ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

शनिवार, 24 फ़रवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 179 – Stewards of The Gifts of the Holy Spirit / पवित्र आत्मा के वरदानों के भण्डारी – 10

Click Here for the English Translation


पवित्र आत्मा के वरदानों का उपयोग – 1

 

    नया-जन्म पाए हुए प्रत्येक मसीही विश्वासी को, परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए प्रावधानों और विशेषाधिकारों के बारे में और उनका उचित उपयोग करने के बारे में सीखना चाहिए, जिससे कि वह ऐसा मसीही जीवन जी सके जो परमेश्वर को महिमा प्रदान करता है और प्रभु यीशु के लिए गवाही देता है जिससे अन्य लोग प्रभु की ओर आकर्षित हो सकें। परमेश्वर पवित्र आत्मा प्रत्येक मसीही विश्वासी में उनके सहायक के रूप में विद्यमान रहता है और उसने प्रत्येक विश्वासी को कोई न कोई आत्मिक वरदान भी दिए हैं, जिससे वह परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई को पूरा कर सके और अपने मसीही जीवन को प्रभु के लिए योग्य रीति से जी सके। इस सन्दर्भ में, पिछले कुछ समय से हम पवित्र आत्मा के वरदानों के बारे में सीखते चले आ रहे हैं। आज से हम विश्वासियों को दिए गए पवित्र आत्मा के वरदानों के उपयोग के बारे में सीखना आरम्भ करेंगे।

    पिछले लेखों में हमने 1 कुरिन्थियों 12 अध्याय से देखा है कि मसीही विश्वासियों को, परमेश्वर द्वारा उनकी निर्धारित सेवकाई को सुचारु रीति से करने के लिए परमेश्वर पवित्र आत्मा विभिन्न आत्मिक वरदान देता है; क्योंकि व्यक्तियों की व्यक्तिगत सेवकाइयाँ भिन्न हैं, इसीलिए उन सेवकाइयों के साथ सम्बन्धित वरदान भी व्यक्तियों के लिए भिन्न हैं। सभी को एक ही वरदान नहीं दिया जाता है, और न ही किसी एक को सभी वरदान दिए जाते हैं। प्रत्येक को उनकी सेवकाई के अनुसार, तथा सभी की भलाई एवं मण्डली की उन्नति के लिए वरदान दिया जाता है; कोई भी वरदान किसी के व्यक्तिगत उपयोग अथवा लाभ के लिए नहीं है। किस को क्या वरदान दिया जाना है यह निर्णय परमेश्वर पवित्र आत्मा का है; इसमें किसी मनुष्य का किसी भी प्रकार का कोई भी हस्तक्षेप नहीं है। सभी सेवकाई और वरदान परमेश्वर की दृष्टि में समान महत्व के हैं, किसी के भी औरों की तुलना में बड़े-छोटे होने की, या कम अथवा अधिक महत्व का होने की कोई बात कहने अथवा शिक्षा देने का परमेश्वर के वचन में कोई आधार नहीं है। साथ ही फिर 1 कुरिन्थियों 12:31 पद में प्रोत्साहित किया गया है कि मण्डली के लोगों को मण्डली में अधिक से अधिक उपयोगी होने की ‘धुन’ में रहना चाहिए; किन्तु इस पद का दुरुपयोग यह दिखाने के लिए किया जाता है कि वरदान छोटे-बड़े हो सकते हैं, और विश्वासी अपनी इच्छा के अनुसार अपने लिए वरदान माँग सकते हैं - जो इस पद की अनुचित व्याख्या और गलत प्रयोग है।

    किन्तु मसीही मण्डलियों या कलीसिया के कार्यों में, कौन सी सेवकाई एवं वरदान अधिकांशतः प्रयोग किए जाते हैं, और किन के प्रयोग की आवश्यकता, तुलनात्मक रीति से, अन्य से कम होती है, उसके अनुसार 1 कुरिन्थियों 12:28 में एक क्रम दिया गया है, जिसमें सबसे पहले वचन की सेवकाइयों से संबंधित सेवकाइयों और वरदानों को लिखा गया है, जिस में सबसे पहले वचन की सेवकाई से सम्बन्धित वरदान लिखे गए हैं, और सबसे अंत में अन्य भाषाओं से संबंधित सेवकाई एवं वरदानों को लिखा गया है; अर्थात कलीसिया और मण्डली में वचन की सेवकाई से सम्बन्धित वरदान सबसे अधिक उपयोगी हैं न कि अन्य-भाषाएँ और उस से सम्बन्धित वरदान। कलीसिया या मण्डलियों में परमेश्वर के वचन से सम्बन्धित सेवकाइयों के सर्वाधिक उपयोगी होने को हम इफिसियों 4:11-15 से भी समझ सकते हैं, जहाँ पर पद 11 में वचन की सेवकाई के लिए प्रभु द्वारा नियुक्त किए गए पाँच भिन्न प्रकार के सेवक बताए गए हैं, और पद 12-15 में उनकी वचन की सेवकाई के प्रभाव दिए गए हैं: जिससे पवित्र लोग सिद्ध हो जाएँ, सेवा का काम किया जाए, मसीह के देह उन्नति पाए, सभी विश्वासी विश्वास और परमेश्वर के पुत्र की पहचान में एक हो जाएँ, एक सिद्ध मनुष्य बन जाएँ, बालक न रहें वरन मसीह के पूरे डील-डौल तक बढ़ जाएँ, और मनुष्यों द्वारा भरमाए जाने और उनकी गलत शिक्षाओं को पहचान सकें। ये सभी बातें प्रभु परमेश्वर के द्वारा नियुक्त सेवकों द्वारा वचन की सही शिक्षा कलीसिया और मण्डली के लोगों में दिए जाने से होती हैं। वचन की सही शिक्षा और पालन के जब व्यक्तिगत और कलीसिया के जीवन में इतने व्यापक और उत्तम प्रभाव हैं, तो फिर वचन की सेवकाई और समझ रखने से बढ़कर और कौन सा वरदान हो सकता है? और किसी को भी कलीसिया में इस सेवकाई के अतिरिक्त किसी अन्य सेवकाई की लालसा रखने की क्या आवश्यकता होगी?

    बाइबल में 1 कुरिन्थियों 12 अध्याय के अतिरिक्त भी अन्य स्थानों पर आत्मिक वरदानों के बारे में लिखा गया है। ऐसा ही एक वचन-भाग है रोमियों 12 अध्याय; इस अध्याय में भी परमेश्वर पवित्र आत्मा ने पौलुस के द्वारा आत्मिक वरदानों के बारे में कुछ भिन्न दृष्टिकोण से लिखवाया है। रोमियों के इस अध्याय में 1 कुरिन्थियों 12 के समान ही, न केवल वरदानों का उल्लेख और मसीही मण्डली को एक देह के समान दिखाकर सभी सदस्यों को साथ मिलकर कार्य करने और अपने वरदानों का प्रयोग करने का आह्वान है, वरन उनके प्रयोग के विषय कुछ अनिवार्य आत्मिक बातें और दृष्टिकोण भी बताए गए हैं। मानव देह को रूपक के समान प्रयोग करने और आत्मिक वरदानों के प्रयोग पर आने से पहले, पवित्र आत्मा ने इस अध्याय के आरंभिक पदों में इन दोनों बातों के सही निर्वाह के लिए एक आत्मिक दृष्टिकोण अपनाने और बनाए रखने की बात की है। स्वाभाविक है कि शारीरिक एवं सांसारिक विचारों तथा दृष्टिकोण को रखते हुए आत्मिक सेवकाई कर पाना संभव नहीं है। यदि परमेश्वर को प्रसन्न करना है, उससे आशीषें प्राप्त करनी हैं, तो शारीरिक एवं सांसारिक प्रवृत्ति से उठकर आत्मिक और परमेश्वर के अनुसार स्थिति में आना और रहना पड़ेगा। तब ही हम परमेश्वर की बात को समझने और निभाने पाएंगे, जिससे हमारे कार्य उसे स्वीकार्य हों, और वह उन कार्यों से प्रसन्न हो।

    इसीलिए पौलुस में होकर पवित्र आत्मा द्वारा इस अध्याय का आरंभ, इस आह्वान के साथ होता है: “इसलिये हे भाइयों, मैं तुम से परमेश्वर की दया स्मरण दिला कर बिनती करता हूं, कि अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान कर के चढ़ाओ: यही तुम्हारी आत्मिक सेवा है। और इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो” (रोमियों 12:1-2)। 

    इन दो पदों में ध्यान देने वाली कुछ बातें हैं जिन्हें हम अगले लेख में देखेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************

English Translation


Utilizing the Gifts of the Holy Spirit – 1

 

    Every Born-Again Christian Believer, as steward of God given provisions and privileges should learn about what God has given him, and how to worthily utilize it to live a Christian life that glorifies God and witnesses for the Lord Jesus to attract others to the Lord. God the Holy Spirit is present in every Believer as their Helper, and has given some spiritual gift, to help him fulfill his God given ministry and live his life worthily for the Lord. In this context, for past sometime, we have been studying about the gifts of the Holy Spirit. From today we will begin to study about utilizing the gifts God the Holy Spirit has given to the Believers.

    In the previous articles we have seen from 1 Corinthians 12 about the Spiritual gifts given to Christian Believers by God, according to the ministry He has assigned to them, so that through those gifts the Believers can carry out their ministry properly and worthily; as the people’s individual ministries are different, so are the people’s gifts associated with their ministries. Not everyone has been given the same gift, and no one has been given all the gifts. Every gift given to any person is according to the ministry assigned to him and is to be used for the benefit of all members and the edification of the Church; no gift is for anyone’s personal use or benefit. Who is to receive which gift is the decision of the Holy Spirit; no man has any say or interference in it. All ministries and gifts are of similar status and importance in God’s eyes; there is nothing to say or teach in God’s Word about any of the gifts or ministries being of greater or lesser importance than any other. Then, at the end of the chapter, in 1 Corinthians 12:31 the Christian Believers are encouraged to “earnestly desire” to be of best use in the Church; but this verse is misinterpreted and misused to say a Believer should ask for “best” gifts according to their desire, as if there are varying degrees of gifts, and gifts can be changed according to a person’s discretion.

    But on the basis of the relative frequency of utility of the ministries and gifts in the Church, i.e., those which are used more often and those which not used as often, in 1 Corinthians 12:28, a sequential list has been given. In this list at the top are the gifts and ministries related to the ministry of God’s Word, and the last gift in the list is the ministry and gift of ‘tongues’ i.e., of other languages; in other words, the gifts related to the ministry of God’s Word are used more frequently and are of greater utility than those related to tongues. We can understand the gifts related to the ministry of God’s Word to be of greatest utility from Ephesians 4:11-15 also; where in verse 11 five different ministries related to ministering the Word are mentioned, and then in verses 12-15 the effects of their ministries are given: equipping the saints for the work of ministry, edifying the body of Christ, all the Believers come to unity of faith and knowledge of the Son of God, come to be perfect men, do not remain children but grow to the stature of fullness of Christ, and be able to discern the false teachings and deceptive ways. All these things come about through the ministers appointed by the Lord for giving the correct teachings to the people of the Churches and Assemblies. When the effects of the right teachings of the Word and their obedience, in personal lives as well as in the Church are so extensive and virtuous, then which other ministry can be considered better than the ministry of the Word and of understanding it? Why should anyone need to desire any ministry other than being so utilized in the Church?

    Besides 1 Corinthians 12, there are other places in the Bible as well where teachings about Spiritual gifts have been given. One such portion is Romans chapter 12. In this chapter God the Holy Spirit has had teachings about the Spiritual gifts written by Paul with a somewhat different perspective than in Corinthians. Like in the letter to Corinthians, in Romans too, not only are the Spiritual gifts mentioned, but also using the human body metaphorically, all Church members have been exhorted to function together in unity, as members of one body and each other. For this functioning, in Romans some essential spiritual things and perspectives have been given. Before coming to using the body metaphorically and instructing about the utilization of the Spiritual gifts, in the opening verses of this chapter, God the Holy Spirit has instructed to adopt and maintain a correct spiritual perspective regarding using the Spiritual gifts - which is quite natural and expected, since it is impossible to carry out a Spiritual Ministry with a worldly and temporal attitude and perspective. If one has to please God and receive blessings from Him, then it is imperative to come out of the worldly and temporal perspective and come into the Spiritual one, a perspective that is as per God’s desire. Only then can we understand God’s point-of-view and fulfil it, so that we and our works are acceptable to God, and He is pleased with them. 

    For this reason, the Holy Spirit begins this chapter with the exhortation through Paul, “I beseech you therefore, brethren, by the mercies of God, that you present your bodies a living sacrifice, holy, acceptable to God, which is your reasonable service. And do not be conformed to this world, but be transformed by the renewing of your mind, that you may prove what is that good and acceptable and perfect will of God” (Romans 12:1-2).

    There are some things to take note of in these two verses, which we will see in the next article.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें