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शुक्रवार, 1 मार्च 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 185 – Stewards of The Gifts of the Holy Spirit / पवित्र आत्मा के वरदानों के भण्डारी – 16

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पवित्र आत्मा के वरदानों का उपयोग – 7

 

    क्योंकि प्रत्येक मसीही विश्वासी को परमेश्वर को हिसाब देना होगा कि उसने उसे परमेश्वर द्वारा सौंपे गए प्रावधानों और विशेषाधिकारों का उपयोग कैसे किया, जिन में उसके पवित्र आत्मा के वरदानों का उपयोग करना भी सम्मिलित है; इसीलिए, परमेश्वर द्वारा विश्वासियों को दिए गए सहायक, परमेश्वर पवित्र आत्मा ने, रोमियों 12 अध्याय में, इन वरदानों के उचित रीति से उपयोग करने और यह करने के लिए तैयारी करने के निर्देश भी दिए हैं। इस अध्याय के पहले पाँच पदों से हमने देखा है कि विश्वासी परमेश्वर के प्रति पूर्णतः समर्पित होकर तथा उसका और उसके वचन का पूर्णतः आज्ञाकारी होकर, और अपने आप का स्वयं-आँकलन करने वाला बनकर ही वरदानों के उचित उपयोग के लिए तैयार हो सकता है। इसके बाद, फिर पद 6-8 में पवित्र आत्मा इन वरदानों के योग्य रीति से उपयोग करने के बारे में कुछ सिद्धान्त सिखाता है। कृपया ध्यान कीजिए कि ये सभी सिद्धान्त सभी वरदानों पर समान रीति से लागू हैं, वरदानों के भिन्नता के कारण सिद्धांतों में कोई भिन्नता नहीं है। पिछले लेख में हमने इस उपयोगिता के बारे में तीन बातें देखीं थीं, और आज हम डॉ और बातें देखेंगे।

  • प्रत्येक विश्वासी को परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई को ज़िम्मेदारी और वफादारी से निभाना है। इन तीन पदों में पवित्र आत्मा पौलुस द्वारा मसीही विश्वासियों को लिखवा रहा है कि जिसे जो सेवकाई सौंपी गई है, उसे उसी सेवकाई को अपनी भरसक सामर्थ्य के अनुसार करना है। पूरे वचन में कहीं कोई उदाहरण नहीं है कि परमेश्वर के किसी प्रेरित अथवा सेवक ने उसके लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित सेवकाई के बदले कोई अन्य सेवकाई प्राप्त की हो। कुछ लोगों ने, जैसे कि योना नबी ने, और आरंभ में मूसा ने और यिर्मयाह ने अपनी सेवकाई को लेकर अप्रसन्नता अवश्य व्यक्त की, उससे बचना चाहा, किन्तु बच कोई नहीं सका; अन्ततः उन्हें जाकर वही करना पड़ा जो परमेश्वर ने उनके लिए ठहराया था।  साथ ही, कोई भी परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई ज़िम्मेदारी यह बहाना बना कर कि “परमेश्वर, मैं यह नहीं कर पा रहा हूँ, इसलिए आप मेरे लिए इसे कर दें” अपना काम करने से बच नहीं सका है। परमेश्वर जानता है कि कौन क्या कर सकता है और क्या नहीं, और उसने उसे के अनुसार उन्हें ज़िम्मेदारियाँ दी हैं, और सभी को उपयुक्त सँसाधन भी दिए हैं। इसलिए यह कहना कि वे उस कार्य को कर पाने में अक्षम हैं, एक तरह से परमेश्वर को झूठा और छलने वाला कहने के बराबर है।

  • साथ ही इन पदों तथा शेष पदों में लिखे गए निर्देश की वाक्य-रचना पर भी ध्यान कीजिए - परमेश्वर द्वारा सौंपे गए सभी कार्यों को निरंतर चलते रहने, उन्हें लगातार किए जाते रहने वाले भाव में कहा गया है। कहीं यह नहीं लिखा है, अथवा ऐसा कोई संकेत दिया गया है कि उसके लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित की गई सेवकाई समाप्त होने वाली या कुछ समय तक की ही है। अर्थात, जब तक परमेश्वर स्वयं किसी कारण उस सेवकाई में कोई परिवर्तन न करे, तब तक मसीही सेवक को उसे सौंपे गए कार्य को करते ही चले जाना है। पौलुस जीवन भर सुसमाचार प्रचार में ही लगा रहा। जब उसे बंदी बनाया गया, तो उसने पत्रियाँ लिख कर इस सेवा को किया; जब वह बंदी नहीं था, तो एक से दूसरे स्थान पर जाकर, हर सताव, कठिनाई, दुख, तिरस्कार, उत्पीड़न, आदि को सहते हुए भी, वह अपनी सेवकाई को करता ही रहा; एक के बाद एक अन्य स्थानों पर जाकर सुसमाचार प्रचार के अवसर तलाशता रहा, उन अवसरों का प्रयोग करता रहा। और यही बात अन्य प्रेरितों और सेवकों के जीवनों में भी देखी जाती है। परमेश्वर के पूरे वचन में ऐसा कोई नहीं है जिसे उसकी परमेश्वर द्वारा निर्धारित की गई सेवकाई से कभी “सेवा-निवृत्ति (retirement)” मिली हो। उनका देहांत ही उनकी सेवकाई से सेवा-निवृत्ति थी, और जब तक वे पृथ्वी पर रहे, परमेश्वर उन्हें सामर्थ्य, बुद्धि और बल देता रहा कि वे अपने कार्य को करते रहें, परमेश्वर के लिए उपयोगी बने रहें।

    यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप अपनी निर्धारित सेवकाई को पहचानें, और अपने आप को तैयार कर के उस सेवकाई को परमेश्वर द्वारा दिए गए आत्मिक वरदानों की सहायता से पूरा करें। जब तक परमेश्वर आपको किसी अन्य कार्य के लिए न कहे, जो उसने सौंपा है, उसे ही करते रहें। औरों की सेवकाइयों को लेकर शैतान के किसी भ्रम या बहकावे में न पड़ें; और न ही पवित्र आत्मा के नाम से इस संबंध में 1 कुरिन्थियों 12:31 के आधार पर गलत शिक्षाएं देने वालों की भ्रामक बातों में, जिनकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं, आएं। आप परमेश्वर के प्रति वफादार बने रहिए, और वह आपके प्रति वफादार रहेगा, आपको आपके अनन्त जीवन के लिए सुरक्षित एवं आशीषित रखेगा।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Utilizing the Gifts of the Holy Spirit – 7

 

    Since every Christian Believer will have to give an account to God of how he has utilized the provisions and privileges that God had given to him, including the gifts of the Holy Spirit, given in accordance with his God assigned ministry; therefore, the Believer’s God given Helper, God the Holy Spirit, in Romans 12 has also given the instructions to prepare and utilize these gifts in a worthy manner. In the first five verses of this chapter, we have seen that the Believer has to prepare himself by fully submitting to the Lord and becoming obedient to Him and His Word, and by engaging in self-evaluation to improve their spiritual lives. Then, from verses 6-8 the Holy Spirit teaches some principles of worthily utilizing the gifts He gives. Please note that all of these are equally applicable to every gift mentioned, there is no differentiation in these principles according to differences of the gifts. We saw three things about this utilization in the last article, and today we will see two more.

  • Every Believer has to faithfully carry out the ministry entrusted to him by God. In these three verses, the Holy Spirit has had it written to the Believers that everyone has to fulfill his assigned ministry as best as he can, to the best of his abilities. There is no example of anyone having his ministry or Spiritual gift changed, anywhere in the Bible, they did what was asked of them by God. What we do find is that some people of God tried not to do what God had asked them to do, like Jonah, and initially Moses and Jeremiah were reluctant; but none could escape or not do what God wanted them to do. Whether willingly, or unwillingly, eventually everyone had to do what God had asked them to do. Moreover, none could ever escape his God given responsibilities through the excuse, “God, I am unable to do it; so please do it for me.” God knows what everyone can do or not do, and has given him the responsibilities accordingly, and also given him the required resources for it. Therefore, to say that they cannot do the work is in a way calling God a liar, a deceiver.

  • Also take note of the construction of the sentences in these three verses - everything assigned by God has to be carried out continually. Nowhere has it been written or indicated that the ministry assigned by God was only for a given period of time, or would finish in sometime. In other words, a Christian minister has to carry on his ministry continually unless and until God Himself does not change it. Paul continued in his gospel outreach ministry throughout his life. Even when he was put in prison, he continued doing the work through writing letters; and when he was free to move around, he went from place to place and preached the gospel, suffering persecution, pain, rejection, problems of various kinds, but never stopping or giving up on his ministry; rather he was always on the lookout for opportunities to preach the gospel and utilize them. The same thing was also seen in the other Apostles and ministers of God. In the whole Bible, there is no one who was ever “retired” from the ministry God had assigned to them. Their death was their retirement, and while they remained on earth, God continued to give them the strength, ability, and wisdom to carry on in their ministry and be useful for God.

    If you are a Christian Believer, then it is essential for you to recognize your assigned ministry from God, prepare yourself for it, and fulfil it, utilizing the Spiritual gifts given by God. Unless and until God asks you to do something else, carry on in whatever God has asked you to do unceasingly. Do not be misled and fall away from your ministry by any satanic deceptions related to someone else’s ministry and Spiritual gifts; especially take care to not get carried away by the misinterpretations and misuse of 1 Corinthians 12:31 by those preach and teach wrong doctrines and false teachings about the Holy Spirit, as we have already seen before. You remain faithful to God, and He too will remain faithful to you, and keep you safe for eternity.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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