Click Here for the English Translation
मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 73
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (15)
प्रार्थना करना, व्यावहारिक मसीही जीवन का एक अभिन्न अँग है, और हम प्रेरितों 2:42 से देखते हैं कि प्रार्थना करना उन चार बातों में से एक है, आरम्भिक मसीही विश्वासी जिन का लौलीन होकर पालन किया करते थे। किन्तु आज, जैसे मसीही विश्वास से सम्बन्धित सभी बातों के साथ हुआ है, प्रार्थना के बारे में भी बहुत सी गलत शिक्षाएं और भ्रांतियाँ मसीहियों में घुस आई हैं। ऐसा होने का मुख्य कारण है मसीहियों के द्वारा परमेश्वर के वचन का व्यक्तिगत अध्ययन करना छोड़ देना। जो वचन पढ़ते भी हैं, वचन के अध्ययन के स्थान पर उनमें से अधिकाँश लोग केवल औपचारिकता पूरी करने के लिए वचन का थोड़ा सा भाग पढ़ लेते हैं। वचन की शिक्षा के लिए लगभग सभी मसीही, पादरियों, कलीसिया के अगुवों, और प्रचारकों की कही बातों को, बिना वचन से जाँचे हुए, अन्ध-विश्वास के साथ स्वीकार कर लेते हैं। परिणाम स्वरूप, शैतान को हर बात के बारे में बहुत सी गलत शिक्षाओं और मानवीय व्याख्याओं तथा धारणाओं को घुसा देने का खुला द्वार मिल गया है, और वह इसका भरपूरी से उपयोग कर रहा है। इसीलिए, जैसे हमने पिछले लेखों में अन्य विषयों के लिए किया था, हम प्रार्थना के बारे में भी वचन में दी गई बातों से सीख रहे हैं, गलत शिक्षाओं तथा भ्रांतियों को पहचानने का प्रयास कर रहे हैं। हम देख चुके हैं कि प्रार्थना क्या है, और क्यों परमेश्वर चाहता है कि उसके लोग उसके साथ निरन्तर प्रार्थना में लगे रहें। हमने यह भी देखा है कि एक आम गलत व्याख्या और प्रचलित शिक्षा के विपरीत, परमेश्वर ने अपने वचन में यह प्रतिज्ञा नहीं की है कि वह हर किसी की “विश्वास से” माँगी हुई सभी प्रार्थनाओं सकारात्मक उत्तर देगा। वरन परमेश्वर ने यह स्पष्ट लिखा है कि वह किन लोगों की और कैसी प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर देगा। पिछले लेख में हमने इसी से सम्बन्धित एक अन्य गलत व्याख्या और शिक्षा की वास्तविकता को वचन से समझा था कि “यीशु के नाम में” माँगी गई प्रार्थनाओं को परमेश्वर हमेशा ही पूरा करेगा। इन सभी बातों के बारे में विचार करते हुए, हमने देखा है कि परमेश्वर अपने वास्तव में नया-जन्म पाए हुए और समर्पित, प्रतिबद्ध लोगों, अर्थात, उसके परिवार के सदस्यों की उन प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर देता है, जो वे उसके वचन से सुसंगत तथा उसकी इच्छा के अनुसार माँगते हैं। आज इसी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए हम यूहन्ना 15 अध्याय में इस सम्बन्ध में प्रभु द्वारा कही गई कुछ बातों को देखेंगे, उनपर विचार करेंगे।
पिछले लेखों में हमने देखा है कि प्रभु यीशु ने यूहन्ना 14 से 16 अध्याय में बारम्बार अपने शिष्यों से कहा है कि उसके नाम में वे जो भी पिता परमेश्वर से माँगेंगे, उसे वह पूरा करेगा। यही बात प्रभु ने यूहन्ना 15 अध्याय में भी कही है, और बहुधा इसे लेकर यह बताया और सिखाया जाता है कि यह सभी के लिए मान्य प्रभु की प्रतिज्ञा है। हम पिछले लेख में “यीशु के नाम में माँगने” पर विचार करते हुए, यह समझ चुके हैं कि प्रभु ने यह प्रतिज्ञा केवल अपने आज्ञाकारी, समर्पित, और प्रतिबद्ध शिष्यों को ही दी थी। और जिस समय प्रभु ने यह कहा था, तब तक यहूदा इस्करियोती उन्हें छोड़ कर जा चुका था। तात्पर्य यह कि प्रभु की यह प्रतिज्ञा अपने आप को प्रभु का शिष्य कहने वाले हर किसी जन के लिए नहीं थी, केवल वास्तविक और सच्चे शिष्यों के लिए थी। यूहन्ना 15 अध्याय से इसके बारे में देखने से हमारे सामने इस प्रतिज्ञा के विषय कुछ और महत्वपूर्ण तथ्य भी सामने आते हैं। साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि प्रभु की यह प्रतिज्ञा “सशर्त” थी, उन सच्चे, समर्पित, प्रतिबद्ध शिष्यों के लिए भी; यह कभी भी, कैसे भी उपयोग करने के लिए नहीं थी। चलिए, यूहन्ना 15 अध्याय में इस प्रतिज्ञा से सम्बन्धित पदों को देखते हैं।
यूहन्ना 15:4-5 “तुम मुझ में बने रहो, और मैं तुम में: जैसे डाली यदि दाखलता में बनी न रहे, तो अपने आप से नहीं फल सकती, वैसे ही तुम भी यदि मुझ में बने न रहो तो नहीं फल सकते। मैं दाखलता हूं: तुम डालियां हो; जो मुझ में बना रहता है, और मैं उस में, वह बहुत फल फलता है, क्योंकि मुझ से अलग हो कर तुम कुछ भी नहीं कर सकते।” प्रभु की सामर्थ्य से कुछ करने, “फल लाने” के लिए पहली शर्त है, प्रभु के सच्चे शिष्यों का भी हमेशा प्रभु के साथ बने रहना, उससे जुड़े रहना। अर्थात प्रार्थना में, वचन में, आज्ञाकारिता में (1 यूहन्ना 2:3-6) हमेशा प्रभु के साथ जुड़े रहना। यदा-कदा, केवल सुविधा और आवश्यकतानुसार ही प्रभु से जुड़ने वाले शिष्य प्रभु के लिए फलवन्त नहीं हो सकते हैं।
यूहन्ना 15:7 “यदि तुम मुझ में बने रहो, और मेरी बातें तुम में बनी रहें तो जो चाहो मांगो और वह तुम्हारे लिये हो जाएगा।” उपरोक्त शर्त की पुष्टि इस पद की शर्त से हो जाती है। प्रभु ने अपने उन सच्चे, समर्पित, और प्रतिबद्ध शिष्यों से यहाँ पर स्पष्ट कहा है कि यदि वे प्रभु में बने रहेंगे, और प्रभु की बातें उनमें बनी रहेंगी, तब ही उनकी प्रार्थना में माँगी गई बातें पूरी होंगी।
