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सोमवार, 12 फ़रवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 167 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 49

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कलीसिया से बहिष्कृत करना – 5

 

    प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को, परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए प्रावधानों और विशेषाधिकारों के लिए अपने भण्डारी होने का, अन्ततः परमेश्वर को हिसाब देना होगा। उस कलीसिया और सहभागिता का, जिस में परमेश्वर ने उसे रखा है, भण्डारी होने के नाते विश्वासी को कलीसिया की बढ़ोतरी और संगी विश्वासियों की आत्मिक उन्नति होते रहने के लिए काम करते रहना है। यह होने के लिए कलीसिया और सहभागिता में अनुशासन बनाए रखना बहुत आवश्यक है; और अनुशासन बनाए रखने के लिए कभी-कभी कुछ कठोर कदम भी उठाने पड़ते हैं। वर्तमान में हम मत्ती 5:23-24 और मत्ती 18:15-17 से एक ढीठ और अपश्चातापी विश्वासी के पृथक या बहिष्कृत किए जाने के बारे में देख रहे हैं, जो अन्य विश्वासियों या कलीसिया का नेतृत्व करने वालों के साथ मतभेदों और कलह में बना रहता है, और अपने आप को सुधारने के लिए किसी की भी नहीं सुनता है। पिछले लेख में हमने देखा था कि ऐसे विश्वासी के लिए प्रभु द्वारा कही गई बात “...तू उसे अन्य जाति और महसूल लेने वाले के ऐसा जान” का क्या अर्थ है और हमने यह भी देखा था कि किसी भी मनुष्य को, वह चाहे कलीसिया अथवा संगति में कोई भी हो, यह निर्णय करने का अधिकार नहीं है। यह केवल प्रभु ही का अधिकार और निर्णय है और हमें केवल उसमें बने रहना है, उसे कार्यान्वित करना है। हमने देखा है कि प्रभु के इस कथन का उसके सन्दर्भ और उस समय के यहूदी समाज के व्यवहार के अनुसार विश्लेषण करने से यह कथन गलती करने वाले विश्वासी से सभी सम्बन्ध और सम्पर्क पूर्णतः काट लेने और उसे कलीसिया से बाहर निकाल देने के लिए नहीं कह रहा है, बल्कि उसके साथ सामाजिक व्यवहार और मेलजोल को न्यूनतम स्तर पर ले आने के द्वारा उसे अपमानित, लज्जित, और पृथक अनुभव करवाने के लिए कह रहा है जिससे कि वह अपनी गलतियों के लिए पश्चाताप कर ले। आज हम इस बात को थोड़ा और आगे, और इससे सम्बन्धित कुछ अन्य बातें देखेंगे।

    जब बात यहाँ तक आ जाए कि ऐसे व्यक्ति को पृथक करने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं बचे, तो उसके लिए परमेश्वर का वचन यह भी दिखाता है कि यह कार्यवाही संयम के साथ की जानी चाहिए। इस कार्यवाही का उद्देश्य व्यक्ति को हमेशा के लिए, बिल्कुल अलग कर देना नहीं है, वरन उसे गलती के एहसास और पश्चाताप करने तक लाना है। उद्देश्य हमेशा ही गलती करने वाले को क्षमा और मेल-मिलाप के द्वारा कलीसिया में वापस लाना होना चाहिए, जैसा कि परमेश्वर का स्वभाव है, और जैसा हमने मत्ती 5:23-24 को देखते समय भी देखा था। यह केवल इस अनुग्रह के समय में नए नियम की बात नहीं है, किन्तु पुराने नियम में, व्यवस्था के युग में भी इसे देखा जाता था; कृपया 2 शमूएल 14:1-24 देखिए। यहाँ पर हम अबशालोम तथा दाऊद की इस घटना में देखते हैं कि तको नगर की एक बुद्धिमान स्त्री ने राजा दाऊद से परिस्थिति के सन्दर्भ में परमेश्वर के एक महत्वपूर्ण गुण के बारे में बात की, “हम को तो मरना ही है, और भूमि पर गिरे हुए जल के समान ठहरेंगे, जो फिर उठाया नहीं जाता; तौभी परमेश्वर प्राण नहीं लेता, वरन ऐसी युक्ति करता है कि निकाला हुआ उसके पास से निकाला हुआ न रहे” (2 शमूएल 14:14)। एक बार फिर से हम देखते हैं कि परमेश्वर, जिसके विरुद्ध गलती की गई, जिसे दुःख उठाने पड़े हैं, वही पहल करके “ऐसी युक्ति करता है कि निकाला हुआ उसके पास से निकाला हुआ न रहे”- परमेश्वर ने निकाला, लेकिन वही उस गलती करने वाले के द्वारा मेल-मिलाप कर लेना सम्भव बनाने के लिए, आगे बढ़कर युक्ति करता है।

