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सोमवार, 6 मार्च 2023

आराधना (2) / Understanding Worship (2)

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बुनियादी तथ्य


पिछले लेख में, जो आराधना पर हमारी इस बाइबल अध्ययन का परिचय था, हम ने लेख का अन्त यह कहते हुए किया था कि परमेश्वर की आराधना करना हमें परमेश्वर के द्वारा शैतान तथा उसकी युक्तियों के विरुद्ध दिया गया एक बहुत सामर्थी हथियार है, जिसके द्वारा मसीही विश्वासी और मसीही सेवकाई सुरक्षित रह सकते हैं; एक विजयी और आनन्दित जीवन जी सकते हैं। किन्तु यह दुःख की बात है कि अधिकांश विश्वासी प्रभु परमेश्वर द्वारा प्रदान की गई इस सामर्थ्य को न तो ठीक से समझते हैं, और न ही उसका ठीक से उपयोग करते हैं। और इसीलिए वे एक साधारण सा या हारा हुआ भी जीवन व्यतीत करते रह जाते हैं। जब कि आराधना के द्वारा उन्हें वह बहुतायत का जीवन जीते हुए होना चाहिए जिसकी बात प्रभु यीशु ने यूहन्ना 10:10 में की और चाहता है कि उसके लोग जीएँ।


अदन की वाटिका में किए गाए प्रथम पाप के साथ ही परमेश्वर के साथ मनुष्य की संगति और सहभागिता टूट गई। पाप करने से पहले मनुष्य निःसंकोच परमेश्वर के साथ मिल सकता था और बातचीत कर सकता था। परमेश्वर ने उसकी प्रत्येक आवश्यकता का इंतज़ाम कर के दे रखा था, और उसे किसी भी बात के लिए प्रार्थना करने, परमेश्वर से माँगने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। लेकिन पाप और और उसके दुष्प्रभावों के कारण मनुष्य ने अपनी इस विशिष्ट स्थिति को गँवा दिया, और अब वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए परिश्रम करने की स्थिति में आ गया। परमेश्वर ने मनुष्य को अदन की वाटिका से तो निकला दिया, किन्तु उसे त्याग नहीं दिया, और न ही उसे पूर्णतः उसके हाल और कार्यों पर छोड़ दिया। परमेश्वर फिर भी मनुष्य की सहायता करता रहा; उत्पत्ति 4 अध्याय पढ़िए - हव्वा ने परमेश्वर की सहायता से ही अपनी संतान को जन्म दिया; परमेश्वर ने कैन के साथ भी, जो उसने किया था उसके बारे में वार्तालाप किया और ज़ारी भी रखा; लेमेक को आश्वासन था कि परमेश्वर उसका भी पलटा लेगा, आदि। और संपूर्ण बाइबल के इतिहास के समय से लेकर आज तक परमेश्वर लोगों के साथ बात करता आ रहा है, उन्हें चिताता, सिखाता, और समझाता आ रहा है, अनेकों प्रकार से उनकी सहायता करता आ रहा है। तो, हम देखते हैं कि पाप में गिर जाने के बाद से मनुष्य परमेश्वर के साथ दो प्रकार से संपर्क करता रहा है - परमेश्वर को कुछ देने के द्वारा, जैसे कैन और हाबिल ने किया (उत्पत्ति 4:3-4), और दूसरा, जैसा कि आगे चलकर उत्पत्ति 4:26 में लिखा है “...उसी समय से लोग यहोवा से प्रार्थना करने लगे”।


आज हम भी परमेश्वर के साथ इन्हीं दो बुनियादी तरीकों से ही संपर्क या वार्तालाप करते हैं - या तो हम परमेश्वर को कुछ अर्पित करते हैं, या उसे पुकार कर उससे कुछ माँगते हैं, वह चाहे अपने लिए हो या किसी अन्य की आवश्यकताओं के लिए हो। परमेश्वर से कुछ करने के लिए कहना, कुछ माँगना, प्रार्थना है; जब कि परमेश्वर को कुछ देना आराधना है या आराधना करना है। तो, इन बातों की बुनियादी समझ यह है कि आराधना परमेश्वर को कुछ देना है, प्रार्थना परमेश्वर से कुछ माँगना और लेना है। आराधना और प्रार्थना के मध्य के इस बुनियादी अंतर को समझना और उसका निर्वाह करना बहुत आवश्यक है। बहुत से लोग, अकसर, परमेश्वर से आराधना का आरंभ परमेश्वर को धन्यवाद करने के साथ करते हैं, और फिर थोड़ी सी देर में प्रार्थना में आ जाते हैं; अर्थात अपनी या औरों की आवश्यकताओं को बताने लगते हैं, उनके समाधान के लिए परमेश्वर से आग्रह करने लगते हैं। यह सच्ची आराधना नहीं है। जैसा हम आगे के लेखों में देखेंगे, निःसंदेह आराधना प्रार्थना को और अधिक प्रभावी बना देती है, लेकिन परमेश्वर से कुछ माँगना, प्रार्थना करना, आराधना नहीं है, क्योंकि वह परमेश्वर को देना नहीं है।


अगले लेख में हम यहीं से आगे चलेंगे, और उन विभिन्न तरीकों को देखेंगे जिनके द्वारा हम परमेश्वर को कुछ दे सकते हैं। लेकिन अभी के लिए परमेश्वर के वचन में से एक पद पर विचार कीजिए   “मैं ने तुम्हें सब कुछ कर के दिखाया, कि इस रीति से परिश्रम करते हुए निर्बलों को सम्हालना, और प्रभु यीशु की बातें स्मरण रखना अवश्य है, कि उसने आप ही कहा है; कि लेने से देना धन्य है” (प्रेरितों 20:35)। इसे परमेश्वर के विषय एक बहुधा कही जाने वाली बात, ‘परमेश्वर कभी किसी का कर्ज़दार नहीं रहता’, अर्थात, परमेश्वर कभी किसी के एहसान या दिए हुए के नीचे नहीं रहता, के साथ जोड़कर उस पर सोचिए। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कोई व्यक्ति, अपनी योग्यता और सामर्थ्य का अनुसार परमेश्वर को कुछ देगा, तो परमेश्वर भी उसे लौटा कर कुछ-न-कुछ देगा, और परमेश्वर अपनी योग्यता एवं सामर्थ्य के अनुसार लौटा कर देगा। इसलिए ज़रा विचार कीजिए, कि व्यक्ति के लिए परमेश्वर से केवल प्रार्थना करने की बजाए, परमेश्वर की आराधना भी करना कितना अधिक लाभदायक होगा। यदि वह परमेश्वर से केवल माँगते रहने वाला होने की बजाए परमेश्वर को देते रहने वाला भी होगा, तो उसका जीवन कहाँ से कहाँ पहुँच जाएगा।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • व्यवस्थाविवरण 1-2           

  • मरकुस 10:1-31      


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English Translation


Basic Facts


In the last article, the Introduction to this Bible Study series on Worship, we had concluded by mentioning that Worshiping God is a very powerful God given weapon against Satan and his devious ploys against the Believers and their Christian Ministry. It is the God given tool in the hands of a Christian Believer, to live a victorious and joyful Christian life. But unfortunately, it is often neither properly understood, nor effectively used by most Believers, and therefore they continue living a very average or often even a defeated Christian life. Whereas, through Worship, they should be leading the abundant life Lord Jesus has promised in John 10:10, and laid out for them.


With the first sin, committed in the garden of Eden, man’s fellowship with God was broken. Prior to the sin, man could freely talk and fellowship with God; all his needs had already been taken care of by God, and there was no need for him to pray and ask for anything. But with sin and its effects, man lost this privileged position, and would now have to work to provide for his needs. God had cast man out of the garden of Eden, but had not abandoned him altogether, nor left him entirely to his own devices. God still helped man; see Genesis 4 - Eve bore her children with the help of God; God conversed with Cain about what he had done with Abel; Lamech had an assurance of God avenging him, etc. And, throughout the times of the history of the Bible till today, God has been communicating with people, has been warning, teaching, and advising people, has been helping them in numerous ways. So, we see that since after the fall, man has communicated with God basically in two ways - offering something to God, as Cain and Abel did (Genesis 4:3-4), and later as written in Genesis 4:26, “...Then men began to call on the name of the Lord.” 


Today, we too communicate with God through one of these two basic ways - either offer something to God, i.e., give God; and second by calling upon Him, i.e., asking of things from Him or requesting Him for meeting needs - whether those needs are ours or of others. Asking God to do something, is Prayer; offering something to God, giving Him something is Worship or worshiping Him. So, basically, to worship God is to give Him something; whereas prayer is to receive something from God. This fundamental difference between prayer and worship has to be understood and kept in mind when we worship God. Many people begin worship by thanking God, and then in a very short while switch over to prayer, i.e., to telling God about various needs - their own, or of others, and asking Him to meet those needs. That is not true worship. As we will see later, worship does make prayers more effective, but prayer, i.e., asking God for something is not worshipping God, i.e., is not giving to God.


We will carry on from here in the next article, and see the various ways and how we can give to God. But for now, ponder over a verse from God’s Word “I have shown you in every way, by laboring like this, that you must support the weak. And remember the words of the Lord Jesus, that He said, 'It is more blessed to give than to receive.' " (Acts 20:35). Couple this with a commonly used saying about God - ‘God is never anybody’s debtor’, i.e., God never remains under any obligation or debt to anyone. The implication is that if anyone, according to his own abilities, gives anything to God, God will always give something back to him for it and that too according to God’s abilities. Therefore, how much more beneficial it is for a person to worship God, i.e., be the one who gives to God, than only pray to God, i.e., being the one who only requests things from Him.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.  


Through the Bible in a Year: 

  • Deuteronomy 1-2

  • Mark 10:1-31



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