यूहन्ना 15:10 “यदि तुम मेरी आज्ञाओं को मानोगे, तो मेरे प्रेम में बने रहोगे: जैसा कि मैं ने अपने पिता की आज्ञाओं को माना है, और उसके प्रेम में बना रहता हूं।” प्रभु के ये वास्तविक शिष्य प्रभु के प्रेम में तब ही बने रह सकते हैं, जब वे प्रभु के आज्ञाकारी रहें। अर्थात, जब प्रभु के आज्ञाकारी रहेंगे, तो प्रभु से जुड़े रहेंगे, और जब जुड़े रहेंगे, तो परमेश्वर उनकी प्रार्थनाओं को सुनेगा और पूरा भी करेगा।
यूहन्ना 15:16 “तुम ने मुझे नहीं चुना परन्तु मैं ने तुम्हें चुना है और तुम्हें ठहराया ताकि तुम जा कर फल लाओ; और तुम्हारा फल बना रहे, कि तुम मेरे नाम से जो कुछ पिता से मांगो, वह तुम्हें दे।” प्रभु से, और प्रभु के नाम में पिता से माँगने का अधिकार उन्हीं का है जो प्रभु द्वारा चुने और ठहराए हुए हैं, जो प्रभु के लिए फलवन्त होते हैं। और जैसा ऊपर देखा है, यह फलवन्त होना, वास्तविक शिष्यों के प्रभु के आज्ञाकारी होने पर निर्भर है।
यूहन्ना 15:19 “यदि तुम संसार के होते, तो संसार अपनों से प्रीति रखता, परन्तु इस कारण कि तुम संसार के नहीं, वरन मैं ने तुम्हें संसार में से चुन लिया है इसी लिये संसार तुम से बैर रखता है।” जो प्रभु के चुने हुए हैं, वे प्रभु द्वारा संसार से अलग भी किए गए हैं। जिसकी पहचान है कि संसार और संसार के लोग, जैसे प्रभु से, वैसे ही उनसे भी बैर रखते हैं। तात्पर्य स्पष्ट है, जिनमें संसार और सांसारिकता की बातें हैं, जो संसार से और संसार जिन से प्रेम करता है, वे प्रभु के जन नहीं हैं (1 यूहन्ना 2:15-17)। इसलिए “यीशु के नाम में माँगने” का आश्वासन उन लोगों के लिए नहीं है।
अर्थात, यूहन्ना 15 अध्याय में प्रभु यीशु द्वारा अपने सच्चे, समर्पित, प्रतिबद्ध शिष्यों से कही गई बातें स्पष्ट कर देती हैं कि “यीशु के नाम में माँगने” की प्रतिज्ञा हर किसी के लिए नहीं है, केवल प्रभु के सच्चे, समर्पित, और प्रतिबद्ध शिष्यों के लिए है। और वह भी तब, जब वे उसके साथ जुड़े रहें, उसके आज्ञाकारी बने रहें। अगले लेख में हम “विश्वास से” प्रभु से माँगने के कुछ और उदाहरणों को परमेश्वर के वचन से देखेंगे और समझेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
******************************************************************
English Translation
Things Related to Christian Living – 73
The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (15)
Praying is an integral part of practical Christian living, and we see from Acts 2:42 that it is one of those four things that the initial Christian Believers observed steadfastly. But today, as has happened with everything associated with the Christian faith, many wrong teachings and misconceptions have come in amongst the Christians. The main reason for this is the Christians having given up studying God’s Word for themselves. Those who do read the Word, instead of studying the Word, they read a small portion, usually just to fulfill a formality. For teachings from God’s Word, practically all Christians depend on whatever the Pastors, Church Elders, and the Preachers tell them; and they blindly accept whatever they say without cross-checking and verifying whatever is taught. Consequently, Satan has an open door for him to bring in many wrong teachings, human interpretations, and notions, and he is making full use of this opportunity. That is why, as we have done in the previous articles about other topics, about ‘praying’ too we are studying from God’s Word, seeing what is written in God’s Word, to recognize and understand the wrong teachings and the misconceptions. We have seen what prayer actually is, and why God wants His people to constantly be praying to Him. We have also seen that contrary to a popular and prevalent notion, God has not promised in His Word that He will answer every prayer made to Him “in faith” in affirmative. Rather, God has very clearly written whose prayers and what kinds of prayers He will answer in the affirmative. In the last article we had seen and understood about another related misinterpretation and misconception that God will always answer in the affirmative the prayers made using the phrase “asking in Jesus’ name.” While considering all these things, we have seen that God only answers in the affirmative the prayers made by those of His truly Born-Again children who are fully committed and surrendered to Him, and those of their prayers that are consistent with His Word and in accordance with His will. Today, to further clarify this, we will see from John chapter 15 some things said by the Lord, and ponder over them.
In the preceding articles we have seen that the Lord has repeatedly said to His disciples in John chapters 14 to 16 that whatever they ask Father God in His name, God will fulfill it. The same thing, the Lord has also said in John chapter 15, and often this is taken to preach and teach that this is a promise by the Lord, given to and applicable for everyone. In the previous article, while learning about “asking in the name of Jesus” we have seen and understood that the Lord has given this promise only to His obedient, surrendered, and committed disciples. At the time when the Lord had said this promise, Judas Iscariot had already left them and gone away. The implication is that this promise by the Lord was not meant for anyone who calls himself a disciple of the Lord, but only for the true and actual disciples. On seeing this from John 15, some important facts related to this promise come up before us. Moreover, it also becomes clear to us that this promise of the Lord is “conditional,” even for those true, surrendered, and committed disciples of the Lord; it was never meant to be used casually and in any manner by them. Let us see the verses related to this promise from John 15.
John 15:4-5 “Abide in Me, and I in you. As the branch cannot bear fruit of itself, unless it abides in the vine, neither can you, unless you abide in Me. I am the vine, you are the branches. He who abides in Me, and I in him, bears much fruit; for without Me you can do nothing.” The first condition to doing something through the Lord’s power, being “fruitful” for Him is to abide in Him. The true disciples of the Lord have to remain constantly connected to Him, abiding in Him; in prayer, in the Word, in obedience (1 John 2:3-6). Those disciples who connect to the Lord off and on, only as per their convenience or only for their needs, cannot be fruitful for the Lord.
John 15:7 “If you abide in Me, and My words abide in you, you will ask what you desire, and it shall be done for you.” The condition of the aforementioned verses is affirmed by this verse. The Lord has made clear to His true, surrendered, and committed disciples that only when they abide in the Lord, and the Lord’s Word abides in them, will God listen and fulfill their prayers.
John 15:10 “If you keep My commandments, you will abide in My love, just as I have kept My Father's commandments and abide in His love.” These true disciples of the Lord can abide in the Lord’s love by staying obedient to Him. In other words, when they are obedient to the Lord, they will abide in Him, and when they abide in Him, then God will listen and fulfill their prayers.
John 15:16 “You did not choose Me, but I chose you and appointed you that you should go and bear fruit, and that your fruit should remain, that whatever you ask the Father in My name He may give you.” The right to ask the Lord, ask God the Father belongs to those who are chosen and appointed by the Lord, those who “bear fruit" for Him. And as we have seen above, this “bearing fruit” is only possible for the true disciples by being obedient to the Lord.
John 15:19 “If you were of the world, the world would love its own. Yet because you are not of the world, but I chose you out of the world, therefore the world hates you.” Those who have been chosen by the Lord, they have also been separated out from the world by the Lord. This is proved by the world and the people of the world hating them just as they hated the Lord. The implication is evident, those who have the world and the things of the world in them, those who love the world and whom the world loves, they are not the people of the Lord (1 John 2:15-17). Therefore, the assurance of “asking in the name of Jesus” is not for them.
In other words, the things that the Lord Jesus has said to His true, surrendered, committed disciples, make it very clear that the promise of “asking in the name of Jesus” is not for everyone, only for His true, surrendered, committed disciples. And that too when they abide in Him and remain obedient to Him. In the next article we will look at and understand some other examples of “asking in faith” from the Lord.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें