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आरम्भिक बातें – 89
विश्वासियों का न्याय – 3
छठी आरम्भिक बात, “अन्तिम न्याय,” के हमारे अध्ययन में, हमने पिछले लेख में परमेश्वर के वचन बाइबल से देखना आरम्भ किया था कि अधिकाँश ईसाइयों या मसीहियों तथा अन्य लोगों की आम धारणा के विपरीत, अन्तिम न्याय अविश्वासियों और उद्धार नहीं पाए हुए लोगों का नहीं बल्कि वास्तव में नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों का होगा। यह अविश्वसनीय, बेतुका, और न्याय से सम्बन्धित सामान्य धारणाओं के विपरीत प्रतीत हो सकता है, लेकिन जब हम इस दावे पर कुछ विचार करते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह बाइबल के अनुसार सही भी है और उचित भी है। हमने दो शब्दों, “न्याय” और “दण्ड” के उपयोग किए जाने के बारे में भी देखा था कि यद्यपि इन्हें सामान्यतः अदला-बदली कर के पर्यायवाची शब्दों के समान उपयोग किया जाता है, लेकिन यह हमेशा ही सही नहीं होता है। शब्द न्याय का तात्पर्य होता है कुछ मानकों के अनुसार जाँच-पड़ताल करना, उससे एक निष्कर्ष पर पहुँचना, और फिर उस जाँच-पड़ताल एवं निष्कर्ष के आधार पर परिणाम और प्रतिफल देना, जो कि दण्ड हो सकता है, निर्दोष घोषित होना हो सकता है, या कुछ पुरस्कार दिया जाना भी हो सकता है। तो, दण्ड न्याय नहीं बल्कि न्याय के परिणाम का एक भाग है, और प्रत्येक न्याय का परिणाम दण्ड नहीं है। न्याय प्रशंसा तथा पुरस्कार देने के लिए भी किया जाता है, केवल दुःख देने के लिए ही नहीं। हमने यूहन्ना 3:16-18 को विचार करने का खण्ड बनाकर न्याय और दण्ड पर विचार करना आरम्भ किया था, और आज भी हम इसी खण्ड पर विचार करेंगे, तथा इसके तात्पर्यों को कुछ विस्तार से देखेंगे।
हमने यूहन्ना 3:16-18 पर विचार करते हुए देखा है कि पृथ्वी के प्रत्येक मनुष्य का अन्तिम स्थान, उसकी, अर्थात उसकी आत्मा की अन्तिम नियति, यहीं इसी पृथ्वी पर ही हमेशा के लिए निर्धारित हो जाती है, और इसे स्वयं वह व्यक्ति ही निर्धारित करता है। प्रभु यीशु द्वारा मरकुस 2:10 में कहे हुए पर विचार कीजिए, “परन्तु जिस से तुम जान लो कि मनुष्य के पुत्र को पृथ्वी पर पाप क्षमा करने का भी अधिकार है (उसने उस झोले के मारे हुए से कहा); (साथ ही मत्ती 9:6 और लूका 5:24 भी देखें);” यहाँ पर प्रभु यीशु ने बिल्कुल स्पष्ट कह दिया है कि पापों को क्षमा करने का अधिकार यहीं पृथ्वी पर है। इसकी पुष्टि इस बात से भी हो जाती है कि बाइबल में कहीं भी पृथ्वी के बाहर, यानि कि परलोक में, किसी के भी पापों के क्षमा किए जाने का कोई भी उदाहरण नहीं है। इसलिए प्रभु के इस कथन का प्रकट अभिप्राय है कि पापों की क्षमा केवल तभी तक सम्भव है जब तक व्यक्ति इस पृथ्वी पर है, लेकिन पृथ्वी से जाने के बाद सम्भव नहीं है। इस बात से भी उन लोगों को सचेत हो जाना चाहिए जो यह व्यर्थ ही समझे बैठें हैं कि उनकी अनन्तकाल की दशा बाद में किसी रीति से बदल दी जाएगी, और उन्हें अभी उचित कदम उठा कर, अपने पापों के लिए पश्चाताप कर के और प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण कर के, परमेश्वर के साथ अपना मेल-मिलाप कर लेना चाहिए जिस से कि अनन्तकाल में पापों की क्षमा के साथ प्रवेश करें।
तो अब हमारे पास सम्पूर्ण मानवजाति, जीवित अथवा मृतक, दो श्रेणियों में विभाजित खड़ी है – वे जो वास्तव में बचाए या उद्धार पाए हुए हैं, और वे जो बचाए हुए या उद्धार पाए हुए नहीं हैं। अभी तक हमने जो देखा है, उससे यह स्पष्ट है कि जो उद्धार पाए हुए हैं वे अनन्तकाल के लिए परमेश्वर के साथ स्वर्ग में रहने के लिए जाएँगे, चाहे पृथ्वी पर उनका जीवन कैसा भी क्यों न रहा हो। इसी प्रकार से जिन्होंने उद्धार नहीं पाया है, बचाए नहीं गए हैं, वे अनन्त काल के लिए नरक में जाएँगे, चाहे पृथ्वी पर उनका जीवन कैसा भी क्यों न रहा हो। अब यहाँ पर उस “न्याय” की भूमिका आती है, जिस के बारे में हमने बात की है। जो स्वर्ग जाएँगे, उन्हें अनन्तकाल के लिए कुछ परिणाम, कुछ प्रतिफल भी दिए जाएँगे, उद्धार पाने और नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी हो जाने के बाद से जैसा जीवन उन्होंने व्यतीत किया है, उस के अनुसार। इसलिए, उनका आँकलन किया जाना, उनकी जाँच-पड़ताल होना भी आवश्यक है, ताकि उनके परिणाम और प्रतिफल निर्धारित किए जाएँ। हम इसके बारे में बाद में विचार करेंगे।
