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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 72
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (14)
प्रार्थना, जिस पर हम विचार कर रहे हैं, प्रेरितों 2:42 में दी गई व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित चार में से चौथी बात है। पिछले लेखों में हमने प्रार्थना क्या है, और उससे सम्बन्धित कई गलत धारणाओं और शिक्षाओं के बारे में परमेश्वर के वचन बाइबल में दी गई शिक्षाओं और सम्बन्धित बातों के बारे में देखा और सीखा है। वर्तमान के लेखों में हम प्रार्थना से सम्बन्धित इस आम किन्तु गलत धारणा के बारे में बाइबल में से देख रहे हैं कि परमेश्वर “विश्वास से” माँगी गई प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर देता है। हम बाइबल से देख चुके हैं कि परमेश्वर ने ऐसा आश्वासन किन लोगों की और कैसी प्रार्थनाओं के बारे में दिया है। अब हम बाइबल के उन कुछ उदाहरणों पर विचार कर रहे हैं, जिनकी सन्दर्भ से बाहर और गलत व्याख्या के आधार पर सामान्यतः ये दावा किया जाता है कि परमेश्वर “विश्वास से” माँगी गई सभी लोगों की सभी तरह की प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर देता है। पिछले लेख में हमने इसी से सम्बन्धित एक अन्य वाक्यांश “यीशु के नाम में” माँगी गई सभी लोगों की सभी प्रार्थनाओं का परमेश्वर सकारात्मक उत्तर देता है पर विचार करना आरम्भ किया था। हमने देखा था कि क्यों यह दावा गलत और परमेश्वर के वचन से असंगत है, क्योंकि प्रभु ने यह प्रतिज्ञा जन साधारण के लिए नहीं वरन अपने वास्तविक और प्रतिबद्ध, समर्पित सच्चे शिष्यों को ही दी थी। आज इसी वाक्यांश पर विचार ज़ारी रखते हुए, हम देखेंगे कि प्रभु यीशु ने अपने सच्चे और खरे शिष्यों को यह प्रतिज्ञा किस अभिप्राय से दी है, और इस वाक्यांश को प्रयोग करने का अर्थ या आधार क्या है।
यह एक सामान्य अनुभव है कि जब भी भिखारी भीख माँगने आते हैं, और यदि जिससे भीख माँग रहे हैं, उसके साथ या उसकी गोदी में कोई बच्चा है, तो वे सामान्यतः यह कहकर भीख देने के आग्रह करते हैं कि देने वाला उस बच्चे के नाम से उन्हें भीख दे दे। उनके कहने का तात्पर्य यह होता है कि जैसे देने वाला अपने बच्चे की इच्छा को पूरा करता है, उस बच्चे को अपने ऊपर निर्भर जानकर, उसके लिए वस्तुओं को लाता और उसे देता है, उसी प्रकार से भिखारी की भी इच्छा को पूरी करे, उसे भी निर्भर जानकर उसके लिए भी उपलब्ध करवाए। अर्थात, उस भिखारी को उस बच्चे के समान अपना समझे और फिर उस आधार पर उसकी इच्छा और आवश्यकता को पूरा करे।
ठीक यही बात, और इसी अभिप्राय के साथ यह बात परमेश्वर से “प्रभु यीशु के नाम में” माँगने से भी जुड़ी हुई है। प्रभु ने यूहन्ना 14 से 16 अध्यायों में बारम्बार इस वाक्यांश को दोहराते हुए, अपने सच्चे और समर्पित शिष्यों को यह सिखाया कि वे परमेश्वर से इस अभिप्राय से माँगना सीखें, कि जैसे पिता परमेश्वर प्रभु यीशु की हर प्रार्थना का सकारात्मक उत्तर देता है, वैसे ही प्रभु के उन सच्चे और समर्पित शिष्यों की प्रार्थनाओं का भी उत्तर दे। इससे यहाँ पर एक निहितार्थ प्रकट हो जाता है, कि प्रभु ने यह प्रतिज्ञा उन्हीं के लिए दी है जिनका प्रभु यीशु के समान परमेश्वर से पिता और पुत्र का सा सम्बन्ध है। अर्थात उनके लिए जो परमेश्वर के परिवार का एक अँग हैं, और जैसा हम पहले के लेखों में देख चुके हैं, यह केवल यूहन्ना 1:12-13 के आधार पर ही सम्भव है। अर्थात वास्तव में नया-जन्म पाए हुए विश्वासियों के लिए ही सम्भव है। तो फिर बात घूम के उसी स्थान पर आ जाती है कि प्रभु के नाम में परमेश्वर से कुछ माँगना, उन्हीं के लिए सम्भव है जो प्रभु के सच्चे और समर्पित शिष्य हैं, परमेश्वर की सन्तान हैं; ना कि हर किसी के लिए जो यह वाक्यांश अपनी प्रार्थना के साथ जोड़ देता है।
परमेश्वर पिता, प्रभु यीशु की सभी प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर क्यों देता था? प्रभु यीशु ने स्वयं ही इस बात का उत्तर दिया है। प्रभु का यह उत्तर यूहन्ना 5 अध्याय में, यहूदियों के साथ प्रभु के वार्तालाप में दिया गया है, जो हमें इस अध्याय के पद 17 से आगे के भाग में मिलता है। हम इस सम्पूर्ण भाग को तो नहीं देखेंगे, किन्तु कुछ पदों पर विचार कीजिए:
यूहन्ना 5:19 “इस पर यीशु ने उन से कहा, मैं तुम से सच सच कहता हूं, पुत्र आप से कुछ नहीं कर सकता, केवल वह जो पिता को करते देखता है, क्योंकि जिन जिन कामों को वह करता है उन्हें पुत्र भी उसी रीति से करता है।” प्रभु वही करता था जो पिता परमेश्वर करता था, और उस कार्य को उसी रीति से करता था, जैसा पिता परमेश्वर करता था। यह एक सच्चे समर्पण, प्रतिबद्ध अनुसरण, और पूर्ण आज्ञाकारिता का चित्रण है।
यूहन्ना 5:30 “मैं अपने आप से कुछ नहीं कर सकता; जैसा सुनता हूं, वैसा न्याय करता हूं, और मेरा न्याय सच्चा है; क्योंकि मैं अपनी इच्छा नहीं, परन्तु अपने भेजने वाले की इच्छा चाहता हूं।” यद्यपि परमेश्वर पिता ने न्याय करने का सारा अधिकार, सारी ज़िम्मेदारी प्रभु यीशु को सौंप दी थी, लेकिन प्रभु यीशु, पिता परमेश्वर द्वारा प्रदान किये गए उदाहरण के अनुसार ही न्याय करता है, अपनी इच्छा के अनुसार नहीं। दूसरी बात जो प्रभु यीशु यहाँ पर कहता है, वह परमेश्वर की इच्छा को पूरा करता है। प्रभु की हर बात इसी एक बात पर आधारित थी, जैसा उसने स्वर्ग से पृथ्वी पर आते समय भी कहा था, जो इब्रानियों 10:5-7 में लिखा है।
यूहन्ना 5:36 “परन्तु मेरे पास जो गवाही है वह यूहन्ना की गवाही से बड़ी है: क्योंकि जो काम पिता ने मुझे पूरा करने को सौंपा है अर्थात यही काम जो मैं करता हूं, वे मेरे गवाह हैं, कि पिता ने मुझे भेजा है।” इस पद में प्रभु के कार्यों के बारे में हम एक और बात देखते हैं - वह केवल उन्हीं कामों को करता था जो परमेश्वर पिता ने उसे सौंपे थे; न कि अपने द्वारा निर्धारित किये हुए। अपने पकड़े जाने से पहले, प्रार्थना में उसने पिता परमेश्वर से कहा, “जो काम तू ने मुझे करने को दिया था, उसे पूरा कर के मैं ने पृथ्वी पर तेरी महिमा की है” (यूहन्ना 17:4)।
इन पदों से हम देखते हैं कि यद्यपि यीशु त्रिएक परमेश्वर का एक भाग था, पूर्णतः परमेश्वर था, किन्तु अब जब वह पृथ्वी पर मनुष्य रूप में पिता परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए आया था, तो उसने अपने आप को पूर्णतः, हर बात के लिए, हर तरह से पिता परमेश्वर के हाथों में, उसकी अधीनता में सौंप दिया था। और इसीलिए पिता परमेश्वर उसकी हर प्रार्थना का सकारात्मक उत्तर देता था। इस विषय के आरम्भिक लेख में, प्रभु के शिष्य होने के गुणों का उल्लेख करते हुए, हमने मत्ती 10:24-25 से देखा था कि प्रभु के शिष्य को प्रभु के समान गुण रखने हैं। जब प्रभु के शिष्य प्रभु द्वारा अपने जीवन से दिखाए गए उदाहरण का अनुसरण करते हुए, पिता परमेश्वर के प्रति वैसे ही समर्पित और आज्ञाकारी होंगे जैसे प्रभु यीशु था, तब वे भी प्रभु यीशु ही के समान, परमेश्वर की इच्छा को जानेंगे और समझेंगे, और उनकी प्रार्थनाएं परमेश्वर की इच्छा के अनुसार ही होंगी। और हम पहले ही देख चुके हैं कि जो परमेश्वर को समर्पित होते हैं, जिनकी प्रार्थनाएं परमेश्वर की इच्छा के अनुसार होती हैं, परमेश्वर उन्हें पूरी भी करता है। अर्थात, “प्रभु यीशु के नाम में प्रार्थना माँगने” में निहित है कि माँगने वाला प्रभु यीशु के समान परमेश्वर के परिवार का अँग है, पिता परमेश्वर को पूर्णतः समर्पित है, उसकी इच्छा को, उसके वचन को जानता है, और उसी इच्छा एवं वचन के अनुसार प्रार्थना माँगता है। इसलिए, स्वाभाविक है कि पिता परमेश्वर उसकी प्रार्थना का सकारात्मक उत्तर देगा।
