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शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

The Law & Salvation / व्यवस्था और उद्धार – 37 – Law & Life / व्यवस्था और जीवन – 1

 

क्या व्यवस्था जीवन दे सकती है? – 1

 

    व्यवस्था और उद्धार से संबंधित बातों को देखने, और यह समझने के बाद कि क्यों व्यवस्था मनुष्यों को उद्धार नहीं दे सकती है, अभी हमारे सामने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न शेष हैं। पहला है कि यदि उद्धार व्यवस्था के पालन से नहीं है, तो फिर पुराने और नए नियम में व्यवस्था द्वारा जीवन मिलने की बात क्यों कही गई? और दूसरा है तो फिर व्यवस्था के दिए जाने का क्या उद्देश्य है? और तीसरा प्रश्न है कि आज हम मसीही विश्वासियों, प्रभु के लोगों के लिए, क्या व्यवस्था की कोई उपयोगिता अथवा भूमिका है? आज हम इनमें से पहले प्रश्न, व्यवस्था के द्वारा जीवन मिलने को देखना आरंभ करेंगे।


    व्यवस्था, जिसके पालन के द्वारा जीवन मिलने की बात कही गई है, उसके विषय पहले हमें इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि व्यवस्था क्या है। व्यवस्था क्या है, यह हमें मत्ती 22:35-40 में प्रभु यीशु की व्यवस्थापक से हुए बातचीत, और उस बातचीत के निष्कर्ष से पता चलता है। जैसा हम एक आरंभिक लेख में देख चुके हैं, प्रभु यीशु ने स्वयं हमारे लिए परिभाषित किया है कि परमेश्वर की व्यवस्था कोई रीति-रिवाज़, धर्म, पर्वों और परंपराओं आदि का पालन करना नहीं है। वरन, व्यवस्था परमेश्वर और मनुष्यों के साथ हमारे संबंध, समर्पण, और व्यवहार को निर्धारित और निर्देशित करने वाले परमेश्वर के नियम हैं। इन में सबसे ऊपर, सबसे बढ़कर परमेश्वर के प्रति संपूर्ण समर्पण और आज्ञाकारिता, तथा मनुष्यों के प्रति खरा प्रेम है, व्यवस्था इनका परमेश्वर की आज्ञाकारिता में सही निर्वाह है। और यही रोमियों 13:8-10 में भी परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा कहा गया है। व्यवस्था के विषय यह एक आम, किन्तु बिलकुल गलत धारणा है कि पुराने नियम में, विशेषकर मूसा की पहली पाँच पुस्तकों में दिए गए रीति-रिवाजों का पालन करने, पर्वों को मनाने, भेंटो और बलिदानों को उनके निर्धारित समय और विधि के अनुसार चढ़ाने को ही लोग व्यवस्था का अर्थ और व्यवस्था का पालन करना मान लेते हैं। लेकिन पुराने नियम ही में लिखा गया है कि इन रीति-रिवाजों, पर्वों, भेट-बलिदानों आदि के निर्वाह की केवल औपचारिकता पूरी कर लेने के द्वारा न तो परमेश्वर प्रसन्न होता है और न ही अनन्त जीवन मिल सकता है (यशायाह 1:12-20)।


प्रभु यीशु मसीह ने अनन्त जीवन का मार्ग जानने के लिए उसके पास आए हुए धनी जवान से कहा था, “... पर यदि तू जीवन में प्रवेश करना चाहता है, तो आज्ञाओं को माना कर” (मत्ती 19:17); अर्थात, प्रभु यीशु मसीह के अनुसार, आज्ञाओं के पालन से जीवन में प्रवेश मिल सकता है। प्रभु उस व्यक्ति से जिन आज्ञाओं के पालन की बात कर रहा था, वे पुराने नियम में दी गई परमेश्वर की व्यवस्था के एक भाग, दस आज्ञाओं, के पालन के बारे में है। न केवल यहाँ पर प्रभु यीशु मसीह ने, लेकिन पुराने नियम में परमेश्वर ने भी कहा है कि उसके नियम और विधियाँ मानने से उसके लोग जीवित रहेंगे (लैव्यव्यवस्था 18:5; नहेम्याह 9:29; यहेजकेल 20:11; आदि)। और इसकी पुष्टि नए नियम में पवित्र आत्मा ने पौलुस प्रेरित द्वारा भी करवाई है (रोमियों 10:5)। वचन की इन बातों के कारण, यहाँ एक विरोधाभास की सी स्थिति प्रतीत होती है। इस विरोधाभास को समझने और सुलझाने के लिए हम अगले लेख में वचन से कुछ संबंधित बातों को देखेंगे, कि वचन के अनुसार जीवन क्या है, और जीवन में प्रवेश करना, या, जीवन पा लेना से क्या अर्थ है


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation

Can The Law Give Life? – 1

 

    Having seen the things related to the Law and salvation, and having understood why the Law cannot save us, we still have some important questions to clarify. The first is that if salvation is not through the observance of the Law, then why do the Old and New Testaments talk of receiving life through the Law? The second, what is the purpose of giving the Law? And the third question is, for us Christians, the people of the Lord, today does the law have any utility or role? Today we'll begin to look at the first of these questions, the receiving of life through the Law.


    Before understanding this, it is necessary to recall and keep in mind what is the Law, about which it has been said that if obeyed, it gives life. We learn what the Law is from the Lord Jesus' conversation with the Scribe in Matthew 22:35-40, and from the conclusion of this conversation. As we saw in an earlier article, the Lord Jesus Himself has defined for us that the Law of God is not the observance of any customs, religion, festivals and traditions, etc. Rather, the Law is God's rules defining and directing our relationship, submission, and behavior with God and man, and our having sincere love for men. Obeying the Law is obeying these instructions from God, in full submission and sincerity, in the manner God wants them obeyed. And this is again affirmed by God the Holy Spirit in Romans 13:8-10. It is a common, but absolutely erroneous belief regarding the Law, that it is the observance of the customs set forth in the Old Testament, especially in the first five books of Moses; that it is to observe festivals, to offer gifts and sacrifices at the prescribed time and in the given manner. People assume this to be the meaning of the Law and fulfill the law accordingly. But it is written in the Old Testament itself that God can neither be pleased by man’s fulfilling these rituals, festivals, offerings, etc. as a mere formality, nor can eternal life be obtained by their ritualistic formal observation (Isaiah 1:12–20).


    The Lord Jesus Christ told the rich young man who came to him to know the way to eternal life, “… but if you want to enter life, keep the commandments” (Matthew 19:17); i.e., according to the Lord Jesus Christ, obedience to the commandments can lead to entry into life. The commandments that the Lord was referring to here for obedience, to this person, are the Ten Commandments, a part of God's Law in the Old Testament. Not only did the Lord Jesus Christ here, but God also said in the Old Testament that obeying His Laws and statutes would give life to His people (Leviticus 18:5; Nehemiah 9:29; Ezekiel 20:11; etc.). And this is also affirmed by the Holy Spirit in the New Testament through the apostle Paul (Romans 10:5). Because of these points of Scripture, there seems to be a contradiction here. To understand and resolve this contradiction, we will look at some of the relevant and related things from the Scripture in the subsequent articles. We will see what, according to the Scripture is life; and what it means to enter into, or, receive life.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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