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मंगलवार, 12 सितंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 17 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 3

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बाइबल के स्वरूप के निहितार्थ – 2

 

    हमने पिछले लेख में देखा था कि चाहे पुराने नियम के समय में हो अथवा नए नियम के, परमेश्वर का लोगों के साथ वार्तालाप करने का तरीका उसके द्वारा चुने गए कुछ लोगों में होकर करना ही रहा है। उसने नबियों, प्रेरितों, तथा कुछ अन्यों से सीधे बोल कर बातें कीं, उन से दर्शनों और स्वप्नों के द्वारा बातें कीं। फिर इन लोगों ने परमेश्वर की ओर से, परमेश्वर के सन्देश को, सँसार के लोगों तक पहुँचाया। परमेश्वर पवित्र आत्मा ने इन चुने हुए लोगों को प्रेरित किया और उनसे उन बातों को लिखवाया जो परमेश्वर ने उन से कही थीं। पवित्र आत्मा ही की अगुवाई में इन लेखों को एकत्रित एवं संकलित किया गया, जो अब हमारे हाथों में पूर्ण बाइबल के रूप में है – जो परमेश्वर का अनन्तकालीन, बिना किसी गलती वाला, अटल, अपरिवर्तनीय, सिद्ध और सम्पूर्ण वचन है जो अनन्त काल के लिए स्वर्ग में स्थापित है।


    तो, हम बाइबल के इतिहास से देखते हैं कि कुछ डिनॉमिनेशंस द्वारा किए जाने वाले दावों और सामान्य प्रचलित धारणाओं के विपरीत, परमेश्वर ने उन सब से जो उसके नाम से जाने जाते हैं, न तो सीधे बोल कर बातें कीं, और न ही उन सभी को अपने बारे में दर्शन दिए या सभी से स्वप्न में कुछ कहा, वरन केवल कुछ ही लोगों को इसके लिए उपयोग किया। इसलिए वर्तमान में लोगों द्वारा सीधे परमेश्वर से सन्देश, दर्शन, या स्वप्न प्राप्त करने का दावा करना, और वह भी उन बातों के बारे में जो बाइबल में दी ही नहीं गई हैं, और फिर योएल 2:28 और उसके जैसे बाइबल के पदों के द्वारा अपने आप को सही ठहराने के तर्क देना, परमेश्वर के वचन का दुरुपयोग करना है, क्योंकि परमेश्वर कभी भी उस वचन के बाहर या अतिरिक्त, जो वह पवित्र शास्त्र में दे चुका है, कभी कुछ नहीं कहेगा या देगा।


    यह सम्पूर्ण और संकलित वचन अनन्त काल के लिए स्वर्ग में स्थिर रखा गया है (भजन 119:89); और परमेश्वर ने अपने इसी वचन को अपने बड़े नाम से भी अधिक महत्व दिया है (भजन 138:2)। उसने अपने वचन बाइबल में पहले से ही न केवल जीवन और भक्ति से संबंधित हर बात दे दी है; वरन साथ ही सँसार की सड़ाहट से बचाने तथा ईश्वरीय स्वभाव के संभागी होने का मार्ग भी दे दिया है (2 पतरस 1:3-4)। इसलिए, बाइबल में होकर परमेश्वर ने पहले से ही हमें उसके बारे में सीखने, उसके सम्मुख आने, उसे और उसकी इच्छा को जानने, उससे संपर्क एवं वार्तालाप करने, अपने जीवन और मार्गों का आकलन करने के माप दण्ड, कि हमारा जीवन हमारे लिए परमेश्वर की इच्छा के अनुसार है कि नहीं, सब कुछ हमें पहले से ही दे दिया है। इसलिए, इसका तात्पर्य यही है कि अब इन बातों के बारे में परमेश्वर को किसी को भी कोई नए संदेश अथवा दर्शन देने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह सभी कुछ बाइबल में पहले से ही उपलब्ध है। किन्तु यदि अब भी परमेश्वर को जीवन और भक्ति से संबंधित तथा संसार की सड़ाहट से बचने और ईश्वरीय स्वभाव के संभागी होने के लिए, किसी को कोई नए संदेश अथवा दर्शन देने पड़ते हैं, तो इसका यही अर्थ हुआ कि उसने जो 2 पतरस 1:3-4 में लिखवाया है वह सही नहीं है – अर्थात, या तो परमेश्वर ने झूठ बोल, या फिर, परमेश्वर के वचन में गलतियाँ हैं और वह पूर्ण नहीं है, अभी भी उसमें नए दर्शनों और संदेशों के द्वारा और बातें डाले जाने की आवश्यकता है। क्योंकि परमेश्वर कभी झूठ बोल ही नहीं सकता है (गिनती 23:19; 1 शमूएल 15:29; इब्रानियों 6:18), और परमेश्वर का वचन जो प्रभु यीशु मसीह का एक स्वरूप है न तो गलत हो सकता है और न ही अपूर्ण; इसलिए जो बात गलत है, जिस पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए, न ही कभी उसे स्वीकार करना चाहिए, वह है वे दावे जो यह दर्शन और भविष्यवाणियाँ प्राप्त करने का दिखावा करने वाले प्रचार करते हैं, सिखाते हैं; और अकसर उनके बातें न केवल बाइबल के बाहर की होती हैं, बल्कि शायद ही कभी पूरी भी होती हैं। और परमेश्वर के वचन के साथ यह छेड़-छाड़, उसका दुरुपयोग एवं अनादर करना है, अर्थात परमेश्वर का अनादर, उसके साथ दुर्व्यवहार करना है।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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Implications of Nature of The Bible - 2

 

    We saw in the previous article that whether in the times of the Old Testament, or of the New, God’s method of communicating with the world was through His few chosen people, the Prophets, the Apostles, and some others, by speaking to them or through visions and dreams. These people then, on God’s behalf, would convey God’s message to the world. God the Holy Spirit had inspired these chosen people of God write down what God communicated to and through them. These writings were compiled under the guidance of the Holy Spirit to give us what we now have as the complete Bible – God’s eternal, inerrant, infallible, unalterable, perfect and complete Word, forever settled in heaven for all eternity.


    So, we see from the history of God’s Word that unlike a popular perception and claim by people of some denominations, God did neither spoke with, nor gave visions and dreams about Himself and what He wanted to communicate, to everybody known by His name, but only to a select few; whether in the Old Testament or the New Testament times. Therefore, for people to nowadays claim receiving direct spoken communication, dreams, visions, from God, and that too about things not already mentioned in the Bible, and then wanting to justify it on the basis of Joel 2:28 is misusing the Scriptures because God will never speak or say anything outside of what He has already given in the Scriptures.


    This completed and compiled Word of God is kept in heaven for all eternity (Psalm 119:89); and God has given more importance to this His Word, than even to His name (Psalm 138:2). In His Word, The Bible, He has already given to us not only everything that pertains to life and godliness; but also the way to escape the corruptions of the world; and become partakers of the divine nature (2 Peter 1:3-4). Therefore, in the Bible, God has given us a complete package to learn about Him, approach Him, know Him, know His will, communicate with Him, evaluate and measure our life and our ways to check if they are in accordance with what God wants from us. Therefore, the implications is that now there is no need for God to give anyone any fresh or new messages or visions about these things, since they have already been made available in the Bible. If still God has to give any new revelations about things pertaining to life and godliness, escaping corruption from the world and being partakers of the divine nature, then that means what was said by Him in 2 Peter 1:3-4 was incorrect – God either lied, or, the Word of God is neither correct nor complete, it still needs to be supplemented with fresh revelations. Since God cannot lie (Numbers 23:19; 1 Samuel 15:29; Hebrews 6:18), and God’s Word being a physical form of the Lord Jesus cannot be incorrect or incomplete, therefore, the only thing incorrect that should neither be believed nor accepted, is the claim made by those who show-off, preach, and teach receiving such revelations and prophesies, that usually never come to pass and are often extra-Biblical. So, this tampering with God’s Word, is misusing and insulting God’s Word; i.e., is insulting God and maltreating Him.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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