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मंगलवार, 27 फ़रवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 182 – Stewards of The Gifts of the Holy Spirit / पवित्र आत्मा के वरदानों के भण्डारी – 13

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पवित्र आत्मा के वरदानों का उपयोग – 3

 

    रोमियों 12 अध्याय मसीही विश्वासियों को उस तैयारी के बारे में सिखाता है जो उन्हें उनकी मसीही सेवकाई और उसके अनुसार उन्हें प्रदान किए गए आत्मिक वरदानों के उचित उपयोग के लिए करनी है, जिससे वे पवित्र आत्मा के वरदानों के योग्य भण्डारी हो सकें। इस अध्याय के पहले तीन पदों से हम देख चुके हैं कि इन दायित्वों के खराई से निर्वाह के लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी में कुछ बातों का होना अनिवार्य है, तब ही वह परमेश्वर द्वारा उसे दी गई सेवकाई का भली-भांति निर्वाह करने पाएगा। पहले तीन पदों की ये अनिवार्य बातें हैं वेदी पर चढ़ाए गए बलिदान के समान परमेश्वर को एक पूर्णतः समर्पित जीवन, जो मनुष्यों तथा मनुष्यों के द्वारा गढ़े गए रीति-रिवाजों, प्रथाओं, परंपराओं एवं नियमों के पालन के लिए नहीं, वरन परमेश्वर और उसके वचन के आदर और आज्ञाकारिता में जिया जाता है। ऐसे समर्पित और आज्ञाकारी जीवन की एक अन्य पहचान है कि पापों की क्षमा और उद्धार पाने के द्वारा उस व्यक्ति के अन्दर आया हुआ परिवर्तन उसके बदले हुए व्यवहार, चाल-चलन, जीवन के उद्देश्यों, और उस व्यक्ति की प्रभु और उसके वचन के प्रति प्राथमिकताओं, आदि में दिखता है, और उसके जीवन में हुए उद्धार के कार्य को प्रमाणित भी करता है। इस प्रकार का समर्पित और प्रतिबद्ध विश्वासी, स्वयं का आँकलन भी करता रहता है, यह सुनिश्चित रखने के लिए कि वह किसी शैतानी युक्ति में नहीं फँस गया है, और प्रभु के वचन तथा मार्गों से भटकाया नहीं गया है। सच्चा मसीही विश्वासी और सेवक अपने इन गुणों के द्वारा पहचाना जाता है। इसलिए जो मसीही सेवकाई में संलग्न हैं, या होना चाहते हैं, उन्हें अपने आप को इन गुणों के लिए जाँचना चाहिए, अपना स्व-आँकलन करना चाहिए, और जहाँ जो सुधार आवश्यक हैं उन बातों को परमेश्वर के समक्ष रख कर, परमेश्वर द्वारा बताए गए आवश्यक सुधारों को अपने जीवन में लागू भी करना चाहिए। 

    रोमियों के इस 12 अध्याय में मसीही जीवन और सेवकाई से संबंधित अगली शिक्षा हम 4 और 5 पद में पाते हैं। ये पद वास्तविक, सच्चे, मसीही विश्वासियों को उन्हें उद्धार और पाप-क्षमा प्रदान किए जाने के साथ जुड़े एक आधारभूत तथ्य को स्मरण करवाता है – कि वे परमेश्वर की सन्तान भी हैं। प्रभु यीशु पर विश्वास लाने, उसे पूर्णतः समर्पित होकर उसे अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करने के द्वारा नया जन्म या उद्धार पाए हुए लोगों के विषय यूहन्ना 1:12-13 में लिखा है “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं।” अर्थात, वास्तविकता में उद्धार पाए हुए सभी मसीही विश्वासी, एक ही परिवार - परमेश्वर के परिवार, के सदस्य हैं। मसीही मण्डलियों में बहुत से ऐसे भी घुस आते हैं जो व्यवहार तो उद्धार पाने वालों के समान करते हैं, किन्तु वास्तव में उद्धार पाए हुए नहीं हैं, जैसे प्रेरितों 8:9-24 में शमौन टोन्हा करने वाले के विषय लिखा है (साथ ही प्रेरितों 20:29-30; 1 यूहन्ना 2:18-19 भी देखिए)। शैतान द्वारा मण्डलियों में लाए गए ऐसे लोग मसीही विश्वासियों और मसीही सेवकाई की बहुत हानि का, तथा समाज में प्रभु यीशु मसीह में पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार के प्रचार और प्रसार के गलत समझे जाने और विरोध होने का कारण ठहरते हैं। इसीलिए हमें उपरोक्त गुणों के अनुसार, तथा 1 यूहन्ना 2:3-6; 4:1-6, आदि के अनुसार लोगों को देख-परख कर, उनकी वास्तविकता को पहचान कर ही उन्हें मसीही मण्डलियों में कोई ज़िम्मेदारी अथवा स्तर प्रदान करना चाहिए। विशेषकर वचन की सेवकाई और मण्डली के संचालन आदि की ज़िम्मेदारियाँ देने से पहले, 2 कुरिन्थियों 11:13-15 को ध्यान में रखते हुए, कि शैतान भी अपने लोगों के द्वारा वचन की सही प्रतीत होनी वाली शिक्षाएँ दिलवा सकता है, लोगों को बारीकी से जाँच-परख लेना चाहिए, अन्यथा उनके द्वारा अनुचित व्यवहार, गलत रवैये, झूठी शिक्षाओं, और गढ़े हुए सिद्धांतों के बोए गए कड़वे बीज आगे चलकर बहुत बड़ी हानि का कारण ठहरेंगे।

    हम इस पर आगे अगले लेख में देखेंगे। यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Utilizing the Gifts of the Holy Spirit – 4

 

    Romans chapter 12 teaches the Christian Believers about the preparation required for their Christian Ministry and utilizing their Spiritual gifts, to be worthy stewards of the gifts of the Holy Spirit has given to them for their Christian living and ministry. We have seen from the first three verses of this chapter that for a worthy fulfilment of their ministry responsibilities, it is essential that every Christian Believer should have certain characteristics; only then will he be able to carry out his ministry properly and in a worthy manner. These essential characteristics from the first three verses are, a fully surrendered life to God just as an offering sacrificed on the altar of God. Such a life is not meant to be lived according to contrived, man-made customs, rites and rituals, traditions, rules and regulations, but solely in obedience to God and His Word. A life so committed, surrendered and obedient to God has another characteristic - the person who has received the forgiveness of sins and salvation, has had an inner change, manifests it through his changed life, behavior, purpose, and by according the first priority to the Lord and His Word; it is this that also affirms the work of salvation in his life. Such a committed Believer, also engages in self-evaluation, to keep ascertaining that he has not fallen for any satanic ploy and been beguiled away from the Lord’s Word and ways. A true and committed Christian Believer and minister is recognized by these characteristics. Therefore, anyone engaged, or desiring to be in Christian Ministry, should examine themselves for the presence of these characteristics, and placing their life before God, should carry out whatever corrections and modifications are necessary in their lives, as shown by God to them.

    In this chapter 12 from Romans, we see the next teaching related to Christian Life and Ministry, in verses 4 and 5. These verses remind a true and committed Christian Believer of a basic fact related to their receiving forgiveness of sins and salvation – that they are also the children of God. The Apostle John has written about those who have come to faith in the Lord Jesus, have fully surrendered their lives to Him, and accepted Him as their Saviour and Lord; they have also become the children of God, “But as many as received Him, to them He gave the right to become children of God, to those who believe in His name: who were born, not of blood, nor of the will of the flesh, nor of the will of man, but of God” (John 1:12-13). In other words, all truly Born-Again Christian Believers, are members of one single family - the family of God. Many people sneak into the Christian Assemblies and Churches and behave like those who have been saved, but actually they are not saved, as was Simon the sorcerer mentioned in Acts 8:29-24 (also see Acts 20:29-30; 1 John 2:18-19). Such people, brought into the assemblies and Churches by Satan, not only cause a great deal of harm in them, but also are a potent cause of people misunderstanding the gospel of forgiveness of sins and salvation through faith in the Lord Jesus, and of its opposition by the people of the world. Therefore, according to 1 John 2:3-6; 4:1-6 etc., we should carefully examine and evaluate people coming into the Church or Assembly, and only then give them a status or responsibility. This is very important especially for giving the responsibility of ministering God’s Word or the responsibility of managing the affairs of the local Church to anyone, since, as it says in 2 Corinthians 11:13-15, even Satan can have his people preach apparently correct seeming messages. But the harmful seeds of improper attitudes and behavior, wrong teachings, and false doctrines that they will sow will be a cause of severe harm in the days to come.

    We will carry on further on this in the next article. If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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