ने प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को अपनी कलीसिया का एक अंग बनाया है और उसे अपने अन्य सन्तानों की संगति में रखा है, इसलिए हम परमेश्वर के वचन से प्रभु की कलीसिया और उसकी सन्तानों के साथ सहभागिता रखने के बारे में सीख रहे हैं। वर्तमान में हम प्रभु के कथन कि अपनी कलीसिया को वह स्वयं बनाएगा (मत्ती 16:18), न कि कोई मनुष्य अथवा संस्था, को देख रहे हैं। प्रभु द्वारा अपनी कलीसिया बनाने के साथ जुड़ी हुए एक प्रचलित किन्तु गलत धारणा है कि प्रभु ने अपनी कलीसिया पतरस पर बनाई है। पिछले लेखों में हमने प्रभु यीशु मत्ती 16:18 में प्रयुक्त शब्दों के विश्लेषण द्वारा देखा था कि उसने कलीसिया को पतरस पर बनाने के लिए नहीं कहा था। फिर हमने देखा था कि पवित्र शास्त्र कहीं पर भी, कभी भी, किसी भी रीति से इस दावे का समर्थन नहीं करता है, कोई संकेत भी नहीं करता है कि कलीसिया पतरस पर बनाई गई है। आज से हम तीसरी बात, “क्या पतरस इस आदर और आधार के योग्य था?” को देखना आरम्भ करेंगे।

प्रभु यीशु मसीह ने अपने पहाड़ी उपदेश (मत्ती 5-7 अध्याय) के अंत की ओर आ कर एक दृष्टांत दिया था - दो घर बनाने वालों का (मत्ती 7:24-27)। घर बनाने वाला एक व्यक्ति मूर्ख ठहरा क्योंकि उसने स्थिर और दृढ़ नींव पर घर नहीं बनाया, और वह घर परिस्थितियों का सामना नहीं कर सका, शीघ्र ही गिर गया। दूसरा घर बनाने वाला बुद्धिमान ठहरा, क्योंकि उसने घर की नींव चट्टान (यूनानी “पेत्रा” न कि “पेत्रोस”) पर डाली थी, इसलिए उसका घर स्थिर बना रहा, सभी परिस्थितियों को झेल सका। फिर निष्कर्ष में प्रभु ने कहा है कि वह दृढ़ चट्टान जिस पर स्थिर और अडिग घर या जीवन स्थापित होता है, उसकी शिक्षाएं हैं। जो प्रभु की बातें मानता है, वह चट्टान पर बने घर के समान स्थिर और दृढ़ बना रहेगा; किन्तु जो प्रभु की बातों को सुनता तो है, परंतु उनका पालन नहीं करता है वह उस मूर्ख मनुष्य के समान होगा जिसका घर या जीवन, विपरीत परिस्थितियों को झेल नहीं सकेगा, स्थिर बना नहीं रहेगा। अपनी सेवकाई के आरंभ में ही यह शिक्षा देने के बाद, क्या यह संभव है कि प्रभु अपनी ही दी हुई शिक्षा से पलट कर, अपनी विश्व-व्यापी कलीसिया को किसी अस्थिर, डांवांडोल रहने वाले मनुष्य पर स्थापित करेगा?

आज से हम वचन में दी गई बातों के आधार पर देखेंगे कि क्या पतरस कलीसिया या मण्डली के लिए अत्यावश्यक यह स्थिर, दृढ़, और अडिग आधार हो सकता था? क्या विभिन्न परिस्थितियों और अवसरों पर, वचन में दिया गया पतरस का व्यवहार, इस बात की पुष्टि करता है कि वह डांवांडोल नहीं, वरन प्रभु की शिक्षाओं और निर्देशों पर सदा स्थिर और अडिग रहने वाला व्यक्ति था? इस विश्लेषण के लिए हम प्रभु के पुनरुत्थान से पहले की बातों को नहीं देखेंगे; क्योंकि यह प्रकट है कि प्रभु के मारे जाने, गाड़े जाने, और मृतकों में से जी उठने और शिष्यों को दर्शन देने के बाद, प्रभु के उनसे मिलते रहने और उन्हें सेवकाई के लिए तैयार करने के द्वारा शिष्यों तथा पतरस में बहुत परिवर्तन आया था। किन्तु इस परिवर्तन के बावजूद, क्या पतरस प्रभु में अपने विश्वास और मण्डली में अपने मसीही व्यवहार में ऐसा स्थिर, दृढ़, और स्थापित हो गया था कि उसे कलीसिया का आधार बनाया जा सके?

