ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

रविवार, 12 मई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 67

 

Click Here for the English Translation


आरम्भिक बातें – 28

बपतिस्मों – 7


बपतिस्मे का उद्देश्य (2)

 

पिछले लेख में हमने, “प्रथम उल्लेख के अर्थ” के सिद्धांत के आधार पर बपतिस्मे के एक उद्देश्य को देखा था, कि यह पापों के लिए पश्चाताप करने और प्रभु को जीवन समर्पित करने के द्वारा आने वाले भीतरी परिवर्तन की सार्वजनिक गवाही देना है। प्रभु यीशु मसीह की पृथ्वी की सेवकाई के समय के लगभग, लोगों में वायदे के अनुसार आने वाले मसीहा के आगमन को लेकर बहुत प्रत्याशा और उत्सुकता थी। जब यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने प्रभु यीशु के अग्रदूत के रूप में अपनी सेवकाई का आरंभ किया, तब कई लोगों ने यह समझ लिया था कि वही वायदा किया हुआ मसीहा है, परंतु यूहन्ना ने उनकी गलतफहमी को ठीक किया (लूका 3:15-16; यूहन्ना 1:19-23)। इसलिए उन लोगों का फिर यूहन्ना से अगला प्रश्न था, “यदि तू न मसीह है, और न एलिय्याह, और न वह भविष्यद्वक्ता है, तो फिर बपतिस्मा क्यों देता है?” (यूहन्ना 1:25-26)। दूसरे शब्दों में उन लोगों की आशा थी कि वायदा किया हुआ मसीहा आकर वह करेगा जो यूहन्ना का रहा था। यूहन्ना ने तुरंत ही उसके बारे में लोगों के गलतफहमियों को ठीक करते हुए कहा की वह केवल मसीहा का अग्रदूत मात्र ही है, जो उसके लिए मार्ग तैयार करने के लिए भेजा गया है, जैसा की चारों सुसमाचारों में दिया गया है (मत्ती 3:3; मरकुस 1:3; लूका 3:4; यूहन्ना 1:23)। साथ ही उसने उन्हें यह भी बताया कि वायदा किए हुए आने वाले मसीहा के आने का उद्देश्य लोगों को जल में बपतिस्मा देने से कहीं अधिक बढ़कर था। जैसा कि चारों सुसमाचारों में लिखा गया है, मसीहा के आने का उद्देश्य था, “वह अपना खलिहान अच्छी रीति से साफ करेगा, और अपने गेहूं को तो खत्ते में इकट्ठा करेगा, परन्तु भूसी को उस आग में जलाएगा जो बुझने की नहीं” (मत्ती 3:11-12)।


यद्यपि अभिप्राय प्रकट है, लेकिन फिर भी हम विभिन्न बातों को साथ एकत्रित करके पूर्ण चित्र को बनाते हैं। यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले को, लोगों को वायदा किए हुए मसीहा को पहचानने और ग्रहण करने के लिए तैयार करना था। मसीहा के आने का उद्देश्य संसार के लोगों को परमेश्वर के आने वाले न्याय के लिए तैयार करना था, जब सभी को अपने जीवनों का हिसाब उसे देना होगा, और उसी के अनुसार उन्हें परिणाम और प्रतिफल दिए जाएंगे (प्रेरितों 17:30-31; 2 कुरिन्थियों 5:10)। मसीहा की पहचान और ग्रहण करने को सहज करने के लिए, यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला लोगों में पापों के लिए पश्चाताप करने, और उनमें इससे हुए भीतरी परिवर्तन की सार्वजनिक गवाही बपतिस्मे के द्वारा देने का प्रचार करता फिरा। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति द्वारा पापों का अंगीकार कर लेना, उनके लिए पश्चाताप करना, अर्थात उस व्यक्ति में दीनता और परमेश्वर की आज्ञाकारिता का होना, उसके द्वारा मसीहा को पहचानने और उसे व्यक्तिगत रीति से ग्रहण करने के लिए आवश्यक है। यह निष्कर्ष कोई निराधार कल्पना नहीं है; वरन, न केवल प्रभु यीशु मसीह की पृथ्वी की सेवकाई की बातें इसकी पुष्टि करती हैं, प्रभु यीशु मसीह ने स्वयं भी इसे कहा है (मत्ती 21:23-32)। जन-साधारण के लोग जिन्होंने पश्चाताप और बपतिस्मे के लिए यूहन्ना के आह्वान को स्वीकार कर लिया, उन्होंने प्रभु यीशु को मसीहा भी स्वीकार कर लिया। किन्तु घमण्डी ढीठ धार्मिक अगुवों, फरीसियों और सदूकियों ने, जिन्होंने यूहन्ना की “मन फिराव के योग्य फल लाओ” (मत्ती 3:8) वाली बात को स्वीकार नहीं किया, उन्होंने प्रभु यीशु के मसीह होने को भी स्वीकार नहीं किया।

