ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

रविवार, 9 जुलाई 2023

Miscellaneous Questions / कुछ प्रश्न – 42l – Examples from New Testament / नए नियम के उदाहरण – 3


क्या बाइबल के अनुसार, क्या मसीही कलीसियाओं में स्त्रियों को पुलपिट से प्रचार करने और पास्टर की भूमिका निभाने की अनुमति है? 


भाग 12 – नए नियम की स्त्रियों के उदाहरणों का विश्लेषण – 3 – मरियम मगदलीनी

 

    पिछले दो लेखों में हमने परमेश्वर के वचन की दो स्त्रियों, फीबे और सामरी स्त्री, के बारे में वचन में दी गई जानकारी को देखा है और उसका विश्लेषण किया है, क्योंकि इन दोनों को बहुधा इस बात को प्रमाणित करने के प्रयास में उपयोग किया जाता है कि परमेश्वर का वचन स्त्रियों को भी कलीसिया में प्रचार करने और पास्टर बनने की अनुमति देता है। हमने देखा है कि उनके बारे में दी गई जानकारी को सही रीति से देखने और ठीक से विश्लेषण करने से स्पष्ट हो जाता है कि ये दोनों इस धारणा का कोई समर्थन अथवा पुष्टि नहीं करती हैं, और इन्हें इस अनुचित और बाइबल के विपरीत की शिक्षा, कि स्त्रियों को भी कलीसियाओं में प्रचार करने और पास्टर बनने की अनुमति है, का समर्थन करने के लिए कदापि उपयोग नहीं किया जा सकता है। आज हम एक अन्य स्त्री, मरियम मगदलीनी, के उदाहरण को देखेंगे, जिसे भी इसी प्रकार से इस गलत और बाइबल के विपरीत की शिक्षा को सही ठहराने के प्रयास में उपयोग किया जाता है।


    कुछ लोग यूहन्ना 20:17 में प्रभु यीशु द्वारा मरियम मगदलीनी को दिए गए निर्देश को गलत व्याख्या के द्वारा आधार बनाकर, इस अनुचित और गलत धारणा को सही ठहराने का प्रयास करते हैं। वे ये दावा करते हैं कि यह पद दिखता है कि पुनरुत्थान के बाद प्रभु यीशु ने जिस पहले “प्रचारक” को भेजा था, वह एक स्त्री थी, इसलिए स्त्रियों के कलीसियाओं में प्रचार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। एक बार फिर से यह जान-बूझकर परमेश्वर के वचन को तोड़-मरोड़ कर यह दिखाने का प्रयास है कि वह एक पूर्व-निर्धारित धारणा का समर्थन करता है। यहाँ पर कुछ बातों के बारे में ध्यान कीजिए:

·        पहली बात, प्रभु यीशु और मरियम के मध्य का यह वार्तालाप किसी आराधना के स्थान पर नहीं, अपितु उस वाटिका में हुआ था जहाँ पर वह कब्र थी, जिस में प्रभु यीशु कि रखा गया था।

·        दूसरे, प्रभु ने उसे “मेरे भाइयों”, अर्थात जैसा कि अगले पद से स्पष्ट है, उसके शिष्यों के पास भेजा था; न कि सारे यरूशलेम, इस्राएल, या पृथ्वी के छोर तक प्रचार करने जाने के लिए।

·        तीसरा, वे “भाई” यहूदियों और रोमियों से छिपकर एक कमरे में एकत्रित थे, किसी आराधनालय में नहीं; और मरियम को वहीं पर उन्हीं के पास भेजा गया था।

·        चौथा, मरियम को प्रभु ने एक विशेष, एक वाक्य के सन्देश के साथ भेजा था, “...परन्तु मेरे भाइयों के पास जा कर उन से कह दे, कि मैं अपने पिता, और तुम्हारे पिता, और अपने परमेश्वर और तुम्हारे परमेश्वर के पास ऊपर जाता हूं।” प्रभु ने मरियम से यह भी नहीं कहा की जा कर उन्हें बता दे कि मैं जीवित हो उठा हूँ, अर्थात, आने वाले दिनों में होने वाले सुसमाचार प्रचार से संबंधित कोई भी बात कहने के लिए नहीं भेजा। और इससे ठीक अगला पद इस बात की पुष्टि करता है कि मरियम ने भी वही किया था जो प्रभु ने उसे कहने के लिए कहा था – उसने केवल शिष्यों को केवल वही बताया जो प्रभु ने बताने के लिए कहा था, किसी अन्य को नहीं बताया, कहीं और नहीं सुनाया तथा कुछ और नहीं कहा।