 साथ ही ध्यान करें, मत्ती 28:18-20 में - जो स्वर्गारोहण से पहले प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों को दी गई उनकी सेवकाई के विषय महान आज्ञा है, प्रभु ने शिष्यों से जाकर लोगों को उसका शिष्य बनाने, और जो शिष्य बन जाएं उन्हें उसकी सिखाई हुई बातों को सिखाने का निर्देश दिया है। वहाँ प्रभु ने यह नहीं कहा कि जैसा पतरस बताए या सिखाए, वही करना, वैसा ही सिखाना। एक बार फिर प्रभु ने स्वयं इस बात को दिखा दिया कि उसकी कलीसिया पतरस की बातों पर नहीं, प्रभु की शिक्षाओं पर स्थापित होगी; जैसा हम पिछले लेख में विस्तार से देख चुके हैं।

आने वाले लेखों में हम बाइबल में लिखी गई पतरस की कुछ दुर्बलताओं को देखेंगे, जो यह प्रकट करती हैं कि क्यों पतरस कभी वह स्थिर आधार नहीं हो सकता था जिसे प्रभु की कलीसिया की नींव होना था।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Building the Church – 5 – On Peter? – 5

 

    To be a worthy steward of God’s provisions, the Christian Believers must learn about them. Since God has made every Born-Again Christan Believer a member of His Church and has placed him in fellowship with other of His children, therefore we are learning from God’s Word about the Church of the Lord and about fellowshipping with His children. Presently, we are considering the Lord Jesus’s statement that He, not any man or organization, will build His Church (Matthew 16:18). One common misconception associated with the Lord’s building of His Church is that He built it on Peter. In the previous articles we have analyzed the words used by the Lord in Matthew 16:18 and seen that in this verse He has not said that He will build His Church on Peter. We then saw that the Scriptures at no point, not in any manner, ever support or indicate that the Church was built on Peter. From today we will look at the third point “Was Peter even worthy of this honor, of being considered to be the foundation for the Church?”

    At the end of His Sermon on the Mount (Matthew chapters 5-7), the Lord Jesus spoke a parable of two house-builders (Matthew 7:24-27). One house-builder turned out to be foolish because he did not build his house on a firm and unshakeable foundation, and his house could not remain standing in adverse circumstances, fell down quite soon. The other house-builder was called wise because he laid the foundation of his house on a rock (Greek “petra” not “petros”), so his house could withstand all adverse circumstances and stood firm. In conclusion, the Lord said that firm, unshakeable rock, on which a steady and firm life is built are His teachings. Whoever obeys the teachings and Word of the Lord, will remain steadfast like the house built on a rock; but the one who does not obey the Lord will be like the foolish house-builder whose house i.e., life could not withstand the circumstances and collapsed. The Lord had given these teachings at the beginning of His earthly ministry; is it possible that now towards the end of the ministry He will go against His own teachings and speak of establishing His world-wide Church on a shaky, vacillating man?

    From today we will begin to see on the basis of God’s Word, could Peter have been the firm and unshakeable foundation, that was required to build the Assembly or the Church of the Lord Jesus? Does Peter’s behavior under various circumstances and in various situations show us that he was not a shaky, vacillating person, but someone who was always firm and undeterred in following the teachings and instructions of the Lord? In analyzing this, we will not look at Peter’s life and behavior before the Lord’s resurrection; because it is quite evident that after seeing the resurrected Lord, being with Him for forty days, learning from Him during that time, and being made ready by the Lord for their coming ministry, a lot of changes came in the lives and attitudes of the disciples, including Peter. But despite these changes, did Peter really become the firm unshakeable person in his faith and obedience to the Lord, that he could be considered as the firm and unshakeable foundation upon which the Church could safely be built?

    Also note that in Matthew 28:18-20, in His Great Commission to His disciples about their ministry, given just before His ascension, the Lord has instructed His disciples to go and make other disciples; and to those who become His disciples, give them His teachings. The Lord did not say here to do and teach as Peter would instruct and tell them to do. Once more the Lord has shown that His Church will not be built on Peter’s teachings but on the teachings of the Lord Jesus, as we have seen in detail in the previous article.

    We will see in the subsequent articles some short-comings recorded in the Bible about Peter, that show he could never provide the firm foundation required for the Lord’s church.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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