    इससे हम बपतिस्मे के दूसरे उद्देश्य को समझ सकते हैं। यदि बपतिस्मा एक रीति या औपचारिकता के समान नहीं, परन्तु बाइबल में दिखाए गए सही रवैये और समझ-बूझ के साथ, पापों को मानते हुए, उनके लिए सच्चे मन से पश्चाताप करते हुए, दीनता के साथ परमेश्वर और उसके वचन की आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करने के निर्णय के इस भीतरी परिवर्तन की सार्वजनिक गवाही के समान लिया जाए, तो यह उस व्यक्ति को अपने जीवन में प्रभु यीशु मसीह की सेवकाई के उद्देश्य को, अर्थात प्रभु के सामने अपनी जवाबदेही और उसके न्याय, अन्ततः जिसका सामना सभी को करना ही होगा, के लिए भी तैयार करता है।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************

English Translation


The Elementary Principles – 28

Baptisms – 7


The Purpose of Baptism (2)

 

    In the previous article, based on the ‘Principle of First Use,’ we have seen one purpose of baptism, that it is to publicly witness about the inner change brought about by repentance of sins and submitting one’s life to the Lord. Around the time of the earthly ministry of the Lord Jesus, there was a great anticipation amongst the people that the Promised Messiah was about to come. When John the Baptist started his ministry as the forerunner of the Lord Jesus, many people assumed him to be the Promised Messiah, but John corrected them (Luke 3:15-16; John 1:19-23). Therefore, their next question to John was, “If you are neither the Messiah, nor Elijah, nor the Prophet; why then do you baptize?” (John 1:25-26). In other words, the expectation of the people was that when the Promised Messiah comes, He will do what John was doing. But John immediately corrected the people’s misconception about him, plainly telling them that he, i.e., John, was only the forerunner of the Messiah, sent to prepare the way of the Lord, as is stated in all the 4 Gospel accounts (Matthew 3:3; Mark 1:3; Luke 3:4; John 1:23). He also told them that the purpose of the coming of the Promised Messiah was far greater than merely baptizing people in water. The Messiah was coming, as is recorded in all the four Gospels, to “thoroughly clean out His threshing floor and burn the chaff with unquenchable fire” (Matthew 3:11-12).

    Though the implication is evident, but still, let us put together bits and pieces and complete the picture. John the Baptist was sent to prepare the people to receive and accept the Promised Messiah. The Messiah Himself was coming to prepare the world for the coming judgment of God, where everyone will have to give an account of his life to Him, and receive their rewards accordingly (Acts 17:30-31; 2 Corinthians 5:10). To facilitate the acceptance of the Messiah and His ministry, John the Baptist went about preaching repentance of sins, and witnessing for that inner transformation through the external public act of taking baptism. In other words, a person’s acknowledgement and confession of sins, and repentance for them, i.e., humility and obedience to God was necessary for him to be able to recognize and accept the Messiah, and to personally accept His ministry, when he came. This conclusion is no conjecture; rather, not only does the earthly ministry of the Lord Jesus amply bear it out, but the Lord Jesus also said it so (Matthew 21:23-32). The common people, who accepted John the Baptist’s call to repentance and baptism, also accepted Lord Jesus as the Promised Messiah. But the haughty religious leaders, the Pharisees and Sadducees, who had not accepted John the Baptist’s call to “bear fruits worthy of repentance” (Matthew 3:8), also rejected the Lord Jesus as the Messiah.

    From this we can derive the second purpose of baptism. If baptism is taken not as a ritual or a formality, but as is shown in the Bible, with the correct attitude of accepting sins and repenting for them, of publicly witnessing about the inner transformation, of being prepared to live humbly in obedience to God and His Word, then it also prepares the person to receive the ministry of the Lord Jesus in their lives, i.e., to learn about and prepare for their coming accountability before the Lord and His judgement; which eventually, everyone will have to face.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें