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शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 83 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 12


पवित्र आत्मा – सत्य का आत्मा – 1

 

    इस श्रृंखला में हम मसीही विश्वासी के परमेश्वर द्वारा उसे दिए हुए के योग्य एवं भले भण्डारी होने के बारे में अध्ययन कर रहे हैं; हमारा वर्तमान विषय है विश्वासी का परमेश्वर पवित्र आत्मा का भण्डारी होना। परमेश्वर द्वारा पवित्र आत्मा उसके प्रत्येक विश्वासी, प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए संतान को उसी समय दे दिया जाता है जब वह अपने पापों से पश्चाताप करता है, प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करता है, और अपना जीवन उसे समर्पित कर देता है। पवित्र आत्मा विश्वासी का सहायक और साथी है, मसीही विश्वास के उसके जीवन में उसकी सहायता और मार्गदर्शन करने के लिए, ताकि वह परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई का ठीक से निर्वाह कर सके, और उस सेवकाई के लिए परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए संसाधनों का सही उपयोग कर सके। इसलिए प्रत्येक मसीही विश्वासी को यह पता होना चाहिए कि परमेश्वर पवित्र आत्मा की सहायता और मार्गदर्शन सही रीति से किस प्रकार ली जाए; बजाए उसके बारे में अनजाने रहने, लापरवाह होने, या उसके नाम में मनमानी रीति से कुछ भी कहने और करने के।


    प्रभु यीशु ने, उनके क्रूस पर चढ़ाने के लिए पकड़वाए जाने से पहले, शिष्यों के साथ अपने अंतिम वार्तालाप में, शिष्यों के जीवनों में पवित्र आत्मा की सेवकाई के बारे में उन्हें सिखाया था। प्रभु की ये शिक्षाएँ हमारे लिए यूहन्ना 14 से 16 अध्याय में लिखी गई हैं। इस खंड में से, पिछले कुछ लेखों में हम यूहन्ना 14:16 में से पवित्र आत्मा के विश्वासी का सहायक और साथी होने, न कि उसके स्थान पर उसका विकल्प होकर काम करने वाला होने के बारे में; और पवित्र आत्मा के सर्वदा विश्वासी में निवास करने – विश्वासी का पवित्र आत्मा का मन्दिर होने के बारे में, और इन बातों के परिणामस्वरूप जो ज़िम्मेदारियाँ मसीही विश्वासी पर आती हैं, उनके बारे में देखते आ रहे हैं। आज से हम यूहन्ना 14:17 से परमेश्वर पवित्र आत्मा के कुछ अन्य पक्ष देखना आरम्भ करेंगे, जिस से कि हम सीख सकें कि वह कब और कहाँ पर विश्वासी का सहायक और साथी होगा, और किन बातों के बारे में विश्वासी को यह आशा नहीं रखनी चाहिए, यूँ ही नहीं मान लेना चाहिए कि वह जो सोच रहा है, जो योजना बना रहा है, जो कर रहा है, उसमें पवित्र आत्मा उसके साथ सम्मिलित होगा।


    प्रभु ने यूहन्ना 14:17 में पवित्र आत्मा के बारे में कहा, “अर्थात सत्य का आत्मा, जिसे संसार ग्रहण नहीं कर सकता, क्योंकि वह न उसे देखता है और न उसे जानता है: तुम उसे जानते हो, क्योंकि वह तुम्हारे साथ रहता है, और वह तुम में होगा।” यहाँ पर हम प्रभु द्वारा तीन बातें कही गई देखते हैं:

1.   वह सत्य का आत्मा है

2.   संसार उसे ग्रहण नहीं कर सकता है, क्योंकि वह न उसे देखता है और न उसे जानता है

3.   प्रभु के शिष्य उसे जानते हैं, क्योंकि वह उनके साथ रहता है और उनमें निवास करेगा

हम इन में से अंतिम बात को देख चुके हैं, इसलिए हम अब प्रभु द्वारा कही गई पहली दो बातों को देखेंगे; और आज से पहली बात से आरम्भ करेंगे।


    1. वह सत्य का आत्मा है। तीन बार, यूहन्ना 14, 15, और 16 अध्यायों में, जहाँ प्रभु यीशु ने पवित्र आत्मा के बारे में शिक्षा दी है, पवित्र आत्मा को “सत्य का आत्मा” कहा गया है, यूहन्ना 14:17; यूहन्ना 15:26; और यूहन्ना 16:13 में। प्रभु यीशु द्वारा एक विशिष्ट बात के लिए बल देकर और दोहरा कर यह कहना, अभिप्राय देता है कि यह बहुत महत्वपूर्ण बात है; ऐसी, जिसे पवित्र आत्मा से संबंधित किसी भी बात के सन्दर्भ में, न तो हलके में लिया जा सकता है और न ही जिस की अनदेखी की जा सकती है। इस बात को स्पष्ट समझ लेना, उसे अच्छे से याद कर लेना, और नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी के द्वारा मसीही जीवन के हर पक्ष में इस का हमेशा पालन करना अति आवश्यक है। यह करना अनिवार्य है, क्योंकि जैसा ऊपर कहा गया है, मसीही विश्वासी के जीवन और सेवकाई का प्रभावी एवं सफल होना उसे उपलब्ध पवित्र आत्मा की सामर्थ्य पर ही निर्भर करता है। साथ ही, जैसा कि अगले लेख में समझाया और स्पष्ट किया गया है, इस बात से हल्का सा भी हटना या उसके साथ ज़रा सा भी समझौता करना, मसीहियत की बुनियाद को ही झकझोर कर रख देगा।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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Holy Spirit – The Spirit of Truth – 1

 

    In this series we are studying the Christian Believer being a worthy steward of all that God has given to him; presently our topic is the Believer being steward of God the Holy Spirit. The Holy Spirit is given by God to each and every Believer, His Born-Again child, from the moment of his repenting of sins, accepting the Lord Jesus as his savior, and surrendering his life to Him. The Holy Spirit is the Believer’s Helper and Companion, to help and guide him in his life of Christian faith, in carrying out his God assigned ministry, and in utilizing his God-given resources to carry out that ministry. Therefore, the Believer ought to know how to worthily utilize the help and guidance of God the Holy Spirit; instead of being ignorant, or presumptive and casual about saying or doing anything about Him.


    The Lord Jesus, before His being caught and taken for crucifixion taught about the ministry of the Holy Spirit in their lives to the disciples in His final discourse with them. Lord’s teachings about this are recorded for us in John’s gospel, chapters 14 to 16. From this section, in the previous few articles we have seen from John 14:16 about the Holy Spirit being the Believer’s Helper and Companion, and not his substitute; about the Holy Spirit residing in the Believers always – the Believer being the Temple of the Holy Spirit, and consequently what responsibilities these Biblical facts place upon the Believer. From today we will start learning from John 14:17, some other aspects of God the Holy Spirit, so we know where and how He will be of help and be a companion for the Believer, and for what the Believer cannot assume or expect Him to be associated with what he is thinking, planning, or doing.


    The Lord, in John 14:17, says about God the Holy Spirit that, “the Spirit of truth, whom the world cannot receive, because it neither sees Him nor knows Him; but you know Him, for He dwells with you and will be in you.” We see three things stated here by the Lord Jesus about the Holy Spirit:

1.   He is the Spirit of truth.

2.   The world cannot receive Him, because it neither sees Him nor knows Him.

3.   The disciples of the Lord know Him, for He dwells with them and will reside in them.

Of these, the last one we have already considered, so now we will be looking at the first two aspects stated by the Lord Jesus about Him; and we will start with the first aspect today.


    1. He is the Spirit of Truth. Three times in John chapters 14, 15, 16, wherein the Lord Jesus taught the disciples about the Holy Spirit, the Holy Spirit has been called "the Spirit of Truth", in John 14:17; John 15:26; and John 16:13. This repetitive emphasis by the Lord Jesus upon a particular aspect, implies its being of great significance, one that cannot be taken lightly or ignored in anything to do with the Holy Spirit. This needs to be very clearly understood, committed to memory, and always adhered to in all aspects of Christian living of every Born-Again Christian Believer. This is mandatory, because as stated above, the Christian Believer’s life and ministry being effective and successful depends upon the power of the Holy Spirit made available to him. Moreover, as will be explained in the next article, even a slight deviation or compromise on this count will severely shake the very foundation of Christianity.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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