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गुरुवार, 16 नवंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 82 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 11


पवित्र आत्मा – हमेशा हमारे साथ - 3

 

    जैसा प्रभु ने यूहन्ना 14:16 में कहा था, परमेश्वर ने प्रत्येक मसीही विश्वासी को पवित्र आत्मा दिया है, ठीक उसी पल से जब उसने अपने पापों से पश्चाताप कर के प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार किया; उन्होंने उसे अपनी किसी विधि से पाया या कमाया नहीं है। मसीही विश्वासियों को उन्हें परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए पवित्र आत्मा के योग्य भण्डारी होना है। हमने यूहन्ना 14:16 से देखा है कि पवित्र आत्मा विश्वासी का सहायक और साथी है, और हमेशा ही विश्वासियों के साथ बने रहने के लिए दिया गया है। हमने देखा है कि मसीही विश्वासी की देह को पवित्र आत्मा का मन्दिर कहा गया है, और यह कि विश्वासी अब अपना नहीं है वरन परमेश्वर का हो गया है (1 कुरिन्थियों 3:16; 6:19-20), और इन बातों के व्यावहारिक उपयोग पर भी विचार किया है। आज हम विश्वासी के परमेश्वर का होने, पवित्र आत्मा का मन्दिर होने के व्यवहारिक उपयोग के बारे में, विश्वासी की इस ज़िम्मेदारी के बारे में देखेंगे।


    प्रभु यीशु मसीह ने यूहन्ना 14:16 में कहा कि पवित्र आत्मा विश्वासियों में हमेशा बना रहेगा। इस पर थोड़ा विचार कीजिए; क्योंकि वह हमेशा प्रभु के शिष्य में, मसीही विश्वासी में होगा, इसलिए विश्वासी जहाँ भी जाएगा, प्रभु का शिष्य जो भी करेगा, वह जो भी सोचेगा, देखेगा, सुनेगा, उन सभी बातों में पवित्र आत्मा हमेशा उसके साथ होगा – वे बातें चाहे शारीरिक हों, या मानसिक, अथवा उसके हृदय में हों। इसलिए अगली बार जब भी प्रभु के किसी शिष्य को कुछ भी ऐसा जो गलत है सोचने, करने, सुनने, देखने, या उसमें संलग्न होने का प्रलोभन हो, तब इस तथ्य को स्मरण करना, कि पवित्र आत्मा हमेशा उसके साथ है, उसमें निवास कर रहा है, और न चाहते हुए भी पवित्र आत्मा को भी उसी सब का अनुभव करना पड़ेगा जो विश्वासी कर रहा है, विश्वासी के लिए किसी भी अनुचित बात में पड़ने से बचने में बहुत सहायक होगा।


    क्योंकि, न चाहते हुए भी, ज़बरदस्ती ही, पवित्र आत्मा को भी वह सब सहना पड़ता है जो विश्वासी अपने हृदय में, मन-मस्तिष्क में, शरीर में हो लेने देता है, इसीलिए विश्वासियों को सचेत किया गया है कि वे सुनिश्चित करें कि वे अपने जीवन के द्वारा पवित्र आत्मा को शोकित न करें (इफिसियों 4:30; यहाँ पर ध्यान कीजिए कि पद 29-32 विश्वासियों के बोलने और व्यवहार से संबंधित हैं, तात्पर्य यह है कि कोई भी असभ्य या अनुचित भाषा और व्यवहार पवित्र आत्मा को शोकित करेगा)। विश्वासी को उस के प्रति संवेदनशील और उसका आज्ञाकारी बने रहना है (गलातियों 5:16, 25), और उस से सीखना है (यूहन्ना 14:26; 1 कुरिन्थियों 2:12-13) कि अपने जीवन को कैसे संचालित करे, अपने विश्वास तथा अपने उद्धारकर्ता का गवाह कैसे बने।