    और पौलुस ने भी पवित्र आत्मा की अगुवाई में यही बात कही है “यदि कोई हमारी इस पत्री की बात को न माने, तो उस पर दृष्टि रखो; और उस की संगति न करो, जिस से वह लज्जित हो; तौभी उसे बैरी मत समझो पर भाई जानकर चिताओ” (2 थिस्सलुनीकियों 3:14-15)। परमेश्वर ने अपने वचन में बड़ी स्पष्ट रीति से यह लिखवा दिया है कि अनाज्ञाकारी विश्वासी के साथ संगति नहीं रखने का उद्देश्य उसे लज्जित करना है – और यही बात हम ऊपर तथा पिछले लेखों में देखते आ रहे हैं। इसके साथ ही इस अनाज्ञाकारी व्यक्ति के लिए परमेश्वर के अन्य सम्बन्धित एवं महत्वपूर्ण, तथा स्पष्ट निर्देश यह भी हैं कि उसके साथ बैरी के समान नहीं, भाई के समान व्यवहार करना है। यह एक बार फिर से उस बात की पुष्टि करता है जिसे हम पिछले लेखों में देखते आए हैं कि वास्तव में नया-जन्म पाया हुआ कोई भी विश्वासी, अर्थात परमेश्वर की कलीसिया, उसके परिवार का कोई भी सदस्य, प्रभु यीशु की देह और दुल्हन का अंग, कभी भी कलीसिया और संगति से पूर्णतः काट-कर निकाला और बाहर नहीं किया जा सकता है। परमेश्वर यह नहीं करता है और किसी मनुष्य को, चाहे कलीसिया और संगति में उसका ओहदा और प्रतिष्ठा कुछ भी हो, ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है, कोई अनुमति नहीं है। बल्कि, एक उपयुक्त समय के बाद, दूसरे की गलती के कारण दुःख उठाने वाले कलीसिया के लोगों को ही पहल करनी चाहिए कि इस व्यक्ति को वापस संगति में लाया जाए, और कलीसिया तथा सहभागिता में बहाल कर दिया जाए।

    हम इस बात को एक बार फिर पौलुस के ही उदाहरण से, 2 कुरिन्थियों 2:5-10 से देखते हैं। इस खण्ड से ऐसा प्रतीत होता है कि कुरिन्थुस की मण्डली में किसी ने पौलुस के विरुद्ध कुछ कहा और किया था, और उसकी इस बात ने न केवल पौलुस को वरन कलीसिया के बहुतेरे लोगों को भी दुखी किया था, और मण्डली के लोगों ने स्वतः ही निर्णय कर लिया कि उस व्यक्ति को संगति से बाहर कर दिया जाए। लेख में न तो ऐसा कुछ लिखा है, और न ही कोई संकेत है कि पौलुस ने उस व्यक्ति के उस के प्रति अपमानजनक होने की बात को कलीसिया के सामने उठाया था, और न ही यह कि पौलुस ने उन्हें वह करने के लिए कहा था जो उन्होंने किया। ऐसा लगता है कि इस बात के लिए उन्होंने अपने आप ही निर्णय ले लिया था। ध्यान कीजिए कि यह उस समय की बात है जब नया नियम लिखा नहीं गया था, और लोगों के अंदर अपनी ही समझ के अनुसार सही लगने वाली बात कर डालने की प्रवृत्ति रहती थी। अब, जब उनके किए का समाचार पौलुस तक पहुँचा, तो पौलुस ने 2 शमूएल 14:14 के समान प्रतिक्रिया दी, वह उस व्यक्ति को वापस संगति में बहाल करने की युक्ति निकालता है। पौलुस कुरिन्थुस की कलीसिया से कहता है कि उस ने तो उस व्यक्ति को क्षमा कर दिया है, अब वे लोग भी उसे क्षमा कर दें और उसे शान्ति दें, तथा संगति में वापस बहाल कर दें। पौलुस उन्हें ऐसा करने की आज्ञा नहीं देता है, वह केवल कुरिन्थुस की मण्डली को ऐसा करने का सुझाव देता है, और निर्णय उन्हीं पर छोड़ देता है। इस घटना से सीखने वाली एक बहुत महत्वपूर्ण बात है कि पृथक और बहिष्कृत करने के समान, बहाल किया जाना भी मण्डली के, कलीसिया के सभी लोगों की इच्छा और जानकारी में ही होना है, न कि किसी की व्यक्तिगत राय अथवा आज्ञा के द्वारा। यद्यपि पौलुस व्यक्तिगत स्तर पर उस व्यक्ति के विरुद्ध कोई बैर या द्वेष नहीं रखता है, उसे क्षमा कर चुका है, लेकिन फिर भी, अपने ओहदे और प्रतिष्ठा के बावजूद, वह गलती करने वाले को क्षमा करने और बहाल  करने में कलीसिया के भी सम्मिलित होने को देखना चाहता है।

    सारांश यह है कि विश्वासियों के मध्य व्यक्तिगत मतभेदों और कलह के लिए, चाहे ये मतभेद और कलह कलीसिया में नेतृत्व करने वाले लोगों के साथ ही क्यों न हो, परमेश्वर का उसके वचन में दिया गया निर्देश यही है कि जिस व्यक्ति को दुःख पहुँचा है, उसे ही समस्या को सुलझाने के लिए पहल करनी है, और क्षमा तथा मेल-मिलाप की आत्मा में दुःख देने वाले से मिलकर समस्या का निवारण करना है। यदि बात व्यक्तिगत स्तर पर न सुलझे तो एक या दो और लोगों के साथ मिलकर सुलझाने का प्रयास करना चाहिए; और यदि वे भी असफल रहें, तो बात को कलीसिया या मण्डली की सभा के सम्मुख लाना चाहिए, और यदि गलती करने वाला विश्वासी कलीसिया की भी नहीं सुनता है, तब ही उसे समाज के साथ संपर्क और मेल-जोल रखने से पृथक करना चाहिए, ताकि वह अपने किए पर लज्जित हो और अपनी गलतियों के लिए पश्चाताप करे। लेकिन उसे कभी भी, किसी भी हाल में, कलीसिया और सहभागिता से काट कर अलग किया और बाहर निकाला हुआ, या, उसे बैरी नहीं समझना है। किसी भी मनुष्य को कलीसिया या सहभागिता से किसी को निकाल देने का कोई अधिकार अथवा अनुमति नहीं है; ऐसा केवल परमेश्वर द्वारा और उसकी दी हुई प्रक्रिया के अन्तर्गत ही होना है। साथ ही उद्देश्य हमेशा यही रहना है कि गलती करने वाले को वापस संगति में लाया जा सके, और जिस व्यक्ति को उस दूसरे की गलती के कारण दुःख झेलना पड़ा है, उसे ही क्षमा और मेल-मिलाप के आत्मा में होकर, पृथक किए गए व्यक्ति को कलीसिया में बहाल करने की युक्ति निकालनी चाहिए।

    अगले लेख में हम विश्वासियों के लिए परमेश्वर द्वारा दिए गए कुछ निर्देशों को देखेंगे, कि कब और किन कारणों से विश्वासियों को स्वयं को औरों से अलग कर लेना चाहिए।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Excommunication From the Church – 5

 

   Every Born-Again Christian Believer, being a steward of God for the provisions and privileges God has given him, will eventually also have to give an account to God for his stewardship, and will be rewarded by the Lord accordingly. As steward of the Church and fellowship in which God has placed him, the Believer has to ensure the growth of the Church and spiritual progress of the other Believers in the fellowship. For these to happen, the maintaining of discipline in the Church and fellowship is very important; and while maintaining discipline some harsh measures may also be required at times. Presently, from, Matthew 5:23-24 and Matthew 18:15-17 we have been considering the exclusion and excommunication of a stubborn, unrelenting Believer persisting in maintaining his differences and conflicts with some other Believers or Church leaders, and refusing to listen to anyone for correcting himself. In the last article we have seen what the Lord Jesus meant when he said for such an errant Believer, “let him be to you like a heathen and a tax collector” and we also saw that no man, whoever he may be in the Church or fellowship, can decide doing this. It is the Lord’s decision, and we are to only abide by it, implement it. Analysing the Lord’s statement in its context and through the practices of the Jewish society of that time, we have seen that it does not mean to totally cut-off all contact and relationships with the errant Believer and cast him away from the Church, but minimizing socially mingling with him to make him feel humiliated, ashamed, and isolated, so that he may repent of his wrong doings. Today we will consider this a bit further, and see some other associated points about this.

   Once the situation has come to the point when there is no other alternative left, but to separate out such a person, God’s Word also shows that this separation should be moderated. The purpose of the exercise is not to totally cut-off the person and that too permanently, but to bring him to realization and repentance. Bringing the errant back into the Church should always be aimed for through forgiveness and reconciliation, as is the nature of God, and as we have seen earlier also when considering Matthew 5:23-24. This is not just in the New Testament, in this period of grace, but was also seen in the Old Testament, in the period of the Law; please see 2 Samuel 14:1-24. We see here, in the incidence of Absalom and David, how the wise woman from Tekoa talks to King David about a characteristic of God relevant to the situation at hand, “For we will surely die and become like water spilled on the ground, which cannot be gathered up again. Yet God does not take away a life; but He devises means, so that His banished ones are not expelled from Him” (2 Samuel 14:14). Once again, we see that God, the offended one, the one against whom the wrongs have been committed, and the one who is aggrieved party, “He devises means, so that His banished ones are not expelled from Him” – God banished, but God takes the initiative to devise means for the offender to be reconciled with Him.

    And Paul, under the Holy Spirit has also said the same in 2 Thessalonians 3:14-15 – “And if anyone does not obey our word in this epistle, note that person and do not keep company with him, that he may be ashamed. Yet do not count him as an enemy, but admonish him as a brother.” God has had it written very clearly in His Word that the purpose of not keeping company with a disobedient Believer is to bring him to shame – what we have been learning above and in the previous articles. Along with this, God’s related instructions for further behavior towards this disobedient person are also clear and important – treat and admonish him as a brother, not as an enemy. Once again emphasizing what we have been seeing in the previous articles that no truly Born-Again Believer, i.e., a member of God’s Church, His family, a part of the Body and Bride of Christ Jesus can ever be absolutely cut-off and cast-off from the Church and fellowship. God does not do it, and no man, despite his standing and reputation in the Church or fellowship, has any authority or permission to do it. Rather, after an appropriate period of time, there should be active efforts, initiated by the offended parties, by the Church, to bring this person back into fellowship and be restored in the Church and fellowship.

    We see this again from Paul’s example in 2 Corinthians 2:5-10. It seems, from this passage, that someone in the Corinthian Church had said or done something against Paul, and his actions had not only grieved Paul, but also a good number of people in that Church, and they on their own had decided to put him away from the fellowship. The text neither suggests that Paul had raised the matter of that man’s being offensive towards him in the Church, nor does it say that Paul asked them to do what they did. They, it seems, had acted on their own in this matter; remember that this was a time when the New Testament had not been written, and people were prone to do things according to their own understanding. Now, by the time the news of what has been done reaches Paul, he acts in the spirit of 2 Samuel 14:14, he devises a way to get the person restored back in fellowship. Paul tells the Church in Corinth that he has forgiven him and asks them all to also forgive and comfort that person, and restore him back to fellowship. Paul does not order them to do this, he only proposes it to the Church in Corinth, leaving the decision in their hands A very important thing to note from this incidence is that the like excommunication, the restoration too has to be through the Church congregation, done in the will of the Church, and not by an individual. Though Paul, at a personal level, is not holding any grudge against that person, has forgiven him, yet, despite his status and reputation, he still wants the Church to be involved in the forgiveness and restoration of that errant person.

    To summarize, in matters of personal differences and conflicts between the Believers, even if these differences are with the Church leaders, God has instructed in His Word that the offended person has to take the initiative and have the matter resolved in a spirit of forgiveness and reconciliation. If the matter is not resolved at the personal level, it should be tried through one or two others; and if even they fail, it should be brought to the notice of the Church congregation, and if the errant Believer refuses to listen to even the Church, only then is he to be separated from the general company and socializing of the community, to make him feel ashamed and repent of his wrongs. But at no point of time, is he to be considered totally and permanently cut-off and cast-away from the Church and fellowship, or an enemy. No man has the authority or permission to put anyone out of the Church and fellowship; it has to be done only through the process given by God. Moreover, the intention should still remain to bring the errant one back into fellowship, and the offended person, in the spirit of forgiveness and reconciliation, ought to devise means to have him restored back into fellowship in the Church.

    In the next article, we will see some instructions in God’s Word for Believer’s to withdraw themselves from certain persons, for some given reasons.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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