इसलिए वाक्यांश “प्रभु यीशु के नाम में प्रार्थना को माँगते हैं” कोई मन्त्र या ऐसी बात नहीं है जो परमेश्वर को हर एक की, हर तरह की, प्रार्थना का सकारात्मक उत्तर देने के लिए बाध्य करती है। वरन वह यह कहने का एक तरीका है कि प्रार्थना माँगने वाला परमेश्वर पिता को पूर्णतः समर्पित है, उसका आज्ञाकारी है, उसकी इच्छा को जानता है, और जो माँग रहा है वह परमेश्वर की इच्छा, उसके वचन के अनुसार है। यदि यह सभी सत्य है, तो निःसन्देह ऐसे लोगों की उचित प्रार्थनाएं अवश्य ही पूरी होंगी। अगले लेख में हम इसी से सम्बन्धित कुछ बातों को यूहन्ना 15 अध्याय से देखना आरम्भ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 72
The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (14)
Prayer, the topic we are presently considering, is the fourth of the four things given in Acts 2:42, regarding practical Christian living. In the preceding articles we have seen what prayer actually is, and have considered and learnt the truth from God’s Word about the many wrong concepts and wrong teachings that are commonly preached and taught about prayer. In the current articles we are considering this very commonly given but wrong teaching about prayer that God has promised to answer in affirmative, the prayers made to Him “in faith.” We have seen from God’s Word about whose prayers, and what kind of prayers God has assured to answer in the affirmative. Now, we are considering some examples from the Bible that are commonly taken out of context, misinterpreted, and used to assert the claim that God has assured to fulfill all prayers made to Him “in faith.” In the previous article we had begun to consider another related aspect, that God fulfills everyone’s, and all prayers asked “in the name of Jesus.” We had seen why this claim is false and inconsistent with the Word of God, because the Lord had made this promise not to everyone, but only to His true, committed, and surrendered disciples. Today we will carry on in considering this phrase, and see the meaning with which the Lord gave this promise to His disciples, and what is the meaning and implications of using this phrase in prayer.
This is a common experience, that if a beggar comes begging, and if he sees a child with, or, in the lap of the person he is begging from, then he usually makes his plea for alms by asking to give something in the name of that child to them. What he means to say is that just as the person with the child, fulfills the wishes of the child, knowing that the child is dependent on him, brings and gives things to the child, similarly to fulfill the wish of the beggar, consider the beggar to be dependent on the person, and make provisions for him as well. In other words, just as the child belongs to the person and he does things for the child, to similarly consider the beggar also to belong to him and fulfill his wishes.
The same thing, and with the same intention is present in asking God “in the name of Lord Jesus.” The Lord Jesus, in repeating this phrase often in John chapters 14 to 16, taught His true and committed disciples that they should learn to ask from God with the meaning, that just as God the Father always answers all prayers made by the Lord Jesus affirmatively, similarly He should answer the prayers made by the true and committed disciples of the Lord also. This brings before us an implication of using this phrase, that the Lord Jesus has given this promise only for those who have a Father and child relationship with God, just as the Lord Jesus had. In other words, only for those who are a part of God’s family, and as we have seen in the earlier articles, this is only possible on the basis of John 1:12-13. Or, is only possible for those who are the truly Born-Again Believers. Therefore, we come back to the same point, that to ask something from God in the name of the Lord Jesus is only possible for those who are the true and committed disciples of the Lord, are the children of God; and not for anyone who adds this phrase to any prayer he makes to God.
Why is it that Father God would answer all of Lord’s Jesus’ prayers? The Lord Jesus has Himself answered this question. The Lord’s answer is given in His conversation with the Jews in John chapter 5, from verse 17 onwards. We will not look up this whole section, but will consider only three verses:
John 5:19 “Then Jesus answered and said to them, "Most assuredly, I say to you, the Son can do nothing of Himself, but what He sees the Father do; for whatever He does, the Son also does in like manner.” The Lord did only that which God the Father did, and did it in the same manner as God the Father did. This is a picture of complete obedience and emulating God in a truly submissive and committed manner.
John 5:30 “I can of Myself do nothing. As I hear, I judge; and My judgment is righteous, because I do not seek My own will but the will of the Father who sent Me.” Although God has given all authority, all responsibility regarding judgment to the Lord Jesus, but the Lord Jesus, judged only according to the example set by God the Father, not any other way. The second thing that the Lord Jesus says over here is that He fulfills God’s will. Everything that the Lord did was based on this, as He had said when coming from heaven to earth, as is recorded in Hebrews 10:5-7.
John 5:36 “But I have a greater witness than John's; for the works which the Father has given Me to finish--the very works that I do--bear witness of Me, that the Father has sent Me.” We see another aspect of the works of the Lord Jesus - He did only those works that God had entrusted Him to do, not the works that He decided for Himself. Before being caught, He had said in His prayer to the Father, “I have glorified You on the earth. I have finished the work which You have given Me to do” (John 17:4).
From these verses we see that although the Lord Jesus was one of the Triune Godhead, was fully God, but now, when He had come to earth in the human form to fulfill God’s will, then he had fully surrendered Himself to God the Father, for all things. And for this reason, God the Father answered all His prayers to Him affirmatively. In an earlier article on this topic, we had seen from Matthew 10:24-25, a characteristic of a disciple of the Lord, that the disciples of the Lord are to be like the Lord. When the disciples of the Lord Jesus, start following the characteristics that the Lord Jesus has shown through His life, become submitted and obedient to God the Father as the Lord Jesus was, then they too will know and understand the will of God the Father, as the Lord Jesus did; and then, their prayer would also be in accordance with the will of God. And we have seen earlier, that those who are surrendered to God, those whose prayers are in accordance with the will of God, God fulfills those prayers. Therefore, inherent in using the phrase “ask in the name of the Lord Jesus” is the understanding that the one who is making this prayer, is a member of God’s family, just as the Lord Jesus was; and he is fully committed and surrendered to God the Father, knows God’s Word and will, and asks from God in accordance with God’s Word and will. Therefore, it is only natural that God the Father will answer and fulfill his prayers.
Therefore, the phrase “ask in the name of the Lord Jesus” is not a ‘mantra’ or a chant, or a phrase with some special powers that will compel God to answer all prayers that anyone may make in the affirmative. Rather, it is a way of saying that the one praying to God the Father, like the Lord Jesus is fully committed and surrendered to Him, knows God’s Word and His will, and that which he is asking, is in accordance with the Word and will of God. If all of these are true, then, no doubt the prayers of all such people will surely be fulfilled. From the next article, we will consider some related things given in John chapter 15.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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