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शुक्रवार, 15 मार्च 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 10

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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 7

 

    हम सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं पर विचार कर रहे हैं, ऐसी शिक्षाएँ जो विश्वासियों तथा कलीसिया की बढ़ोतरी एवं उन्नति के लिए अनिवार्य हैं। हमने देखा है कि सुसमाचार के प्रभावी होने के लिए, पश्चाताप और सुसमाचार में विश्वास करना अनिवार्य हैं। हमने राजा योशिय्याह, अय्यूब, पौलुस, भक्त यहूदियों, आदि के उदाहरणों से सच्चे और वास्तविक मन-फिराव के कुछ गुण सीखे हैं, और व्यक्ति के जीवन में सच्चे पश्चाताप को पहचानना सीखा है। हमने देखा कि सच्चे पश्चाताप का एक बहुत प्रमुख गुण है पश्चातापी व्यक्ति के जीवन में प्रगट दिखने वाला परिवर्तन; आज हम इसी परिवर्तन से सम्बन्धित कुछ बातों को देखेंगे।

    प्रेरित पौलुस ने, रोम के मसीही विश्वासियों को लिखते हुए उनसे दो बातों के बारे कहा, जो विश्वासी के जीवन में अपेक्षित इस परिवर्तन का आवश्यक भाग हैं। पौलुस ने कहा, “इसलिये हे भाइयों, मैं तुम से परमेश्वर की दया स्मरण दिला कर बिनती करता हूं, कि अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान कर के चढ़ाओ: यही तुम्हारी आत्मिक सेवा है। और इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो” (रोमियों 12:1-2)। पौलुस ने जिस तरह से इस खण्ड को लिखा है, परमेश्वर की दया स्मरण करवा कर विनती करते हुए, और फिर इसे उनकी आत्मिक सेवा कहा, संकेत करता है कि वे परिवर्तन स्वतः ही विश्वासी के जीवन में नहीं आ जाते हैं, उन्हें लाना पड़ता है। यद्यपि वे मसीही विश्वासी के लिए अनिवार्य हैं, लेकिन फिर भी, मसीही जीवन के साथ जुड़ी हुई कई अन्य बातों के समान, ये भी वे बातें हैं जिन्हें विश्वासी को अपने जीवन में सक्रिय प्रयास के साथ विकसित और पोषित करना पड़ता है।

    यहाँ पर कही गई पहली बात है परमेश्वर के प्रति पवित्रीकरण के साथ सम्पूर्ण समर्पण, साथ ही अपने आप को सँसार से और सँसार की बातों से पूर्णतः अलग कर लेना। इस सन्देश को उन तक पहुँचाने के लिए, पौलुस ने व्यवस्था के अन्तर्गत परमेश्वर को चढ़ाए जाने वाले बलिदानों को उदाहरण के समान लिया है। जिस प्रकार से बलिदान होने वाले पशु को चुनने, तैयार करने, अर्पित करने, और वेदी पर बलिदान हो जाने के बाद, वह पशु उसकी जिस स्थिति में से लाया गया था, वह अपनी उस स्थिति में लौट कर कभी वापस नहीं जाता था, ठीक उसी प्रकार से वह व्यक्ति जो अपने आप को परमेश्वर को समर्पित कर देता है, वह भी लौट कर सँसार में वापस पहली की सी स्थिति में नहीं जा सकता है। पौलुस यहाँ पर एक प्रत्यक्षतः स्व-विरोधाभास वाले शब्द उपयोग करता है ‘जीवित बलिदान,’ अर्थात, एक तरह से मृतक, किन्तु दूसरी तरह से जीवित – एक के लिए मारे गए, दूसरे के लिए जीवित और स्वीकार्य बन गए। यह हमारे सामने उस परिवर्तन के एक गुण को प्रस्तुत करता है, जिसे मन-फिराव के साथ सुसमाचार को ग्रहण करने वाले विश्वासी के जीवन में दिखना चाहिए।

    यद्यपि मन-फिराव और सुसमाचार में विश्वास द्वारा मिले उद्धार के उपहार को ग्रहण करने के पल से ही व्यक्ति परमेश्वर के प्रति पवित्रीकरण के साथ उसे पूर्णतः समर्पित और परमेश्वर का जन मान लिया जाता है; किन्तु फिर भी पवित्र आत्मा ने पौलुस से विश्वासियों को लिखवाया ‘तुम...अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान कर के चढ़ाओ,’ अर्थात, परमेश्वर यही चाहता है कि विश्वासी यह स्वेच्छा से करे, न कि इसे एक मजबूरी के समान निर्वाह करे। दूसरे शब्दों में, यह परिवर्तन तब ही आता है जब विश्वासी स्वेच्छा से सक्रिय होकर परिवर्तन की इस प्रक्रिया में भाग लेता है; न कि परमेश्वर की ओर से कोई ज़बरदस्ती की जाए या यह विश्वासी पर थोपा जाए। पौलुस साथ ही विश्वासियों को यह भी स्मरण करवा रहा है कि उनका ऐसा करना, उनके द्वारा किया गया कुछ अति-विशिष्ट या कोई महान कार्य नहीं है; वरन, परमेश्वर ने उनके लिए जो किया है, उसकी तुलना में, विश्वासी का परमेश्वर को स्वेच्छा से समर्पण करना, प्रतिबद्ध होना, उसके द्वारा की जाने वाली मामूली से ‘आत्मिक सेवा,’ परमेश्वर के प्रति एक विवेक पूर्ण सेवा मात्र ही है। हर कोई जो सच में पश्चाताप करता है, और वास्तविकता में सुसमाचार पर विश्वास करता है उसे फिर इसी एहसास के साथ जीवन व्यतीत करना चाहिए कि अब वह प्रभु की संपत्ति है, उसके लिए पवित्र किया गया है, और उसे अपने इस समर्पण और पवित्रीकरण को अपने जीवन से जी कर दिखाना है।

    दूसरी बात जो पौलुस ने रोम के विश्वासियों को लिखी, वह है कि उनके अन्दर मन-फिराव और सुसमाचार पर विश्वास करने के द्वारा, उनकी बुद्धि में आए भीतरी परिवर्तन को उनके बदले हुए जीवन के द्वारा बाहरी रूप में दिखाई देना चाहिए। दूसरे शब्दों में, उनके मन-फिराव और सुसमाचार पर विश्वास करने पर परमेश्वर उनकी बुद्धि को – जो उनके शरीरों को नियंत्रित और संचालित करती है, उसे नया कर देता है, उसे उनकी स्वर्गीय बुलाहट और जिम्मेदारियों के अनुरूप बना देता है। अब यह उनकी ज़िम्मेदारी हो जाती है कि वे अपनी नई की हुई बुद्धि को केवल बातों और खोखले दावों के द्वारा नहीं, बल्कि कार्यों के द्वारा; सँसार और साँसारिकता के बातों में फिर से पड़ने से हट जाने के द्वारा तथा अपने शरीरों को नई की हुई बुद्धि के अधीन लाने के द्वारा प्रदर्शित करें; न कि इसके विपरीत उनका साँसारिक अभिलाषाओं वाला शरीर, उनकी आत्मिकता वाली बुद्धि पर हावी रहे। हम अगले लेख में इस परिवर्तन से सम्बन्धित कुछ और बातों को देखेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Teachings Related to the Gospel – 7

 

    We are considering about teachings related to the gospel, that are to be learnt and taught for the spiritual growth of the Believers and the Church. We have seen that repentance and believing in the gospel are essential for the gospel to be effective. Through the examples of King Josiah, Job, Paul, the devout Jews, etc. we learnt some characteristics true heart-felt repentance, and how to recognize it in a person’s life. We have seen that a major characteristic of true repentance is the evidently changed life of the penitent person; today we will consider some aspects of this change that repentance brings about.

    The Apostle Paul, writing to the Christian Believers in Rome speaks to them of two things that are a necessary aspect of this change that is expected in the Believer’s life. Paul says “I beseech you therefore, brethren, by the mercies of God, that you present your bodies a living sacrifice, holy, acceptable to God, which is your reasonable service. And do not be conformed to this world, but be transformed by the renewing of your mind, that you may prove what is that good and acceptable and perfect will of God” (Romans 12:1-2). The manner of Paul’s writing this passage, his beseeching them on the basis of God’s mercies, and calling it their ‘reasonable service’ indicate that these changes do not happen automatically, they have to be brought in. Though they are essential for the Believer’s Christian life, yet like many other things associated with Christian living, they are things that the Believer has to actively develop or cultivate in his life.

    The first thing mentioned here is consecration and complete surrender to God, while simultaneously disassociating themselves from the world and the things of the world. To convey this message, Paul is here using the example of the sacrifices offered under the Law to God. Just as the sacrificial animal that had been chosen, prepared, offered and sacrificed on the altar never went back in the same state as it had been brought in, similarly the person who submits himself to the Lord does not go back the same as he came out of the world. Paul here uses an apparently self-contradictory term ‘living sacrifice,’ i.e., dead in one sense, yet alive in another – dead to one, accepted and living to another. This presents to us a characteristic of the change that ought to happen in a person on his accepting the gospel and repentance.

    Although, from the moment of accepting the gift of salvation through repenting and believing in the gospel, the person becomes fully consecrated, fully submitted to God, wholly belonging to God; yet, the Holy Spirit had Paul write to the Believers that ‘you present your bodies a living sacrifice, holy, acceptable to God,’ i.e., God also wants that the Believer does this as a voluntary act and not live it as a compulsion. In other words, this change comes with the voluntary active participation of the Believer in the process of change; not as a coercion or imposition by God. Paul also reminds the Believer their doing this is not something exceptional or something great; rather, in comparison to what God has done and is doing for them, the Believer’s surrendering and submitting to Him is a ’reasonable service,’ merely a rational reaction on their part towards God. Everyone who truly repents and sincerely accepts the gospel should also live with the realization that he now belongs to the Lord, is consecrated to Him, and must live a life that demonstrates this consecration and submission.

    The second thing that Paul says to the Roman Believers is that the internal change wrought in their minds by their repentance and acceptance of the gospel, should be seen externally by a transformation in their life. In other words, with their repentance and submission, God renews their minds – that which controls their bodies, brings it in conformity to their heavenly calling and responsibility. Now they have the responsibility to demonstrate having a renewed mind, not by mere verbal assertions, but by no longer conforming to the ways of the world, but by deciding and making their bodies come under the control of their renewed mind, instead of the other way around, their bodies under worldly lusts and desires controlling their spiritually renewed minds. We will look at some more aspects of this changed life in the next article.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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