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शनिवार, 25 मई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 80

 

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आरम्भिक बातें – 41

बपतिस्मों – 21

क्या उद्धार के लिए अनिवार्य? (6) - विचार कीजिए

 

    हमने पिछले दो लेखों में देखा है कि बाइबल में बपतिस्मे के किसी के पापों को धोने में सक्षम होने का कोई समर्थन नहीं है। हमने इस तर्क, कि बपतिस्मा बचाता है, पापों को धोता है, और उद्धार के लिए आवश्यक है, के समर्थन में आमतौर पर उपयोग किए जाने वाले पदों पर भी विचार किया। बाइबल की व्याख्या के मूल सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए इन पदों का विश्लेषण करने पर, हमने देखा कि ये पद उद्धार के लिए बपतिस्मे की आवश्यकता का समर्थन करने के बजाय वास्तव में दिखाते हैं कि उद्धार विश्वास से, प्रभु यीशु के उद्धारकर्ता होने पर विश्वास करने से है, बपतिस्मे से नहीं। हमने बपतिस्मे के माध्यम से बचाए जाने के तर्क को स्वीकार करने में छिपे कुटिल निहितार्थ पर भी विचार किया, जो यह कहने के समान है कि पापों को धोने के लिए यीशु का अमूल्य रक्त जो कलवरी के क्रूस पर बहाया गया, और बपतिस्मा के लिए प्रयोग किया जाने वाला पानी समान रूप से प्रभावी हैं; क्योंकि बपतिस्मे का जल भी वही कार्य कर सकता है जिसके लिए प्रभु यीशु को स्वर्ग से नीचे उतरना पड़ा, अपने जीवन का बलिदान देना पड़ा, अपना लहू बहाना पड़ा। इसलिए, इसका स्वाभाविक तात्पर्य यह है कि प्रभु का बलिदान और लहू बहाना, और एक व्यक्ति का बपतिस्मा लेना समान हैसियत, प्रभाव, और मूल्य के हैं! यह एक बिल्कुल हास्यास्पद और अस्वीकार्य विचार; लेकिन, यदि कोई बपतिस्मे द्वारा पापों को धोने और बचाए जाने के तर्क को सत्य के रूप में स्वीकार करता है, तो फिर यह कथन बपतिस्मे से पाप धोए जाने और बचाए जाने की आवश्यकता की धारणा का एक स्वाभाविक परिणाम है।

    इस तर्क को स्वीकार करना कई अन्य प्रश्न भी उठाता है, जो यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि यह धारणा या तो बाइबल की अन्य शिक्षाओं के विरुद्ध जाती है, या फिर बाइबल की कई अन्य शिक्षाओं के अनुरूप, उनके साथ सामंजस्य में नहीं है। इन सभी प्रश्नों का उल्लेख करना या उन पर विचार करना संभव नहीं होगा, लेकिन आज हम उनमें से कुछ को देखेंगे। उन पाठकों के लिए, जो अभी भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं, और अभी भी मानते हैं कि पापों को धोने और बचाए जाने के लिए बपतिस्मा एक आवश्यकता है, उनसे निवेदन है कि कृपया इन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करें और देखें कि क्या आप स्वयं अपने ही उत्तरों से संतुष्ट हैं।

    यूहन्ना 1:12-13 में लिखा है, “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं।” परमेश्वर के वचन के इस खण्ड के अनुसार हर कोई जो “उसके नाम पर विश्वास” करता है (बपतिस्मे का न टो कोई उल्लेख है और न कोई सुझाव) वह परमेश्वर की सन्तान बन जाता है, केवल उसे ग्रहण करने या उसके नाम में विश्वास रखने के द्वारा। अब, यदि किसी वैध कारण से, परमेश्वर की यह सन्तान, बपतिस्मा नहीं लेने पाती है, तो क्या उसे स्वर्ग में प्रवेश मिलेगा, अथवा नहीं? यदि नहीं, तो फिर प्रभु में विश्वास करने, उसे ग्रहण करने का कोई महत्व नहीं है; यदि हाँ, तो फिर स्वर्ग में प्रवेश विश्वास के आधार पर है, बपतिस्मे के नहीं। अब, इनमें से कौन सी बात सही है?

यूहन्ना 8:31-32 में "तब यीशु ने उन यहूदियों से जिन्होंने उन की प्रतीति की थी, कहा, यदि तुम मेरे वचन में बने रहोगे, तो सचमुच मेरे चेले ठहरोगे। और सत्य को जानोगे, और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा।" यहाँ क्यों प्रभु यीशु ने उन लोगों को, जिन्होंने उस पर विश्वास किया था, बपतिस्मे के बारे में नहीं सिखाया और उसे ले लेने पर ज़ोर नहीं दिया, बल्कि उनसे उसके वचन का पालन करने के लिए कहा, इस आश्वासन के साथ कि वह वचन उन्हें मुक्त कर देगा? यदि बपतिस्मा इतना महत्वपूर्ण था, तो क्या प्रभु ने उस का उल्लेख न करके गलत किया? और उनसे केवल अपने वचन का पालन करने के लिए कहकर क्या उन्हें धोखा दिया, यह जानते हुए कि बाद में उन लोगों को केवल उनके बपतिस्मा लेने अथवा न लेने की स्थिति के आधार पर योग्य माना जाएगा? क्या प्रभु एक धोखेबाज और पाखंडी थे, जो उन पर विश्वास करने का दावा करने वालों के साथ इतना घटिया व्यवहार करते थे? इससे पता चलता है कि बपतिस्मे पर आधारित यह गलत धारणा प्रभु के व्यक्तित्व को कितना खराब दिखाने की क्षमता रखती है और इस तरह उस सिद्ध और पवित्र उद्धारकर्ता पर जो पाप से अनजान था, और जिसमें कोई छल नहीं था, कैसे घोर लांछन और बदनामी लाने की क्षमता रखती है। 


यूहन्ना 4:2 "यद्यपि यीशु आप नहीं वरन उसके चेले बपतिस्मा देते थे।" - बपतिस्मा के महत्व की धारणा के दावे को ध्यान में रखते हुए, विचार कीजिए कि प्रभु यीशु ने स्वयं अपने अनुयायियों को बपतिस्मा क्यों नहीं दिया, वरन यह अपने शिष्यों को करने के लिए क्यों छोड़ दिया? जब उस ने उन्हें प्रचार की सेवकाइयों पर भेजा था, तब भी उसने कभी भी उन शिष्यों से इसके विषय कोई प्रश्न नहीं किया कि क्या उन्होंने उस पर विश्वास करने वालों को बपतिस्मा दिया था कि नहीं? साथ ही इस बात पर भी ध्यान दीजिए कि पूरे नए नियम में, जिन्हें यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने या प्रभु के शिष्यों ने बपतिस्मा दिया था, उन्हें कभी भी, कहीं पर भी “उद्धार पाया हुआ” या प्रभु के जन” कह कर संबोधित नहीं किया गया है, और न ही उनके उदाहरण को औरों के लिए प्रयोग किया गया है - जबकि ऐसा करना उचित और सेवकाई में सहायक होता। यदि बपतिस्मा इतना आवश्यक था, जितना उसके विषय किए गए दावे से दिखाया जाता है, तो प्रभु ने इस महत्वपूर्ण बात की अवहेलना क्यों की? बाद में भी, अपनी सांसारिक सेवकाई के अंत में, अपने शिष्यों के लिए अपने महान आदेश में (मत्ती 28:18-20), प्रभु ने कहा कि जो पहले उसके शिष्य बने केवल उन्हें ही बपतिस्मा दिया जाए। उसने चेलों को यह क्यों नहीं कहा कि वे सभी को बपतिस्मा दें ताकि वे सभी बड़ी सरलता से कम से कम बच तो जाएँ, और फिर उन्हें शिष्य बनाने के प्रयास करते रहें? उद्धार की सेवकाई के इतने महत्वपूर्ण और निर्णायक भाग की उपेक्षा क्यों, और वह भी स्वयं प्रभु द्वारा?


ऐसा क्यों है कि बाइबल में हमें, प्रभु के किसी भी शिष्य के बपतिस्मा लेने का कोई विवरण तो दूर, उसका कहीं पर भी एक उल्लेख तक नहीं मिलता है? न तो हम प्रेरितों और शिष्यों को उद्धार के लिए, या स्वर्ग में प्रवेश करने के लिए, अपने स्वयं के बपतिस्मे की ओर संकेत करते हुए, उसे एक उदाहरण के समान उपयोग कर के इसके विषय प्रचार और शिक्षा देते हुए देखते हैं; न ही हम कभी उन्हें अपने जीवन के उदाहरणों के माध्यम से इसके महत्व पर बल देते हुए पाते हैं; ऐसा क्यों? यदि बपतिस्मा वास्तव में इतना आवश्यक था, तो क्या उनके लिए यह भला और सहज नहीं होता कि वे इसके बारे में अपनी गवाही का उपयोग इसे सिखाने और इसकी आवश्यकता पर ज़ोर देने के लिए करते? किन्तु कहीं पर भी किसी भी शिष्य या प्रेरित ने ऐसा नहीं किया। हम इसी विषय पर आगे के लेखों में भी देखेंगे, और बाइबल से संबंधित कुछ अन्य तथ्यों को देखेंगे जो उद्धार के लिए बपतिस्मे की अनिवार्यता की इस मन-गढ़न्त धारणा का खण्डन करते हैं।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


The Elementary Principles – 41

Baptisms - 21

Is it Necessary for Salvation? (6) – Points to Ponder

 

    We have seen in the previous articles that there is no Biblical support for baptism being capable of washing away anyone’s sins. We also considered the verses commonly used in support of the argument that baptism saves, washes away sins, and is necessary for salvation. On analyzing these verses while keeping in mind the basic principles of Biblical interpretation, we saw that these verses instead of supporting the necessity of baptism for salvation, actually show that salvation is by faith, by believing on the Lord Jesus, and not by baptism. We also considered the devious implication of accepting the argument of getting saved through baptism, that it is tantamount to saying that the priceless blood of Jesus shed on the Cross of Calvary for the washing away of sins, and waters of baptism are equivalent. Since the waters of baptism can also accomplish the same for which Lord Jesus had to come down from heaven, sacrifice His life, shed His blood. Therefore, the implication is that the Lord’s sacrifice and shedding of blood, and a person’s getting baptized are of similar status and value! An absolutely ludicrous and unacceptable thought; but one that is a natural outcome if one accepts as true the argument of washing away of sins and getting saved by baptism.

    Accepting this argument also raises many questions, which clearly show that this argument either goes against, or does not harmonize with many other Biblical teachings. It will not be possible to mention or look up all the questions, but we will mention a few of them. For those readers, who still are not convinced, and still believe that baptism is a requirement for washing away of sins and getting saved, please try and answer these questions to yourselves, and see if you are satisfied by your own answers.

    John 1:12-13 states that “But as many as received Him, to them He gave the right to become children of God, to those who believe in His name: who were born, not of blood, nor of the will of the flesh, nor of the will of man, but of God.” As per this portion of God’s Word, everyone who “believes in His name” (no mention of baptism, no suggestion either) becomes a child of God simply by the act of receiving Him or believing in His name. Now, if for some valid reason, this child of God by faith, is unable to get baptized, will he be allowed to enter heaven or not? If not, then it makes no sense in believing in or receiving the Lord; if yes, then entering heaven is a function of faith, not baptism. So, which is it?

    In John 8:31-32 “Then Jesus said to those Jews who believed Him, "If you abide in My word, you are My disciples indeed. And you shall know the truth, and the truth shall make you free."” Why did the Lord Jesus not teach and emphasize about baptism instead of asking those who believed on Him to abide in His Word, which would then set them free? If baptism was so important, then did the Lord do wrong in not mentioning it to them, and only asked them to abide in His Word, whereas they would later be judged worthy only on the basis of their baptismal status? Was the Lord a charlatan and hypocrite to so shabbily treat those who claimed faith in Him? This shows how poorly a misplaced stand on baptism reflects on the persona of the Lord and thereby severely denigrates the one who knew no sin and in whom was no guile?

    John 4:2 “though Jesus Himself did not baptize, but His disciples” – in light of the claimed importance of baptism, why did the Lord Jesus not baptize Himself, leaving it for His disciples to do so? Nor did He ever question them whether or not they had baptized those who believed, when He sent them on outreach ministries? Moreover, those who had been baptized, either by John the Baptist, or the disciples of the Lord Jesus, have never been called “saved” or “the people of the Lord Jesus” anywhere in New Testament – whereas doing this would have been appropriate and helpful in ministry. Even later, at the end of His earthly ministry, in His Great Commission to His disciples (Matthew 28:18-20), the Lord asked that only those who first became His disciples should be baptized. Why did He not tell the disciples baptize everyone so that at the least they are saved, and then try to make them His disciples? Why this neglect of such an important and decisive part of the ministry, and that too by the Lord Himself?

    Why is it that in the Bible we do not find even a mention, let alone any details of any of the Lord’s disciples being baptized? Neither do we find the apostles and disciples alluding to their own baptism for salvation, or for entering heaven; nor do we ever find them emphasizing on its importance through examples of their lives? If baptism was indeed so necessary, wouldn’t it have been good for them to use their own testimony regarding it to teach and emphasize its necessity? We will continue on this topic in the articles ahead, and consider some other Biblical facts that disprove this contrived necessity of baptism for salvation.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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