·        पाँचवाँ, न तो इस घटना से पहले, और न ही प्रभु से मरियम के इस वार्तालाप के बाद, मरियम को कभी भी कोई भी अधिकार का स्तर दिया गया, और न ही प्रभु के शिष्यों में प्रचार करने की कोई अनुमति दी गई।

 


    साथ ही, यह कदापि संभव नहीं था कि प्रभु कभी भी अपनी किसी बात के विपरीत, उसके विरोधाभास में कुछ कहता या करता। शिष्यों को सुसमाचार प्रचार पर जाने की सेवकाई का निर्देश कुछ दिनों के बाद दिया जाना था, और उन्हें तब ही इस सेवकाई पर निकलना था, जब उन्हें पवित्र आत्मा की सामर्थ्य प्राप्त हो जाती (प्रेरितों 1:4, 5, 8), जो कि प्रभु यीशु के स्वर्गारोहण के बाद होना था। इसलिए, प्रभु यहाँ पर मरियम के लिए कुछ भिन्न क्यों करता? यह दावा करना कि यह घटना दिखाती है कि प्रभु ने उसे सबसे पहला “सुसमाचार का प्रचारक” बना कर भेजा, यह अर्थ देना है कि प्रभु ने स्वयं की बात के विरुद्ध एक विरोधाभास उत्पन्न किया, और यह परमेश्वर के वचन में विरोधाभास लाना है। इससे यह भी पता चलता है कि यह परमेश्वर के वचन को भ्रष्ट और झूठा ठहराने की चालाकी से लाई गई एक शैतानी युक्ति है।


    यूहन्ना 20 में दर्ज प्रभु के साथ हुई मरियम की बात-चीत पर थोड़ा ध्यान कीजिए; मरियम को न तो पवित्र आत्मा की सामर्थ्य प्राप्त हुई थी, और न ही उसे प्रभु के शिष्यों को छोड़ किसी अन्य से, तथा जो और जितना प्रभु ने उससे कहा था उसके अतिरिक्त कुछ भी कहने की अनुमति दी गई थी। इस दर्ज लेख में न तो उसने जाकर सुसमाचार का प्रचार किया, और न ही पवित्र शास्त्र से किसी को कुछ सिखाया या बताया – न तो शिष्यों को, और न ही किसी अन्य को। वह केवल प्रभु द्वारा सौंपे गए उस छोटे से सन्देश को लेकर वाटिका से उस कमरे तक गई जहाँ पर शिष्य एकत्रित थे। और फिर, शिष्यों को सुसमाचार देने की क्या आवश्यकता थी? इसलिए, इस सन्देश को प्रभु द्वारा प्रचार करवाया गया “पहला सुसमाचार प्रचार” क्यों कहा जाए? यह कहना तो चालाकी और धूर्तता के साथ से कहना है कि अभी तक शिष्य उद्धार पाए हुए नहीं थे, इसलिए उन्हें सुसमाचार सुनाए जाने की आवश्यकता थी – यह कैसी व्यर्थ बात है! यदि तीन वर्ष से भी अधिक तक प्रभु के साथ रहकर, और उससे व्यक्तिगत रीति से सीखने के बाद भी वे उद्धार नहीं पा सके थे, तो फिर कैसे पा सकते थे?


    और यदि उन्होंने अभी तक उद्धार नहीं पाया था, और उन तक मरियम में होकर पहुँचाया गया सन्देश, पहला सुसमाचार प्रचार था, तो फिर क्या इस सन्देश के प्रत्युत्तर में कहीं पर उनके पश्चाताप करने और प्रभु को जीवन समर्पण करने की उनकी प्रतिक्रिया दर्ज है? क्या मरियम के द्वारा भेजे गए प्रभु के सन्देश से उसके ऐसा सन्देश होने का कुछ भी आभास मिलता है? क्या प्रभु ने फिर कभी, इसके बाद उन शिष्यों से कोई इस प्रकार की बात कही, “अब जब तुम ने पश्चाताप करके अपना जीवन मुझे समर्पित कर दिया है, तो अब में तुम्हें सेवकाई के लिए भेज सकता हूँ”? क्या प्रभु तीन वर्ष से भी अधिक का समय बिना उद्धार पाए हुए लोगों को सिखाने और प्रशिक्षित करने में लगाएगा, इस अनुमान के साथ कि वे उसके पुनरुत्थान के बाद पश्चाताप कर के उद्धार प्राप्त कर लेंगे? यदि यह संभव होता, तो फिर आज हमें प्रभु की सेवकाई से पहले पश्चाताप करके प्रभु को समर्पित जीवन जीने का प्रचार की आवश्यकता क्यों है? तब तो सीधे से कह सकते हैं, बाइबल को सीख लो, और यदि प्रभु को तुम्हारी सेवकाई की आवश्यकता होगी, तो वह तुम से पश्चाताप और समर्पण करवा लेगा; क्या यह बिलकुल बेतुका और व्यर्थ नहीं है? इन तात्पर्यों के द्वारा आप समझ सकते हैं कि किस प्रकार से शैतान गलत व्याख्या और अनुचित उपयोग की एक दिखने में छोटी और हल्की बात के द्वारा कैसे चालाकी से परमेश्वर के वचन को भ्रष्ट करने और उसे झूठा ठहराने, उसे अप्रभावी करने के षड्यंत्र ले आता है।


    बाद में जब शिष्य सुसमाचार प्रचार और कलीसियाओं को स्थापित करने की सेवकाई पर निकले, तो हम कहीं पर भी मरियम का और उसके इस सन्देश का कोई भी उल्लेख नहीं पाते हैं। और न ही कभी मरियम अथवा कोई अन्य स्त्री उन लोगों के साथ गई जो सुसमाचार प्रचार के लिए भेजे गए थे; उनका न तो कभी अपने स्थानीय क्षेत्र के, या यरूशलेम के, और न ही अपने निवास स्थान के आस-पास के किसी भी आराधनालय में जाकर सुसमाचार प्रचार करने का कोई भी उल्लेख नहीं है। इसलिए, फीबे और सामरी स्त्री के समान, मरियम मगदलीनी के बारे में परमेश्वर के वचन में दी गई जानकारी को देखने और विश्लेषण करने से ऐसा कोई प्रमाण तो दूर की बात है, कोई भी संकेत भी नहीं मिलता है कि उसे स्त्रियों को कलीसियाओं में प्रचार करने और पास्टर बनने का समर्थन करने के लिए उदाहरण के समान उपयोग किया जा सकता है। अगले लेख में हम नए नियम से इस सन्दर्भ में प्रभु की कुछ और महिलाओं के बारे में देखेंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

- क्रमशः


कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

**************************************************************************

According to the Bible, Do Women Have the Permission to Serve as Pastors and Preach from the Pulpit in the Church?

 

Part 12 – Analysis of Examples of Women of the New Testament – 3 – Mary Magdalene

 

    In the previous two articles we have seen and analyzed the information given in God’s Word about two women, Phoebe and the Samaritan woman, who are often cited as examples to justify that God’s Word permits women to preach in the Churches and to become Pastors. We have seen that a proper consideration and an analysis of the information given about them in God’s Word does not in any way justify this notion, and can in no way be used to show the notion to be Biblically correct. Today we will consider the example of another woman of the New Testament, Mary Magdalene, who is similarly wrongly shown to justify the false and unBiblical notion of women preaching in the Churches and becoming Pastors.


