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गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 124 – Recapitulation / संक्षिप्त पुनःअवलोकन – 6

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पुनःअवलोकन – 6


    एक सफल और आशीषित जीवन जीने के बारे में अभी तक जो हमने 1 राजाओं 2:2-4 से सीखा है, हम उसका पुनःअवलोकन कर रहे हैं । इसके अंतर्गत, अभी हम नया जन्म पाए हुए मसीह विश्वासियों के द्वारा परमेश्वर द्वारा उन्हें दिए गए प्रावधानों, जिनमें उन में निवास करने वाला परमेश्वर पवित्र आत्मा भी सम्मिलित है, के योग्य भण्डारी होने के बारे में पुनःअवलोकन कर रहे हैं। आज हम परमेश्वर पवित्र आत्मा के बारे में आगे पुनःअवलोकन करेंगे।

    विश्वासी की जिम्मेदारी: हम यूहन्ना 14:17 से देखते हैं कि सँसार ना तो पवित्र आत्मा को जान सकता है, और ना ही उसे प्राप्त कर सकता है। लेकिन विश्वासी उसे जानते हैं, वह उन में निवास करता है, और उन्हें परमेश्वर का कार्य करने के लिए सामर्थ्य देता है ताकि वे परमेश्वर द्वारा उन्हें दी गई सेवकाई को निभा सकें। इसलिए जैसा 2 राजाओं 7:3-9 में लिखा है कि अकाल की समय में चार कोढ़ियों ने इस बात का एहसास किया कि वे बहुतायत से भोजन के उपलब्ध होने के सुसमाचार को दूसरों से छिपाए नहीं रख सकते हैं, इसी तरह से आत्मिक जीवन के अकाल के इस समय में पवित्र आत्मा के द्वारा सफल और आशीषित जीवन के उपलब्ध होने की बात लोगों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी भी नया-जन्म पाए हुए मसीह विश्वासी की है।

    पवित्र आत्मा प्राप्त करना: बाइबल हमें सिखाती है कि परमेश्वर अपने बच्चों को अपना पवित्र आत्मा उन का नया-जन्म होते ही, जैसे ही वो प्रभु यीशु में विश्वास करते हैं, उसे अपना उद्धारकर्ता ग्रहण करते हैं, तुरंत ही और स्वतः ही दे देता है (प्रेरितों 19:2; 1 कुरिन्थियों 12:3; गलतियों 3:2, 14; इफिसियों 1:13)। बाइबल यह भी स्पष्ट सिखाती है कि पवित्र आत्मा परमेश्वर द्वारा दिया जाता है (यूहन्ना 14:16)। उसे परमेश्वर से जबरन मांगा नहीं जाता है, और ना ही किसी विशेष प्रयास के द्वारा प्राप्त किया जाता है, जैसा कि कुछ डिनॉमिनेशन और समुदाय के लोग सिखाते हैं।

    पवित्र आत्मा को देखना और जानना: पवित्र आत्मा कभी भी भौतिक या शारीरिक रूप में प्रकट नहीं होता है। वह सँसार के सामने, उसके द्वारा उन लोगों के जीवनों में लाए गए प्रभावों से प्रकट होता है, जिन में वह निवास करता है (यूहन्ना 3:8), अर्थात, मसीह के शिष्य या मसीही विश्वासी। जैसा 2 कुरिन्थियों 3:18 में लिखा है, वह धीरे-धीरे, या अंश-अंश करके विश्वासियों को प्रभु की समानता में बदलता जाता है। इसलिए, विश्वासी के जीवन में यह निरंतर चलते रहने वाला परिवर्तन इस बात का प्रमाण है कि पवित्र आत्मा वास्तविक है और उस विश्वासी के जीवन में काम भी कर रहा है।

    अन्य भाषाएँ प्रमाण नहीं है: वे लोग जो पवित्र आत्मा के बारे में गलत शिक्षाएं और सिद्धांत सिखाते हैं, वे इस बात पर बल देते हैं कि विश्वासी में पवित्र आत्मा की उपस्थिति उस के अन्य भाषाएं बोलने से प्रमाणित होती है। लेकिन बाइबल के अनुसार यह सही नहीं है, जैसा हम दो बातों से समझ सकते हैं। पहली, क्योंकि बाइबल में दी गयी अन्य भाषाएँ पृथ्वी की ही भाषाएं हैं, न की मुँह से निकाले जाने वाले निरर्थक शब्द और विचित्र आवाज़ें, जिन्हें लोग अन्य भाषा कह देते हैं। और दूसरी, बाइबल में प्रत्येक पवित्र आत्मा पाए हुए व्यक्ति ने अन्य भाषाएँ या अनजानी भाषाएं नहीं बोली हैं। पुराने नियम में किसी ने भी, कभी भी, कोई अन्य भाषा नहीं बोली। और ना ही नए नियम में उन पहले चार लोगों ने जिन्होंने पवित्र आत्मा पाया उसकी सामर्थ्य का अनुभव किया, उन्होंने भी कभी कोई अन्य भाषा नहीं बोली। इन चारों का उल्लेख लूका पहले अध्याय में है, (यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाला, लूका 1:15; मरियम लूका 1:35; इलीशिबा लूका 1:41-42; और ज़कर्याह लूका 1:67)।

    पवित्र आत्मा की उपस्थिति प्रकट करना: मसीही विश्वासी का जीवन उस में विद्यमान पवित्र आत्मा की उपस्थिति को कुछ गुणों के द्वारा प्रकट करता है, जैसे कि:

  • वह निरंतर प्रभु की समानता में बदलता चला जाता है (2 कुरिन्थियों 3:18)।

  • वह मनुष्य पर नहीं, वरन परमेश्वर पवित्र आत्मा पर परमेश्वर का वचन सीखने के लिए निर्भर रहता है (1 यूहन्ना 2:27)।

  • वह शरीर के कामों के लिए जीवन नहीं व्यतीत करता (गलतियों 5:19-21), बल्कि पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता में जीता और चलता है (गलतियों 5:16-25), और अपने जीवन में पवित्र आत्मा की 9 फलों को प्रदर्शित करता है (गलतियों 5:22-23)।

    इसलिए यदि सँसार को पवित्र आत्मा को जानना और पहचानना है, तो मसीही विश्वासी के जीवन से उपरोक्त बातें प्रकट होनी चाहिएँ। ऐसा नहीं कर पाना पवित्र आत्मा के योग्य भण्डारी नहीं होना है। अर्थात, हमारे प्रभु के द्वारा हमें दिए गए तोड़े का, पवित्र आत्मा की सहायता का, सही और उचित उपयोग नहीं करना है। अगले लेख में हम देखेंगे कि विश्वासी पवित्र आत्मा से सीखने की बजाए, सामान्यतः मनुष्यों से और उनकी रचनाओं से सीखने के पीछे क्यों जाते हैं; और साथ ही यह भी देखेंगे कि हम यह कैसे पहचान सकते हैं कि दी गई शिक्षा पवित्र आत्मा की ओर से है कि नहीं? तथा इस पुनःअवलोकन को पूर्ण करेंगे। 

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation

Recapitulation – 6

 

    We are recapitulating what we have learnt from 1 Kings 2:2-4 so far, for living a blessed and successful life. Presently, we are recapitulating about every Born-Again Christian Believer being a steward of the provisions God has given to him, including God’s Holy Spirit, to reside in him. Today we will recapitulate further about the stewardship of God the Holy Spirit.

    The Believer's Responsibility: We learn from John 14:17 that the world can neither receive the Holy Spirit, nor see or know Him. But the Believers know Him, He is with them, in them, empowers them for doing God's work, and for their God given ministry. Therefore, as in 2 Kings 7:3-9, where the four lepers at the time of famine realized they cannot keep the good news of abundant food being freely available to themselves, and it was incumbent upon them to share it with others; similarly in these times of spiritual famine the responsibility of informing about living a blessed and successful life through the Holy Spirit, lies with the Born-Again Christian Believers.

    Receiving the Holy Spirit: The Bible teaches that God automatically gives the Holy Spirit to His children the moment they come to faith in the Lord Jesus and accept Him as their Savior (Acts 19:2; 1 Corinthians 12:3; Galatians 3:2, 14; Ephesians 1:13). The Bible also clearly teaches that the Holy Spirit is given by God (John 14:16). He is not demanded from God, nor obtained through any special efforts, as some denominations and groups would have people to believe.

    Seeing and knowing the Holy Spirit: The Holy Spirit never manifests in a physical form. He is made evident to the world by His effects in the life of those in whom He resides, i.e., the disciples of Christ or the Believers (John 3:8). As is written in 2 Corinthians 3:18, He gradually changes the Believers into the likeness of the Lord. Hence, this continual progressive change in the life of the Believer provides evidence of the Holy Spirit being real and working in a Believer's life.

    Tongues is not the Proof: Those who teach wrong things and doctrines about the Holy Spirit, insist that the proof of the Holy Spirit is the recipient's speaking in tongues. But this is not Biblically true for two reasons, firstly, because Biblical "tongues'' are earthly languages, not gibberish - vain meaningless sounds which these people utter, calling them "tongues''; and secondly, not everyone who received the Holy Spirit in The Bible, spoke in tongues, i.e., unknown languages. No one in the Old Testament did, and the first four persons filled and empowered by the Holy Spirit in the New Testament, all in Luke chapter 1, never ever spoke in tongues (John the Baptist Luke 1:15; Mary Luke 1:35; Elizabeth Luke 1:41-42; Zacharias Luke 1:67).

    Manifesting the Presence of the HS: The life of a Christian Believer manifests the presence of the Holy Spirit in him, through certain characteristics:

  • He progressively keeps changing into the likeness of the Lord (2 Corinthians 3:18).

  • He depends upon the Holy Spirit, not man, to learn the Word of God (1 John 2:27).

  • He does not live for the works of the flesh (Galatians 5:19-21); but lives and walks in obedience to the Holy Spirit (Galatians 5:16, 25), exhibiting the 9 fruits of the Spirit (Galatians 5:22-23) in his life.

    So, if the world has to see and know the Holy Spirit through a Christian Believer, then the Believer's life has to manifest the above. Not doing so is being a poor steward of the Holy Spirit given to us - i.e., the talent given by the Master, is not being put to proper use by His servant, the Holy Spirit is not being utilized worthily. In the next article we conclude this recapitulation by reviewing why Believers usually go for learning from men and their works, instead of learning from the Holy Spirit; and how we can discern whether a particular teaching is from the Holy Spirit or not.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

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