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शनिवार, 18 मई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 73

 

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आरम्भिक बातें – 34

बपतिस्मों – 13

 बपतिस्मा - कब होना है?

 

    बपतिस्मे पर हमारे इस अध्ययन में अभी तक हम परमेश्वर के वचन बाइबल से देख चुके हैं कि आरंभिक कलीसिया में, बपतिस्मा हमेशा वयस्कों को दिया जाता था; उन्हें जिन्होंने सुसमाचार को सुन कर उसे स्वीकार किया और उस पर विश्वास किया, और फिर या तो बपतिस्मा लेने के लिए सहमत हुए अथवा स्वयं उसकी माँग की। और साथ ही, मूल यूनानी भाषा में प्रयोग किए गए शब्द “बैपटिज़ो” के शब्दार्थ के अनुसार, बपतिस्मा हमेशा डुबकी का ही होता था, किसी अन्य विधि से नहीं, आरम्भिक कलीसिया के लोग किसी अन्य विधि से बपतिस्मा होने के बारे में नहीं जानते थे। आज हम देखेंगे कि मसीही विश्वास में आने के बाद, व्यक्ति का बपतिस्मा कब होना चाहिए?

    बहुधा, प्रभु यीशु की मंडलियों में, कलीसियाओं में, और लोगों में इस बात को लेकर असमंजस रहता है, अनिश्चितता रहती है कि व्यक्ति को बपतिस्मा कब दिया जाना चाहिए? अकसर लोग सोचते हैं कि पहले कुछ समय व्यक्ति के जीवन और व्यवहार को देख लेते हैं, और यदि वह विश्वास में सही बना हुआ प्रतीत होता है, तब ही उसे बपतिस्मा देंगे। यद्यपि यह मानवीय बुद्धि और दृष्टिकोण से बहुत सही बात लगती है, और कलीसियाओं एवं मण्डलियों में प्रचलित प्रथा भी है; किन्तु वचन में ऐसा कोई उदाहरण या शिक्षा नहीं है जो इस धारणा का समर्थन या पुष्टि करे। 

    यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने उन सभी लोगों को तुरंत ही बपतिस्मा दिया जो अपने-अपने पापों को मानकर उससे बपतिस्मा लेना चाह रहे थे (मत्ती 3:6); उसने उनसे उनके बदले हुए जीवन का कोई प्रमाण नहीं माँगा। किन्तु उन फरीसियों और सदूकियों को जो पाखण्डी जीवन के लिए कुख्यात थे, और बिना पापों का अंगीकार किए, एक रस्म निभाने या औपचारिकता पूरी करने के लिए, तथा अपने आप को लोगों के सामने धर्मी दिखाने मात्र के लिए बपतिस्मा लेने आ रहे थे, उन्हें यूहन्ना ने बपतिस्मा देने से मना किया, और उन से पहले पश्चाताप करने और मन फिराव को जीवन में प्रदर्शित करने के लिए कहा (मत्ती 3:7-9)।

    प्रेरितों 2 अध्याय में, पतरस के प्रचार के द्वारा उद्धार पाने वाले 3,000 लोगों को तुरंत ही बपतिस्मा दिया गया (प्रेरितों 2:41), बिना उनसे उनके बदले हुए जीवन का कोई प्रमाण मांगे, या बिना उन्हें कुछ समय तक निरीक्षण में रखे हुए। 

    पौलुस को, जो तब शाऊल कहलाता था, और कलीसियाओं का सताने वाला होने के लिए जाना जाता था, उसे तुरन्त ही बपतिस्मा दिया गया, बिना उसके बदले हुए जीवन के किसी प्रमाण को उस में देखे या उस से मांगे (प्रेरितों 9:17-18)। जबकि उसके पास परमेश्वर का संदेश लेकर आने वाले जन, हनन्याह को उसके विषय संदेह था (प्रेरितों 9:13-15)।

    सामरिया में फिलिप्पुस की सेवकाई के दौरान, फिलिप्पुस ने सामरिया के लोगों को बपतिस्मे दिए, और उन में शमौन टोन्हा करने वाला भी था, जो अपने आप को अन्य विश्वासियों के समान दिखा रहा था, अपनी पुरानी बातों को छोड़कर फिलिप्पुस के साथ बना रहा (प्रेरितों 8:12-13)। किन्तु बाद में जब पतरस और यूहन्ना यरूशलेम से वहाँ आए, तब शमौन की वास्तविकता प्रकट हो गई, कि उसने वास्तव में पश्चाताप नहीं किया था, और पतरस उससे सच्चे मन से पश्चाताप करने के लिए कहता है (प्रेरितों 8:18-23)। हमारे आज के विषय से संबंधित बात जो बात इस घटना से प्रकट होती है, वह है पतरस और यूहन्ना द्वारा शमौन को बपतिस्मा दिए जाने को लेकर कोई भी विरोध न जताना, फिलिप्पुस से इसके बारे में उन के द्वारा कोई भी प्रश्न न किया जाना, और न ही उसे आगे को इसके लिए सचेत रहने को कहना। यह शमौन द्वारा अनुचित रीति से लिए गए बपतिस्मे और फिलिप्पुस से शमौन का आँकलन करने में हुई चूक का स्पष्ट उदाहरण था, और आगे की शिक्षा के लिए इस उदाहरण के आधार पर कुछ बातें कही जा सकती थीं, कुछ निर्देश दिए जा सकते थे। किन्तु परमेश्वर पवित्र आत्मा ने ऐसा कुछ भी नहीं करवाया। किसी मनुष्य के पश्चाताप और मसीही विश्वास की वास्तविक स्थिति को केवल परमेश्वर ही जानता है। मनुष्यों से चूक होती है, होती रहेगी, इसलिए किसी के विश्वास को प्रमाणित या निश्चित करने के बाद ही उसे बपतिस्मा देने की बात वचन में कहीं भी नहीं लिखी या सिखाई गई है।

    मसीही विश्वासी को बपतिस्मा कब दिया जाना चाहिए, इसका सबसे स्पष्ट संकेत संभवतः कूश देश या इथोपिया की रानी के मंत्री, को फिलिप्पुस द्वारा दिए गए बपतिस्मे में मिलता है (प्रेरितों 8:35-38)। यहाँ हम न केवल फिलिप्पुस द्वारा तुरंत ही उसे बपतिस्मा दिया जाना देखते हैं, वरन हमारी शिक्षा के लिए लिखवाई गई दो बातें भी देखते हैं। 

    पहली है, उद्धार पाए हुए व्यक्ति में इसके बारे में लालसा। प्रेरितों 8 के इससे ऊपर के वर्णन में हम देखते हैं कि फिलिप्पुस ने उसे यशायाह नबी की पुस्तक से सुसमाचार दिया था। किन्तु यशायाह में बपतिस्मे का कोई उल्लेख नहीं है। इसलिए प्रकट है कि सुसमाचार के साथ, फिलिप्पुस ने उसे मत्ती 28:19 की, प्रभु की आज्ञा की बात भी बताई होगी। इसीलिए उस खोजे के मन में इसकी लालसा जागृत हुई, और उसने इसकी इच्छा व्यक्त की। अर्थात, पहली शर्त है व्यक्ति का बपतिस्मे के लिए प्रभु की आज्ञा और उसकी आज्ञाकारिता के महत्व को समझते हुए स्वतः इसकी इच्छा रखना, इसके लिए आग्रह करना। परमेश्वर पवित्र आत्मा सच्चे विश्वासी को प्रेरित करेगा कि वह यह लालसा रखे और आग्रह करे। 

    दूसरी है, फिलिप्पुस द्वारा उससे पूछना, पुष्टि करना, और उसे बताना कि यदि वह पूरे मन से विश्वास करता है, तो यह हो सकता है। ध्यान कीजिए, बपतिस्मा लेने से कोई भी व्यक्ति “पूरे मन से विश्वास” करने नहीं लग जाएगा, जैसा कि शमौन टोन्हा करने वाले के उदाहरण से प्रकट है। फिलिप्पुस ने उस कूश देश के खोजे से उसके इस विश्वास की वास्तविकता का कोई प्रमाण नहीं माँगा, बस उसकी बात को स्वीकार कर लिया, और उसे बपतिस्मा दे दिया। 

    इससे हम यह निष्कर्ष लेते हैं कि जब भी सुसमाचार पर विश्वास और पापों से पश्चाताप करने वाला मसीही विश्वासी, बपतिस्मे के महत्व और संबंधित शिक्षाओं को जानते और समझते हुए, अपने आप को बपतिस्मे के लिए तैयार समझे, और लेने का आग्रह करे, उसे बपतिस्मा दिया जा सकता है। इसके लिए किसी भी रीति से किसी प्रमाण को देखने या पहले उसका विश्वास प्रमाणित होने की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता वचन में नहीं सिखाई गई है।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 34

Baptisms - 13

 Baptism - When?

  

    In our study on baptism from God’s Word the Bible, we have seen so far that in the initial Church, baptism was always given only to adults; to those who had heard the gospel, accepted it, and believed on it, and then either expressed the desire to be baptized or were consenting to be baptized. Also, in accordance with the literal meaning of the Greek word “baptizo”, baptism was always by immersion, not in any other manner; the people of the initial Church did not know of baptism by any other method. Today we will see, when should a person be baptized after coming into the Christian Faith.


   Often, in the Believer’s Assemblies of Lord Jesus Christ, in Churches, and amongst people, this confusion and uncertainty is seen, when should a person be baptized? It is a common thinking that the person’s life and behavior should first be observed for some time, and if he is found to be okay in faith, only then should he be baptized. Though this seems to be a very logical and acceptable thought from human thinking and perspective, and is also the tradition of the Churches or Assemblies; but there is no support, example, or teaching in God’s Word for affirming it.


   John the Baptist immediately baptized those who came to him confessing their sins and wanted to be baptized by him (Matthew 3:6); he did not ask for any evidence or proof from them of their changed lives. But the Pharisees and Sadducees who were infamous for their hypocritical lives, and wanted to get baptized without confessing their sins, only to fulfil a ritual or a formality, and wanted to get baptized only to show themselves as righteous to the people, John refused to baptize them; he asked them to first show through their lives the fruits of repentance and a changed life (Matthew 3:7-9).


   In Acts chapter 2, the 3,000 Jews who accepted the Lord Jesus after Peter’s preaching, were baptized immediately (Acts 2:41), and no proof of a changed life was asked from them, nor were they put under any observation for any period of time.


   Paul, then known as Saul, and was dreaded for persecuting the Church, was baptized soon after his encountering the Lord on the road to Damascus, without anyone asking or observing any change in his life (Acts 9:17-18); though Ananias, who brought God’s message to him, had doubts about him (Acts 9:13-15).


    During Philip’s ministry in Samaria, Philip baptized the people of Samaria, including Simon the sorcerer, who was presenting himself the same as the other Believers, leaving his previous life, he was continuing with Phillip (Acts 8:12-13). But later, when Peter and John came from Jerusalem, then Simon’s actual condition was exposed, that he had not truly repented, and Peter asks him to sincerely repent (Acts 8:18-23). The important thing here for us in this incident, for our topic today, is that Peter and John never questioned or opposed Philip’s baptizing of Simon, did not admonish him for not being able to discern Simon’s actual state, nor asked him to remain alert in future about this happening again. This was a clear example of Simon taking baptism unworthily and of Philip not being able to correctly assess Simon; and this example could have well been used for teaching and instructions about these things, so that they would not be repeated. But God the Holy Spirit did not do this. Only God knows the actual status of any person’s repentance and change of heart, his Christian Faith. Man can and does make mistakes, and will keep making them; therefore, there is no teaching or instruction in God’s Word to first ascertain a person’s faith and only then baptize anyone.


Probably the best answer for when a Christian Believer should be baptized is in the baptism of the Ethiopian Eunuch by Philip (Acts 8:35-38). Here we see that not only did Philip baptize him immediately, but for our learning there are two things mentioned here.


The first is, the longing within the saved person to be baptized. From the preceding verses of Acts 8, we see that Philip preached the gospel to the eunuch from the book of Isaiah. But Isaiah has no mention of baptism. Therefore, it is evident that along with the gospel, in accordance with the Lord’ instructions of Matthew 28:19, Philip would have also told him about the Lord’s command to be baptized. That is why the desire to be baptized would have come into the heart of the Ethiopian Eunuch, and he expressed this desire to Philip. So, the first condition for baptism that can be inferred here is that the person, knowing the commandment of the Lord and its importance, should have this longing within himself to be baptized, and request for it. The Holy Spirit will encourage a true Christian Believer to live in obedience to the Lord’s commands and give him a desire to be baptized in his heart.


The second is, Philip’s confirming from him about it; Philip said to him that if he believes with all his heart, then he can be baptized. Take note, baptism was not meant to create a sincere belief in his heart, as is also evident from the example of Simon the sorcerer. Philip did not ask for any proof from the Ethiopian Eunuch about his faith, simply accepted his word for it, and baptized him. 

    We infer from this that the Christian Believer who accepts and believes in the gospel, repents of his sins, knows and understands the importance of baptism and its related teachings and instructions in God’s Word, if he considers himself ready for baptism, and asks for it, then it can be given to him. There is no need to ask for any proof, or to wait for any period of observation before baptizing him; nothing like this has been taught in God’s Word.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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