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शनिवार, 3 जुलाई 2010

अय्युब का सिद्धांत

जब मेरी पत्नी ने हमारे घर से कई मील दूर एक शिक्षा निर्देशिका की नौकरी स्वीकार करी तो इसके लिये उसे रोज़ बहुत लम्बी दूरी तय करनी होती थी। कुछ समय के लिये तो यह सहा जा सकता था लेकिन हम दोनो देख सकते थे कि इसे लम्बे समय तक कर पाना संभव नहीं होगा। इसलिये हमने निर्णय लिया कि हम एक दुसरी जगह जाकर रहेंगे जो हम दोनो के काम के स्थानों के मध्य में हो।

मकान खरीदने-बेचने वाले एजेंट को हमारा मकान जल्दी बिकने की उम्मीद नहीं थी क्योंकि कई मकान बिकने के लिये थे और खरीददार कम थे। फिर भी बहुत प्रार्थना करने और मेहन्त से घर कि सफाई करने के बाद हमने उसे बिकने के लिये दे दिया। हमें अचंभा हुआ यह देखकर कि तीन सप्ताह से भी कम समय में हमारा मकान बिक गया!

कभी कभी मुझे भौतिक आशीशें मिलने से अपने अन्दर अपराध-बोध होता है। जब संसार में इतनी ज़रूरतें हैं तो मुझे क्योंकर अपने मकान के बिकने के लिये परमेश्वर की सहायता की उम्मीद रखनी चाहिये? फिर मुझे अय्युब द्वारा अपनी पत्नी को दिया गया उत्तर स्मरण आता है, "क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दु:ख न लें?" - अय्युब २:१०।

इस पद का प्रयोग अधिकांशतः निराशाओं और बुरी परिस्थितियों को ग्रहण करना समझाने के लिये किया जाता है। किंतु इस पद का सिद्धांत है परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ रहना, भलाई में भी और बुराई में भी। पौलुस प्रेरित ने सीख लिया था कि बहुतायत हो या कमी-घटी, हर परिस्थिति मे कैसे आनन्दित रहना है (फिलिप्पियों ४:१०-१३)। परमेश्वर हमें हानि हो या लाभ, सन्तोष सहित जीवन जीना सिखाना चाहता है।

हर परिस्थिति में हर बात के लिये परमेश्वर का धन्यवादि होना दिखाता है कि हम उसकी की सार्वभौमिकता को मानते हैं और हर बात के प्रति उसपर विश्वास रखते हैं। - डेनिस फिशर


मैं अपनी मां के पेट से नंगा निकला और वहीं नंगा लौट जाऊंगा; परमेश्वर ने दिया और परमेश्वर ही ने लिया, परमेश्वर का नाम धन्य हो। - अय्युब १:२१


बाइबल पाठ: फिलिप्पियों ४:१०-१३


क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दु:ख न लें? - अय्युब २:१०


  • एक साल में बाइबल:
  • अय्युब २५-२७
  • प्रेरितों के काम १२