    साथ ही, क्योंकि मसीही विश्वासी अब अपना नहीं रहा है वरन परमेश्वर का हो गया है, इसलिए अपनी देह और आत्मा के द्वारा, जैसा कि 1 कुरिन्थियों 6:20 में लिखा है, अब उसके पास उसे जो भी सही या उचित लगे उसे करने का अधिकार नहीं है। बल्कि, उसे अब हर बात परमेश्वर की इच्छा में होकर, उसी की आज्ञा के अनुसार, उसे स्वीकार्य रीति से करनी है। विश्वासी के कुछ भी करने, सोचने, योजना बनाने, इच्छा रखने, आदि का उद्देश्य परमेश्वर को महिमा देना होना चाहिए, अपने जीवन, विचारों, लालसाओं, और कार्यों के द्वारा। परमेश्वर को महिमा देने का अर्थ है अपने जीवन के द्वारा, संसार के सामने उसे ऊँचे पर उठाना, उसे आदर देना, उसे महिमित करना; क्योंकि उसी ने विश्वासी को कुछ भी कर पाने, कुछ भी प्राप्त करने, कोई भी ख्याति पाने की योग्यता, संसाधन, और सामर्थ्य प्रदान की है (व्यवस्थाविवरण 8:18; नीतिवचन 10:22), यह विश्वासी की अपनी किसी क्षमता से नहीं है। यदि मसीही विश्वासी अपनी देह और आत्मा के द्वारा परमेश्वर को महिमा नहीं दे रहा है, तो वह परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता कर रहा है, और प्रभु का शिष्य होने की अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर रहा है।


    अगले लेख में हम परमेश्वर पवित्र आत्मा के अन्य पक्ष के बारे में सीखेंगे, कि वह सत्य का आत्मा है।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Holy Spirit – Always With Us – 3

 

    As the Lord had promised in John 14:16, God has given His Holy Spirit to every Christian Believer, from the moment of his repenting of his sins and accepting the Lord Jesus as his savior. Therefore, the Christian Believers are also to be worthy stewards of the Holy Spirit, given to them by God; not that they have earned or acquired Him in any other way. We have seen from John 14:16 that the Holy Spirit is the Believer’s Helper or Companion, and is there to always stay with the Believers. We have seen that the body of the Christian Believer has been called the Temple of the Holy Spirit, and the Believer is no longer his own but belongs to God (1 Corinthians 3:16; 6:19-20), and have considered the applications of these things. Today we will consider the practical application, the responsibility of the Believer belonging to God and not being his own, and of being the Temple of the Holy Spirit.


    The Lord Jesus said in John 14:16 the Holy Spirit will always be with His disciples. Think it over, since He is always in the disciple, with the Believer, therefore, wherever the Lord’s disciple goes, whatever the Believer does, whatever he thinks, sees, or hears, God the Holy Spirit is always there with him, in whatever he is indulging in - whether physical, or mental, or in his heart. So, the next time a disciple of the Lord, the Believer is tempted to think, do, see, hear, or be involved in anything wrong, then recalling this fact, that the Holy Spirit is always with him, is residing in him and so will unwillingly be experiencing the same as the Believer is experiencing, would help him tremendously to stay away from anything that is inappropriate for him.


    Since the Holy Spirit, per force, also has to suffer whatever the Believers allow in their hearts and minds, and indulge in through their bodies; therefore, the Believers have been cautioned to make sure they do not grieve the Holy Spirit (Ephesians 4:30; here note that verses 29-32 are about the language and behavior of Believers, implication being that any inappropriate language and behavior also grieves the Holy Spirit). The Believer is to remain sensitive and obedient to Him (Galatians 5:16, 25), and to learn from Him (John 14:26; 1 Corinthians 2:12-13) how to conduct his life, be witnesses of his faith and of his savior Lord.

Moreover, since the Christian Believer now belongs to God, is no longer his own therefore, in his body as well as spirit, as is written in 1 Corinthians 6:20, he no longer has the authority to indulge himself in whatever he feels appropriate. Rather, rather he now has to live not for himself but for the Lord (2 Corinthians 5:15). The Believer is to do everything in the will of God, as He commands, with His permission and acceptance. The purpose of whatever the Believer does, says, thinks, plans, desires, etc., has to be to glorify God through his life, thoughts, desires, and deeds. To glorify God is to bring glory and honor to Him, to exalt Him in and through our lives, before the world, since it is He who has given us the ability, resources and the power to achieve and acquire everything (Deuteronomy 8:18; Proverbs 10:22), it is not through any self-ability of the Believer. If a Christian Believer is not glorifying God in his body and spirit, he is disobeying God and not fulfilling his responsibility of being a disciple of the Lord.


    In the next article we will learn about another aspect of God the Holy Spirit – His being the Spirit of truth.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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