लेकिन जो अविश्वासी बने रहे, जिन्होंने उद्धार को स्वीकार नहीं किया और बचाए नहीं गए, वे दिए जा सकने वाले सर्वाधिक सम्भव दण्ड के भागी बन चुके हैं; उन्हें जो मिलने जा रहा है, उससे बढ़कर और कोई दण्ड हो ही नहीं सकता है कि वे परमेश्वर, शान्ति से, परमानन्द से हमेशा के लिए दूर कर दिए गए हैं और अनन्तकाल के, अवर्णनीय, कभी समाप्त न होने वाली घोर पीड़ा में भेज दिए गए हैं, जो कभी भी, किसी भी तरह से न तो समय और न तीव्रता में कतई भी कम हो सकती है। उन्होंने परमेश्वर का और उस के अनुग्रह का जो परमेश्वर ने सभी को मुफ़्त में उपलब्ध करवाया है, तिरस्कार कर के, उसे तुच्छ जानकर परमेश्वर का सबसे बुरा और घोर अपमान किया है; और इसीलिए अब वे सबसे बुरे और घोर दण्ड के भागी हैं। अब इस स्थिति में उनके द्वारा किए गए किसी भी अन्य अपराध या बुराई की जाँच करने से क्या मिलने वाला है; और उनके उस अपराध या बुराई का उनके इस सर्वाधिक सम्भव दण्ड पर और क्या प्रभाव होने पाएगा – क्योंकि यह दण्ड न घट सकता है और न बढ़ सकता है?
इस प्रकार से उद्धार का तिरस्कार करने वाले, वे जो बचाए नहीं गए हैं, उनके न्याय का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि वे सर्वाधिक सम्भव दण्ड के भागी हो चुके हैं; उस से बढ़कर या बुरा और कुछ उनके लिए सम्भव नहीं है, और जो वे भोगेंगे वह कभी भी, किसी भी रीति से समय या तीव्रता में कभी भी लेश-मात्र भी कम नहीं होगा। लेकिन जो उद्धार पाए हुए हैं, जो सच्चे मसीही विश्वासी हैं, उन्हें परमेश्वर द्वारा परिणाम और प्रतिफल दिए जाने हैं, परमेश्वर को, उस के अनुग्रह को स्वीकार करने और परमेश्वर की सन्तान हो जाने के अनुसार जीवन जीने के लिए, उसकी आज्ञाकारिता के लिए। इसीलिए, उनका ही आँकलन होना है, जाँच-पड़ताल की जानी है ताकि ये निर्धारित किया जाए कि पृथ्वी पर उन्होंने परमेश्वर की सन्तान होने के नाते कैसा जीवन जिया है।
इस लिए न्याय यह निर्धारित करने के लिए नहीं है कि कौन स्वर्ग जाएगा और कौन नरक; यह बात तो पहले ही यहीं इसी पृथ्वी पर निर्धारित हो चुकी है; और यह अब कभी भी किसी भी रीति से नहीं बदलेगी। लेकिन न्याय यह निर्धारित करने के लिए है कि स्वर्ग में परमेश्वर से उन्हें क्या परिणाम और प्रतिफल मिलने हैं। इस से हम समझने पाते हैं कि क्यों न्याय परमेश्वर के लोगों का होना है, न कि अविश्वासियों का। अगले लेख में हम बाइबल के कुछ उदाहरण देखेंगे जो इस बात की पुष्टि करते हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 89
Judgment of Believers – 3
In our study on the sixth elementary principle, the “Eternal Judgment,” in the last article, we had started to see from God’s Word the Bible that unlike the commonly held belief by almost all Christians and other people, the final judgment will not be of the unbelievers and the unsaved, but will be of the truly Born-Agan Christian Believers. While this may appear to illogical, unbelievable, and contrary to the notions associated with judgment, but as we ponder over this assertion, it becomes clear that it is both logical, and Biblical. We had also considered the fact that the terms “judgment” and “punishment” though often used interchangeably and synonymously in common usage, but actually this is not always true. The term judgement implies evaluating from the point of view of certain criteria, then drawing a conclusion, and on the basis of the evaluation and conclusion handing over the result or consequences, which may be some punishment, an acquittal, or even some rewards. So, punishment is a part of the results of judgment, and every judgment does not necessarily result in punishment; but judgment can also be for giving appreciation and rewards for good things, not necessarily only giving harmful or painful things. We had used John 3:16-18 as the lead passage to begin pondering over judgment and punishment, and today we will carry on with this passage, and see its implications in some detail.
We have learnt through considering John 3:16-18, that the final place, the ultimate destiny of every person on earth, or, rather his soul, is determined and decided forever, while a person is here on earth, and it is the person himself who makes the decision about his eternity. Consider Mark 2:10 “But that you may know that the Son of Man has power on earth to forgive sins--He said to the paralytic” (also see Matthew 9:6; Luke 5:24); here the Lord Jesus has made it very clear that the power of sins being forgiven is only here on earth. This is further affirmed by the fact that there is no mention anywhere in the Bible of any forgiveness of sins outside of earth, or in the life after the earthly life. Therefore, the evident implication of the Lord’s statement is that forgiveness of sins is possible only while we are here on earth and will not be possible beyond the life on earth; and this is affirmed repeatedly in the Bible. This too should make those who believe that their eternal destiny can or will be changed later, take serious steps to ensure that they enter eternity with their sins forgiven and having been reconciled with God through repenting of sins and accepting the Lord Jesus as their savior.
So, now we have the all of mankind, living or dead, placed into two categories – the truly saved, and the unsaved. As is apparent from what we have seen so far, the saved will go to heaven to be with God for all eternity, no matter what kind of life they have lived on earth. Similarly, the unsaved will go to hell for all of eternity, no matter what kind of life they have lived on earth. Now here comes the role of the “judgment” that we have talked about earlier. Those who go to heaven, will also be given some eternal rewards and will receive eternal consequences of the life they have lived on earth after their salvation, after having become Born-Again Christian Believers. Therefore, they need to be evaluated, their lives scrutinized, and their rewards and consequences determined. We will talk about this later in some detail.
But those condemned to hell for eternity because of their unbelief, give it a thought, is there any need or any sense in subjecting them to a judgment, i.e., evaluating and scrutinizing their earthly lives? What difference can this “judgment” or evaluation make to their eternal fate? They already are in the worst possible state that they could be – being put away from God, peace, and bliss forever, being put in eternal, unending, indescribable torment, that will never lessen in intensity or duration by any means. So, since they have already been punished to the maximum possible extent, since their offence of rejecting God and God’s freely offered grace is the worst possible insult they could have given to God; therefore, why should they be judged for any other offence they may have committed, and how would it at all affect their punishment, since their punishment can neither be increased nor descreased?
So, now, there is no rationale or necessity of the unbelievers, the unsaved, who have already been condemned to the maximum possible punishment that could be inflicted, to be evaluated or judged, since there is nothing worse than what they are condemned to, and what they are condemned to, will never, in any manner, by any means be lessened in duration or intensity. But the saved, the Believers, have to be rewarded by God for accepting His forgiveness and grace, and living life in obedience to Him as His children. So, it is they who will need to be evaluated to determine their rewards and the consequences of the life they have lived on earth as the children of God.
So, the judgment is not for deciding who goes to heaven and who goes to hell; that has already been decided here on earth, and will never in any manner change at all; but the judgment is to determine the reward the Believers will receive in heaven with God. From this we begin to see why the final judgment will be of the people of God, the Believers, and not of the unbelievers. In the next article, we will see some other Biblical examples that confirm this conclusion.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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