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शनिवार, 9 जून 2012

उचित

   "यह उचित नहीं है" आपने कई बार यह कहा नहीं तो सोचा अवश्य होगा। आप इस बात से भी सहमत होंगे कि किसी व्यक्ति को, उसके द्वारा करी गई किसी अनुचित बात के लिए बिना दण्ड मिले, बचकर निकल जाना देखना बहुत कड़ुवा अनुभव होता है। हम यह बात जीवन के आरंभिक दिनों ही में सीख लेते हैं; किसी भी किशोरावस्था के बच्चों के माता-पिता से पूछ कर देख लीजिए। बच्चों को, किसी ऐसी बात के लिए जिसके लिए उन्हें दण्ड भोगना पड़ा हो, अपने किसी भाई-बहिन को साफ बच कर निकलते देखना बिलकुल गंवारा नहीं है; इसीलिए वे एक दूसरे की शिकायत करने या उनका भांडा-फोड़ करने को तत्पर रहते हैं।

   हम इसे बचपना कह सकते हैं, पर हम अपने जीवन भर इस प्रवृति से निकल नहीं पाते हैं। हम व्यसकों के लिए "उचित" का अर्थ होता है कि वह दूसरा "पापी" परमेश्वर के न्याय, क्रोध और दण्ड का भागी होना चाहिए, और मुझ "धर्मी" को परमेश्वर से प्रशंसा और आशीष मिलनी चाहिए। किंतु सत्य तो यह है कि यदि परमेश्वर इसी प्रकार से "उचित" रहा होता तो हम सब कब के नाश हो गए होते! हम सब को परमेश्वर के आभारी होना चाहिए कि "उस ने हमारे पापों के अनुसार हम से व्यवहार नहीं किया, और न हमारे अधर्म के कामों के अनुसार हम को बदला दिया है" (भजन १०३:१०)।

   हमें कुड़कुड़ाना नहीं वरन धन्यवाद करना चाहिए कि परमेश्वर हम में से किसी को भी वह नहीं देता जो हमारे लिए "उचित" है, वरन अपने धैर्य, अपनी करुणा और अनुग्रह में हो कर हम से प्रेम और सहिषुण्ता के साथ व्यवहार करता है। वह अपनी करुणा और और अनुग्रह उन पर भी उंडेलेने को तैयार रहता है जो इसके सर्वथा अयोग्य हैं और उसके विमुख रहते हैं। ज़रा सा रुक कर अपने जीवन में झांक कर देखिए, आखिरी बार कब था जब आपने "न्याय" नहीं वरन सहनशीलता, करुणा और अनुग्रह से किसी ऐसे के प्रति व्यवहार किया जिसने आपकी कोई हानि करी?

   परमेश्वर का न्याय नहीं, वरन परमेश्वर का प्रेम है जो उसे बाध्य करता है कि वह आपको और मुझे पुकारता और ढ़ूंढ़ता हुआ आता है; और हमारे उसके पास लौट आने पर स्वर्ग में आनन्द मनाया जाता है (लूका १५:७)।

   व्यक्तिगत रीति से पूछिए तो मैं तो परमेश्वर का बहुत धन्यवादी और आभारी हूँ कि उसने मुझ से "उचित" व्यवहार नहीं किया है। क्या आप भी मेरे साथ सहमत हैं? - जो स्टोवैल


क्योंकि परमेश्वर ने पहले हम पर अपनी करुणा तथा दया दिखाई है, इसलिए हम भी दूसरों के प्रति यही व्यवहार प्रदर्शित कर सकते हैं।

उस ने हमारे पापों के अनुसार हम से व्यवहार नहीं किया, और न हमारे अधर्म के कामों के अनुसार हम को बदला दिया है। - भजन १०३:१०

बाइबल पाठ: भजन १०३:१-१४
Psa 103:1  हे मेरे मन, यहोवा को धन्य कह, और जो कुछ मुझ में है, वह उसके पवित्र नाम को धन्य कहे!
Psa 103:2  हे मेरे मन, यहोवा को धन्य कह, और उसके किसी उपकार को न भूलना।
Psa 103:3  वही तो तेरे सब अधर्म को क्षमा करता, और तेरे सब रोगों को चंगा करता है,
Psa 103:4  वही तो तेरे प्राण को नाश होने से बचा लेता है, और तेरे सिर पर करूणा और दया का मुकुट बान्धता है,
Psa 103:5  वही तो तेरी लालसा को उत्तम पदार्थों से तृप्त करता है, जिस से तेरी जवानी उकाब की नाईं नई हो जाती है।
Psa 103:6  यहोवा सब पिसे हुओं के लिये धर्म और न्याय के काम करता है।
Psa 103:7  उस ने मूसा को अपनी गति, और इस्राएलियों पर अपने काम प्रगट किए।
Psa 103:8  यहोवा दयालु और अनुग्रहकरी, विलम्ब से कोप करने वाला और अति करूणामय है।
Psa 103:9  वह सर्वदा वादविवाद करता न रहेगा, न उसका क्रोध सदा के लिये भड़का रहेगा।
Psa 103:10  उस ने हमारे पापों के अनुसार हम से व्यवहार नहीं किया, और न हमारे अधर्म के कामों के अनुसार हम को बदला दिया है।
Psa 103:11  जैसे आकाश पृथ्वी के ऊपर ऊंचा है, वैसे ही उसकी करूणा उसके डरवैयों के ऊपर प्रबल है।
Psa 103:12  उदयाचल अस्ताचल से जितनी दूर है, उस ने हमारे अपराधों को हम से उतनी ही दूर कर दिया है।
Psa 103:13  जैसे पिता अपने बालकों पर दया करता है, वैसे ही यहोवा अपने डरवैयों पर दया करता है।
Psa 103:14  क्योंकि वह हमारी सृष्टि जानता है, और उसको स्मरण रहता है कि मनुष्य मिट्टी ही है।


एक साल में बाइबल: 

  • २ इतिहास ३२-३३ 
  • यूहन्ना १८:१९-४०

1 टिप्पणी:

  1. ये जीवन का कड़वा सच है की यदि हम पापी है तो इससे हमें कोई फर्क नही पड़ता , परन्तु जब वही पाप जो हमने किया है वही कोई दूसरा करता है तो हम ये बर्दास्त नही कर सकते ,और उसे दंड दिलाने या न्याय करने की फ़िराक में लग जाते है .
    परन्तु अगर यही यीशु भी करते , तो आज हम अपने पापों में ही जी रहे होते ,
    परन्तु यीशु ने ऐसा नही किया ,वो बलिदान हुए हमारे लिए , हमारे पापों के लिए , वो बलिदान हुए हमारे अधर्म के लिये, और हमारे पापों का क़र्ज़ उन्होंने अपने पवित्र खून से चुकाया ,
    विचार कीजिये अगर यीशु भी " उचित " न्याय करते तो क्या होता .....................!

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