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शनिवार, 6 जुलाई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 122

 

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आरम्भिक बातें – 83


अन्तिम न्याय – 4

 
    इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छठी आरम्भिक बात, “अन्तिम न्याय” के बारे में हमारे इस अध्ययन में, हम ने पिछले लेख में देखा था कि परमेश्वर ने हमें, लगभग 2000 वर्ष पहले से ही बता रखा है कि प्रभु यीशु ही न्यायी होगा, और वह धर्म से, अर्थात निष्पक्ष और बिना किसी त्रुटि से सभी का न्याय करेगा। और यह न्याय वह अपने वचन के अनुसार न्याय करेगा, क्योंकि वही एकमात्र अटल, सच्चा और खरा मापदण्ड है। संक्षेप में, हमारे लाभ और सहायता के लिए, परमेश्वर ने सम्पूर्ण मानवजाति को बहुत पहले से ही बता दिया है कि उसके द्वारा न्याय अवश्य किया जाएगा, उस ने न्याय का दिन भी निर्धारित कर दिया है, न्यायी कौन होगा यह भी प्रकट कर दिया है, और यह भी बता दिया है कि न्याय किस मापदण्ड के अनुसार होगा। परमेश्वर ने सारे सँसार में अपने लोगों को प्रभु यीशु में विश्वास लाने के द्वारा उद्धार पाने के सुसमाचार का प्रचार करने के लिए भी भेजा हुआ है; अर्थात, परमेश्वर ने सभी को यह बता दिया है कि न्याय के समय परमेश्वर के प्रकोप से बच कर उस के साथ स्वर्ग में रहने का तरीका क्या है। इस प्रकार से परमेश्वर ने सारे सँसार के लोगों को आवश्यकता से कहीं अधिक समय, उपयुक्त सँसाधन, और उचित मार्ग को उपलब्ध करवा दिया है कि सभी अपने आप को इस न्याय के समय के लिए सुरक्षित कर लें। आज हम इसे यहीं से और आगे देखेंगे।

    क्योंकि परमेश्वर ने हमें न्याय के बारे में बता दिया है, और हमें उस की तैयारी करने के लिए समय और सँसाधन दे दिए हैं, इस लिए यह सामान्य समझ की बात है कि हमें उस पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए जो परमेश्वर ने हमें दिया है, हम से कहा है, और परमेश्वर के वचन का पालन करना चाहिए; न कि मनुष्यों का, मनुष्यों के तौर-तरीकों का, और मनुष्यों के वचनों का – ये सभी तो मिटा दिए जाएँगे, नाश हो जाएँगे, और न्याय के समय इन की कोई उपयोगिता नहीं होगी। सामान्य समझ हमें यह भी कहती है कि हमें प्रभु के लोग बनने के द्वारा आने वाले न्याय की तैयारी करनी चाहिए, बजाय किसी भी मत अथवा डिनॉमिनेशन के लोग बनने के द्वारा। प्रभु यीशु ने कभी कोई मत अथवा डिनॉमिनेशन नहीं दिए, और न ही कभी अपने शिष्यों से कहा कि वे उन्हें बनाएं और चलाएँ। सभी मत और डिनॉमिनेशन, हर एक और प्रत्येक, मनुष्यों ही का बनाया हुआ है, प्रभु का नहीं। क्योंकि प्रभु की कलीसिया को प्रभु की देह, उस की दुल्हन भी कहा गया है (इफिसियों 5:25-30), इस लिए यह कतई संभव नहीं है कि प्रभु की एक से अधिक कलीसिया हों, अर्थात, प्रभु की एक से अधिक देह और दुल्हन हों। सम्पूर्ण नए नियम में कलीसिया की इस एकता को सिखाया गया है, उस पर बहुत बल दिया गया है, फिर भी मनुष्यों ने प्रभु की कलीसिया को अपने ही मतों और डिनॉमिनेशनों में विभाजित कर लिया है। हर मत या डिनॉमिनेशन के अपने ही नियम और तौर-तरीके होते हैं, और प्रत्येक अपने आप को प्रभु के वचन के अनुसार ही होने का दावा करता है, लेकिन फिर भी हर एक, औरों से भिन्न होता है – कैसी मूर्खता पूर्ण और व्यर्थ धारणा है। किसी भी व्यक्ति का न्याय उस के मत या डिनॉमिनेशन के अगुवों के द्वारा अथवा उन के नियमों और तौर-तरीकों के आधार पर नहीं होगा; लेकिन हर किसी का न्याय प्रभु के द्वारा और प्रभु के वचन के अनुसार किया जाएगा। इस लिए यह बिल्कुल अनिवार्य है कि जब हमारे पास समय और अवसर है, हम अपने आप को सुधार लें, और परमेश्वर के वचन का पालन करने वाले बनें। हमें परमेश्वर के वचन को सीखने और मानने वाला बन जाना चाहिए, प्रभु के लोग बन जाना चाहिए, बजाए इस, उस, या किसी और मत अथवा डिनॉमिनेशन का सदस्य होने का दावा और घमण्ड करने के।

    इस के अतिरिक्त, जैसा कि प्रभु के स्वर्गदूत ने मत्ती 1:21 में यूसुफ से कहा था, कि प्रभु अपने लोगों का उद्धार करेगा (कर सकता है, या हो सकता है कि करने पाए नहीं, बल्कि करेगा – एक दृढ़ और निश्चित आश्वासन); तो फिर प्रभु के लोग बनने से क्यों संकोच करना? और फिर जब परमेश्वर ने यह घोषित कर दिया है, खुलासा कर दिया है, कि न्याय उस के वचन बाइबल के अनुसार ही होगा, तो यदि हम बाइबल का अध्ययन कर के बाइबल से यह नहीं सीखें कि परमेश्वर को कैसे प्रसन्न करना है और कैसे उस की दृष्टि में धर्मी बनना है, तब तो फिर हम मूर्ख ही होंगे। कोई भी ऐसा मूर्ख क्यों हो कि परमेश्वर के वचन बाइबल की अनदेखी करे, परमेश्वर के वचन को न तो सीखे और न उस का पालन करे, अर्थात उस का जिस के द्वारा उस का न्याय किया जाएगा; किन्तु किसी मत या समुदाय के नियमों और तौर-तरीकों को सीखे, उन्हीं का पालन करे, यह जानते हुए भी कि उस के अनन्त भविष्य को निर्धारित करने में उन की कोई भूमिका नहीं है। जब परमेश्वर ने हमें यह स्पष्ट बता दिया है कि न्याय उसी के वचन के अनुसार होगा, तो फिर अन्त के समय नरक का दण्ड मिलने पर कोई परमेश्वर को क्योंकर दोषी ठहरा सकता है, जब उस ने समय रहते बाइबल को न तो सीखा और न ही उस का पालन किया?

    जो यह बहाना देने की सोचते हैं कि क्योंकि बाइबल उन्हें कठिन लगती थी, वे उसे समझ नहीं पाते थे, इसी लिए वे अपने धार्मिक अगुवों के प्रचार और शिक्षाओं का पालन करते थे, क्योंकि वे अगुवे बाइबल तथा सम्बन्धित बातों के बारे में प्रशिक्षित, ज्ञानवान, और साक्षर थे। ऐसे सभी लोगों के लिए, परमेश्वर ने अपने वचन में पहले से ही उन के इस व्यर्थ और अस्वीकार्य तर्क का उत्तर लिख रखा है। बाइबल हमने स्पष्ट बताती है कि जिस पल कोई भी व्यक्ति अपने पापों से पश्चाताप करके नया-जन्म प्राप्त करता है, उसी पल से परमेश्वर पवित्र आत्मा आकर उस में वास करने लगता है (इफिसियों 1:13-14)। पवित्र आत्मा के प्रत्येक मसीही विश्वासी में निवास करने के उद्देश्यों में से एक है उसे परमेश्वर का वचन सिखाना और उस में उसकी सहायता और मार्गदर्शन करना (यूहन्ना 14:26; 16:13), यदि कोई उस से सीखने और उस का आज्ञाकारी होने के लिए तैयार है, तो। इसलिए, जब परमेश्वर ने उपयुक्त इंतजाम कर दिया है, तो फिर किसी को भी परमेश्वर का वचन न सीख पाने की बात कहने या सीखने के लिए मनुष्यों पर निर्भर होने की कोई आवश्यकता नहीं है। इस लिए न्याय के समय बाइबल को नहीं सीखने या समझने का यह बहाना किसी काम नहीं आने वाला है। परमेश्वर ने जो भी आवश्यक है वह कर के दे दिया है, किन्तु यदि अभी भी कोई उन बातों को उपयोग न करना चाहे, तो उस के दुष्परिणामों के लिए वही दोषी ठहरेगा, परमेश्वर ज़िम्मेदार नहीं होगा।

    इसलिए, यह पूर्णतः अनिवार्य है कि परमेश्वर के वचन को सीख कर उसी के अनुसार जीवन जिया जाए, न कि मनुष्यों की बातों के अनुसार; वह करें जो परमेश्वर कहता है, न कि वह जो आप की डिनॉमिनेशन कहती है। जो इस बात को गंभीरता से नहीं लेते हैं, और परमेश्वर तथा उस के वचन को अपने जीवन में प्राथमिक स्थान देना आरंभ नहीं करते हैं, परमेश्वर और उस के वचन को मनुष्य तथा मनुष्य के वचन से ऊपर रखना आरम्भ नहीं करते हैं, तो फिर न्याय के समय, उन्हें इस के दुष्परिणाम भोगने होंगे, और वे अपनी इस मूर्खता के लिए अनन्तकाल तक बहुत दुःख उठाते रहेंगे। अगले लेख में हम यहाँ से आगे बढ़ेंगे।
 
    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
 
 
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English Translation


The Elementary Principles – 83


Eternal Judgment – 4

 

In our study of “Eternal Judgment” the sixth elementary principle given in Hebrews 6:1-2, in the last article we have seen that God has already let us know, about 2000 years ago, that the Judge will be the Lord Jesus, and He will judge in righteousness, i.e., His judgement will be impartial and faultless. And that He will judge according to His Word, which is the only absolute and true standard. In short, for our help and benefit, God has told all of mankind much beforehand that His judgment is inevitable, He has already fixed a day for it, He has also told us who the Judge will be, and He has also made known to us the standard, the criteria that will be used for the judgment. God has sent His people all over the world to preach the gospel of salvation through faith in the Lord Jesus; i.e., God has let everyone know how to be saved from the wrath of God and be safe with Him in heaven, whenever the judgment happens. Thus, God has given everyone, all over the world, much more than adequate time, resources and the way to prepare and make themselves safe for this judgment. Today we will consider this further.

Because God has warned us about the judgment and given us the time and resources to prepare for it, therefore is a matter of common sense, that we should pay attention to all God has said and provided, and follow God and His Word, instead of following men, the ways of men, and men’s word – all of which will be cast away, perish, and will be of no use at the time of judgment. Common sense also tells us that we should prepare for this judgment by becoming the people of the Lord Jesus, instead of being the people of any particular sect or denomination. The Lord Jesus never gave any sects or denominations, nor did He ask His followers to create and follow them. All the sects and denominations, each and everyone, are man’s creation, not the Lord’s. Since the Church of the Lord Jesus is also called the Body of the Lord, the Bride of the Lord (Ephesians 5:25-30), therefore there simply cannot be more than one “Church,” i.e., more than one Body and Bride of the Lord Jesus. Throughout the New Testament this unity of the Church is taught and emphasized many times, yet men have divided up the Lord’s Church into their own sects and denominations. Each sect and denomination having their own rules and practices, and each claiming to be true to God’s Word, but still, each being different from the others – how ridiculous and false. No one will be judged by their denominational leaders and their rules and practices; but everyone will be judged by the Lord Jesus according to the Word of God. Therefore, it is absolutely imperative that while we have the time and opportunity, we should correct ourselves and obey God’s Word. We should become the learners and followers of God’s Word, become the people of the Lord Jesus, instead of taking pride in being the members or people of this, that or the other sect or denomination.

Moreover, as the Angel of God told Joseph, the Lord Jesus will save (not can save, or may be able to save, but will save – a definitive assurance), His people from their sins (Matthew 1:21); so why hesitate to become the Lord’s people? Secondly, when God has declared it, made it open, that the judgment will be according to his Word the Bible, we will be foolish if we do not study the Bible and learn from the Bible about how to please God and be righteous in His eyes. Why should anyone be so foolish to ignore God’s Word the Bible, not learn and obey God’s Word, by which he will be judged; but learn and obey the rules and practices of some sect or denomination, and practice them, when those rules and practices will have no role in deciding his eternal fate? When God has already told to us that the judgment will be according to His Word, then how can anyone blame God in the end for being condemned to hell, if they do not study and obey the Bible?

For those, who want to give the excuse that since they cannot understand the Bible, find it difficult, therefore they follow whatever their religious leaders say to them, since those leaders are trained, educated, and knowledgeable about the Bible and related matters. For all such people, God has already given the answer to their unacceptable and vain argument in His Word. The Bible clearly tells us that the moment a person repents of his sins and is Born-Again, God the Holy Spirit comes to reside in him (Ephesians 1:13-14). One of the functions of the Holy Spirit residing in every truly Born-Again Christian Believer is to teach him the Word of God, and guide him in it (John 14:26; 16:13), provided one is willing to learn from Him and be obedient to Him. Therefore, there is no need for anyone to plead inability to learn, or to depend upon any person to learn God’s Word, when God has already made the provision for directly teaching His Word to every person; for everyone who wants to learn it. So, at the time of the judgment, this excuse of not knowing or understanding the Bible will not work; God has made the necessary arrangements, but if someone is not willing to make use of those arrangements, then he is responsible for the consequences, not God.

Therefore, it is absolutely essential to learn and live by God’s Word, rather than man’s; do what God says instead of doing what any sect or denomination says. Those who do not take this seriously and do not start giving the primary place in their lives to God and His Word, and do not start placing God and His Word over and above man and man’s words, then at the time of judgment, they will suffer the consequences, and suffer very severely for eternity, for their own foolishness. We will carry on from here in the next article.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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