    Some people misinterpret and misapply the Lord Jesus’s instruction to Mary Magdalene, in John 20:17 to justify this notion. They claim that this verse shows that the first “preacher” the Lord sent after His resurrection was a woman, therefore there should be no problems with women preaching in the Churches. Again, this is a deliberate attempt to twist and contort God’s Word to make it appear to support a pre-conceived idea. Here notice some things:

·        Firstly, this conversation between the Lord and Mary occurred in the garden where the tomb was in which Lord Jesus had been laid, and not in any place of worship.

·        Secondly, the Lord sent her to “My brethren”, i.e., His disciples, as is clear from the next verse; not into all of Jerusalem or Israel or to the ends of the world to preach.

·        Thirdly, the “brethren” were gathered together and hiding from the Jews and Romans in a room, not in any place of worship; and that is where Mary was sent.

·        Fourthly, Mary was sent by the Lord with a specific one-line message, “…but go to My brethren and say to them, 'I am ascending to My Father and your Father, and to My God and your God.'” She was not even instructed to say that go and tell them that He is alive now, i.e., anything related to the Gospel that was to be preached in the days to come. And the very next verse, John 20:18, affirms that Mary did just that – told the disciples (not anybody else, or anywhere else) just what the Lord has told her to say.

·        Fifthly, neither prior to this incidence, nor after Mary’s conversation with the Lord, did Mary ever have any position of any authority or the right to preach amongst the Lord’s disciples.


    Moreover, there is no way the Lord was going to contradict Himself. The instructions to the disciples to go and preach the gospel was to come some days later, and they were meant to go and do it only after they had been empowered by the Holy Spirit (Acts 1:4, 5, 8); which was to happen only after the ascension of the Lord to heaven. So, how could the Lord do things any differently here for Mary? To say that this incidence shows that the Lord sent her as the first “preacher of the gospel”, is to imply that the Lord Jesus contradicted Himself, and is to bring in a contradiction in the Word of God, which shows that this is a subtle satanic ploy to corrupt and subvert God’s Word.


    Consider Mary’s conversation with the Lord, as recorded in John 20; Mary had neither been empowered by the Holy Spirit, nor had been given the responsibility to say anything to anyone except to the Lord’s disciples, and to say only what the Lord has told her to say. In this record, she did not preach the gospel, nor anything from the Scriptures – neither to the disciples, nor to anyone else. She only carried the Lord’s short message, from the garden to the disciples present in a particular room. In any case, the disciples did not need the gospel being preached to them? So, why should this message be called “the first gospel message” conveyed by the Lord. This is another subtle, underhand way of implying that the disciples were still not saved, they needed the gospel to be preached to them – how absurd! If over three years of living and learning first hand and practically from the Lord Jesus could not save them, what else would?


    Moreover, if they had not been saved yet, and Mary’s message was the gospel being sent to them, then is their any record of their repenting and submitting to the Lord after listening to Mary’s message? Does the content of the message sent by the Lord in anyway support this presumption? Did the Lord ever refer to this and say anything like, “Now that you have repented and submitted yourselves to me, I can send you out to preach the Gospel”? Would the Lord train and prepare unsaved, unregenerated people for the ministry for over three years, and assume that they will repent and be saved after His resurrection? If this was feasible, then why should we or anyone preach repentance and acceptance of the Lord before the Lord can use them for His ministry? Why not simply say, learn the Bible, and if the Lord wants to use you, He will have you ‘saved’; does this make any sense? Through these implications, can you appreciate how Satan through creating a seemingly simple and inconsequential misunderstanding and misapplication of God’s Word, brings in very subtle but disastrous things to undermine God’s Word to render it ineffective and erroneous.


    Later, as the disciples went out for preaching and Church planting ministry, we never hear anything being mentioned about Mary and the message she brought. Neither she, nor any other woman was ever a part of those sent out to preach the gospel, not even locally, in Jerusalem, not even in any place of worship anywhere in or around their place of residence. So, once again, like for Phoebe and the Samaritan woman, the consideration and analysis of the information given in God’s Word about Mary Magdalene does not in any way even remotely indicate, let alone support her being an example to use to justify woman preaching in Churches and being Pastors. In the next article we will read about some more of God’s women from the New Testament in this context.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

- To Be Continued


Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें