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शुक्रवार, 29 दिसंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 125 – Recapitulation / संक्षिप्त पुनःअवलोकन – 7

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पुनःअवलोकन – 7

 

    हमने अभी तक 1 राजाओं 2:2-4 से एक सफल और आशीषित जीवन जीने के लिए सीखा है, उसी का पुनःअवलोकन कर रहे हैं। वर्तमान में हम यह पुनःअवलोकन कर रहे हैं कि प्रत्येक नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए प्रावधानों का भण्डारी है, जिसमें परमेश्वर की पवित्र आत्मा भी सम्मिलित है। हमने देखा था कि यद्यपि परमेश्वर पवित्र आत्मा उन्हें परमेश्वर की ओर से दिया गया शिक्षक है, कि उनको परमेश्वर का वचन सिखाए, लेकिन फिर भी अधिकांश विश्वासी उस से नहीं सीखते हैं; किन्तु मनुष्यों और उनकी रचनाओं पर निर्भर करते हैं। आज हम इस पुनःअवलोकन को इस बात के साथ समाप्त करेंगे के पवित्र आत्मा का भण्डारी होने के नाते, विश्वासी को किस तरह से पवित्र आत्मा से सीखना है, और इससे संबंधित तीन बहुत महत्वपूर्ण बातों को हम ध्यान करेंगे कि परमेश्वर पवित्र आत्मा से कैसे सीखा जाए।

    परमेश्वर ने अपना वचन हमें इसलिए दिया है कि हम यत्न से उसका पालन करें (भजन 119:4)। जब हम परमेश्वर के वचन को पालन करने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं, तो वह स्वयं उसे हमें सिखाता है (भजन 119:102)। जब हम उसका पालन करते हैं तो वचन हमें पाप करने से रोकता है (भजन 119:9, 11), हमें परमेश्वर के मार्ग दिखाता है (भजन 119:105), और हमें बुद्धिमान बनाता है (भजन 119:98-100)। मूल आवश्यकता है, विश्वासी में परमेश्वर से सीखने की लालसा होनी चाहिए (भजन 25:4), फिर परमेश्वर अपना वचन पापियों को भी सिखाएगा यदि वे उसके सामने विनम्र हों (भजन 25:8-9)। परमेश्वर लोगों को, जैसा उस ने उनके लिए उसने चुना है, उसके अनुसार सिखाता है (भजन 25:12), अर्थात, उस सेवकाई के अनुसार जो उसने उनके लिए निर्धारित की है (इफिसियों 2:10)। संक्षेप में, परमेश्वर ने अपना वचन हमें इसलिए दिया है कि हम उसे सीखें, वह चाहता है कि हम उसे सीखें। और वह स्वयं हमें सिखाना भी चाहता है, अपनी प्रत्येक सँतान को व्यक्तिगत रीति से, अगर वो उस से सीखने के लिए प्रतिबद्ध, और पर्याप्त प्रयास करने वाले हों।

विश्वासी द्वारा परमेश्वर का वचन नहीं सीख पाना:

    यद्यपि पवित्र आत्मा विश्वासी में निवास करता है, फिर भी विश्वासी उस से परमेश्वर का वचन नहीं सीखने पाते हैं। इसके मुख्यतः तीन कारण है:

  • पहला, विश्वासी के द्वारा परमेश्वर के वचन को पढ़ने और सीखने के लिए पर्याप्त समय नहीं देना। ऐसा विश्वासी का पवित्र आत्मा से सीखने, उस के निर्देशों को जानने और मानने के प्रति प्रतिबद्ध न होने के कारण होता है। क्योंकि उसकी प्राथमिकताएँ सँसार की बातों के बारे में सीखने, उनका निर्वाह करने, और भौतिक लाभ कमाने की होती हैं, इसलिए वह आत्मिक बातों तथा परमेश्वर के वचन के प्रति लापरवाह होता है।

  • दूसरा है विश्वासी में परमेश्वर के वचन के पर्याप्त भण्डार या संग्रह का न होना। पवित्र आत्मा विश्वासियों को व्यावहारिक रीति से सिखाता है, परिस्थिति के अनुसार उन्हें उन में विद्यमान परमेश्वर का वचन स्मरण करवाने के द्वारा, उन के अंदर से वचन को लेकर उसे उन के समक्ष लाने के द्वारा (यूहन्ना 14:26; 16:13-15)। किन्तु, यदि उपरोक्त कारणों से, विश्वासी के अंदर वचन का पर्याप्त भंडार अथवा संग्रह नहीं है, मात्रा और विभिन्नता, दोनों में ही, तो फिर पवित्र आत्मा के पास विश्वासी को स्मरण दिलाने या उसके समक्ष लाने के लिए पर्याप्त वचन उपलब्ध ही नहीं होगा।

  • तीसरा है, विश्वासी सामान्यतः पवित्र आत्मा की शिक्षाओं के साथ उन्हें पहले मिली हुई मानवीय शिक्षाओं को, जिन पर वे भरोसा करते आए हैं, मिलाना चाहते हैं; अर्थात, वे परिशुद्ध और पूर्णतः सत्य के साथ त्रुटिपूर्ण और साँसारिक बातों की मिलावट वाली बातों को मिश्रित करना चाहते हैं; और पवित्र आत्मा कभी इस के साथ सहमत नहीं होगा। वह प्रतीक्षा करता है कि विश्वासी इस बात की मूर्खता को पहचानें, और केवल उसी पर निर्भर होने वाले बनें, न कि उसका और उसकी शिक्षाओं का उपयोग मनुष्यों और उन की बातों के साथ जोड़ने भर के लिए करें।

 पवित्र आत्मा की शिक्षाओं के गुण:

  • पहला, परमेश्वर पवित्र आत्मा सत्य का आत्मा है (यूहन्ना 14:17; 15:26;16:13), इसलिए वह जो भी कहेगा और करेगा उसमें कभी भी कुछ भी असत्य नहीं होगा, अर्थात कुछ भी ऐसा नहीं होगा जो बाइबल के अनुसार सही नहीं है। एक प्रकार का बहुधा देखा जाने वाला असत्य है बाइबल के शब्दों और वाक्यांशों को लेकर उन्हें ऐसे अर्थों और तात्पर्यों के साथ उपयोग करना जो बाइबल से बाहर के हैं, अर्थात उन्हें उन बातों के लिए उपयोग करना जो बाइबल में उनके लिए नहीं दी गई हैं।

  • दूसरा, जैसा ऊपर कहा गया है, पवित्र आत्मा परिस्थिति के अनुसार व्यावहारिक शिक्षा प्रदान करता है, वह स्मरण दिलाकर जो प्रभु यीशु ने कहा है (यूहन्ना 14:26), और परिस्थिति के अनुसार, प्रभु के कहे हुए को लेकर समक्ष लाता है (यूहन्ना 16:13-15); किन्तु वह कभी भी अपनी ओर से कोई नई बात नहीं बोलता या सिखाता है। इसलिए ऐसी कोई भी शिक्षा जो बाइबल का सत्य नहीं है, जिस का उल्लेख बाइबल में नहीं किया गया है, लेकिन जो बाइबल के लिखे हुए में जोड़ी जा रही है, और जिस भी बात के अर्थ, अभिप्राय, और व्यवहारिक उपयोग जो पहले से लिख दिया गया है, उस से बाहर जा रहा है (1 कुरिन्थियों 4:6), वह पवित्र आत्मा की ओर से नहीं है।

 

शिक्षाओं की पहचान करना कि वे बाइबल के अनुसार सही हैं अथवा नहीं:

    हम यह कैसे पहचान तथा समझ सकते हैं कि जो प्रचार किया और सिखाया जा रहा है, वह बाइबल के अनुसार सही है अथवा नहीं?

  • सबसे पहला काम जो करना अनिवार्य है वह है इस गलतफहमी से बाहर निकालना कि जो प्रचारक तथा शिक्षक जाने-माने और बहुत ख्याति प्राप्त हैं, जिनकी बहुत प्रशंसा और आदर होता है, जिनके बहुत अनुयायी हैं, वे कभी गलत नहीं हो सकते हैं; इसलिए उनकी कही हर बात पर अँध-विश्वास करते हुए, जो और जैसा उन्होंने कहा है, उसे वैसे ही स्वीकार कर के माना जा सकता है, बिना वचन से उसे जाँचे और उसकी पुष्टि किये हुए। यह अँध-विश्वास सर्वथा गलत धारणा है, और सही-गलत की पहचान में बहुत बड़ी बाधा है।

  • दूसरी बात, दी जा रही प्रत्येक शिक्षा को जाँच के देखना चाहिए कि क्या वह जो वचन में पहले से लिखा गया है उस वचन से बाहर तो नहीं जा रही है (1 कुरिन्थियों 4:6)? यह करना मण्डली के अगुवों की विशेष ज़िम्मेदारी है (1 कुरिन्थियों 14:29)।

  • तीसरा, उस शिक्षा के अर्थ, अभिप्राय, और व्यवहारिक उपयोगों को जाँच-परख कर देख लेना चाहिए कि वे बाइबल में भी ठीक वैसे ही लिखे और उपयोग किये गए हैं जैसा वह प्रचारक और शिक्षक उन के लिए कह रहा है। कहीं प्रचारक या शिक्षक बाइबल में लिखे हुए से भिन्न अर्थों, अभिप्रायों, और व्यावहारिक उपयोगों के साथ तो उन्हें नहीं सिखा रहा है? यदि वह ऐसा कर रहा है तो वह बाइबल के अनुसार सहीं नहीं है।

  • और, चौथा, यह देखना चाहिए कि उस शिक्षा को बाइबल में भी उन्हीं अर्थों, अभिप्रायों, और व्यावहारिक उपयोगों के साथ उपयोग किया गया है, जैसा कि प्रचार किया और सिखाया जा रहा है; अर्थात, बाइबल में भी उस तरह से उसके उपयोग के उदाहरण दिए गए हैं। यदि उन अर्थों, अभिप्रायों, और व्यावहारिक उपयोगों के कोई उद्धरण नहीं हैं, तो वह बाइबल के अनुसार सही शिक्षा नहीं है, और उसे न तो स्वीकार करना चाहिए, और न ही उसका पालन करना चाहिए।

    जिस भी शिक्षा में ये बातें नहीं हैं, वह बाइबल के अनुसार सही नहीं है, उस से बच कर रहना चाहिए, चाहे उसे बताने और सिखाने वाला कोई भी क्यों न हो, और वह चाहे कितनी भी आकर्षक, मनोहर, भक्तिपूर्ण, और तर्कसंगत क्यों न प्रतीत हो।

    अगले लेख से हम मसीही विश्वासी के परमेश्वर के प्रावधानों का योग्य भण्डारी होने की तीसरी ज़िम्मेदारी को देखना आरंभ करेंगे, अर्थात, उसके परमेश्वर की उस कलीसिया तथा मसीही विश्वासियों के परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति भण्डारी होना, जहाँ पर परमेश्वर ने उसे रखा है।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation

Recapitulation – 7

    

    We are recapitulating what we have learnt from 1 Kings 2:2-4 so far, for living a blessed and successful life. Presently, we are recapitulating about every Born-Again Christian Believer being a steward of the provisions God has given to him, including God’s Holy Spirit, to reside in him. We had seen that the though God the Holy Spirit is their God given Teacher, to teach them God’s Word, but still, most Believers do not learn from Him, but rely upon men and their works. Today we will conclude this recapitulation about the Believer’s stewardship of God the Holy Spirit, by reminding ourselves about three very important things related to learning from God the Holy Spirit.

    God has given us His Word so that we may diligently obey it (Psalm 119:4). As we commit ourselves to obey God’s Word, He Himself teaches it to us (Psalm 119:102). When we obey it, then it keeps us from sinning (Psalm 119:9, 11), shows us God’s ways, (Psalm 119:105), and makes us wise (Psalm 119:98-100). The basic requirement is a desire to learn from God (Psalm 25:4); then, God will teach His Word to even the sinners, if they humble themselves before Him (Psalm 25:8-9). God teaches the people according to the way He has chosen for them (Psalm 25:12), i.e., according to the ministry He has kept for them (Ephesians 2:10). To summarize, God has given us His Word so that we should learn it, He wants us to learn it, and He wants to teach it to us, individually and directly to each and every one of His children, provided they are willing to be committed to learning and to put in the requisite efforts for it.

 

The inability of a Believer to learn God’s Word:

    Despite the Holy Spirit residing in him, the Believer is unable to learn God’s Word mainly because of three things:

  • First, Believer’s lack of giving adequate time to read and study God’s Word. This usually is due to the Believer’s not being committed enough to follow and obey the instructions of the Holy Spirit, to learn from Him. Because his priorities are more towards learning about, managing and gaining, the things of the world, therefore, he neglects the Word of God and spiritual things.

  • Second, is the lack of an adequate ‘stock’ or ‘reservoir’ of God’s Word available within the Believer. The Holy Spirit teaches the Believers practically, by bringing to their remembrance God’s Word that is present within them, taking the Word that is inside them and declaring it to them, as per the requirements of the situation (John 14:26; 16:13-15). But if due the reason stated above, there is not enough of the Word available in the Believer, in variety and quantity, the Holy Spirit will not have enough in hand to bring the appropriate Word to remembrance or declare it to the Believer.

  • Third is that Believers often want to mix up and amalgamate man’s teachings that they have earlier received and have been relying upon, with the teachings given by the Holy Spirit to them; i.e., they want to mix up the impure with the pure, and the Holy Spirit will never be a party to that. He waits for the Believers to realize the folly of doing this, and rely only on Him, instead of using Him as something to tag along human teachings.

 

The Characteristics of the Holy Spirit’s Teachings:

  • Firstly, God the Holy Spirit is the Spirit of Truth (John 14:17; 15:26; 16:13) therefore, in all that He says and does, there will never be anything that is not the truth, i.e., that is not Biblically true. One form of “non-truth” is using Biblical words and phrases with extra-Biblical meanings and uses; i.e., using them in a manner and to convey meanings and things not mentioned in the Bible for them.

  • Secondly, as stated above, the Holy Spirit teaches practically as per the situation, by reminding about what the Lord has said (John 14:26), and taking and declaring what the Lord has said (John 16:13-15) related to the situation at hand; but He never ever speaks anything new on His own authority. Therefore, any preaching or teaching that is not the Biblical truth, anything that is not already mentioned in the Bible, but is being added to the Biblical text, and anything that in its meanings, implications, application is going beyond what has already been written (1 Corinthians 4:6), even if it is only in thinking, is not from the Holy Spirit.

 

Discerning Teachings to be Biblically True or False:

    How can we discern and understand whether what is being preached and taught is Biblical or not?

  • The first thing to do is to come out of the assumption that the preachers and teachers who are well-reputed, are well-known and famous, are highly acclaimed, have a large following, they can never be wrong; therefore, whatever they say can be blindly believed upon and accepted as it is, without cross-checking from God’s Word. This kind of blind faith is a very wrong notion, and is a big impediment in discerning right from wrong.

  • Secondly, every teaching being given should be examined to see if it in any way is going beyond the written Word (1 Corinthians 4:6)? This is especially the responsibility of the Church Elders (1 Corinthians 14:29).

  • Thirdly, the meanings, implications, and practical applications of that teaching should be checked out from the Scriptures, whether or not they have been written and taught in the Bible just the same as the preacher and teacher is stating them; or is the preacher saying something different from what actually has been given in the Bible?

  • And fourthly, it should be checked whether that teaching has been used in the Bible with the meanings, implications, and applications as is being preached and taught; i.e., are there any examples in the Bible of its use in the same way as is being preached and taught. If there are no examples of this happening, then it is not a Biblically true teaching and is not to be accepted or followed.

Any teaching that does not fulfil these requirements is not Biblical, should not be accepted; no matter who it is who is preaching and teaching it; no matter how appealing, attractive, pious, and logical it may seem.

    From the next article we will take up the third point of Believer’s stewardship, his being the steward of God’s Church and family of other Believers, where God has placed him.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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