ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

सोमवार, 30 अक्टूबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 65 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 51

परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 19

 

    पिछले लेख में हमने 2 कुरिन्थियों 4:1 से देखा था कि परमेश्वर के वचन के उपयोग और उसके साथ व्यवहार में पौलुस किस तरह से तीन बातों का ध्यान रखता था – उसकी सेवकाई परमेश्वर द्वारा निर्धारित थी, उस पर परमेश्वर की दया के कारण थी, और उसके लिए वह पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और सामर्थ्य से खराई से बहुत परिश्रम करता था। पौलुस ने अपने परिश्रम के परिणामों को परमेश्वर के हाथों में छोड़ दिया था, उसे अपनी परिस्थितियों की, उसके प्रति लोगों के व्यवहार की, उस सेवकाई के परिणामों की कोई चिंता नहीं थी, और इसीलिए ऐसी बातों से वह निराश भी नहीं होता था। आज से हम अगले पद, 2 कुरिन्थियों 4:2 पर विचार आरम्भ करेंगे, और पौलुस से हमारे वर्तमान समय के लिए परमेश्वर के वचन का उपयोग और उससे व्यवहार सीखना जारी रखेंगे।

    

    इस पद में, पौलुस, उसके द्वारा परमेश्वर के वचन के उपयोग और उससे व्यवहार के तीन गुणों को हमारे सामने रखता है, तथा साथ ही वचन की उसकी सेवकाई के उद्देश्य को भी बताता है। यहाँ पर पौलुस बताता है कि उसने तीन गुणों के द्वारा सत्य को प्रगट किया, ताकि हर एक मनुष्य के विवेक में अपनी भलाई बैठाई, यह ध्यान रखते हुए कि यह सब कुछ परमेश्वर के सामने, अर्थात, उसकी जानकारी में हो रहा है, और परमेश्वर को हमेशा ही पता रहता है कि वे क्या कर रहे हैं। इस पद में दिए गए पौलुस की सेवकाई के तीन गुण हैं:

·        लज्जा के गुप्त कामों को त्यागना

·        चतुराई से न चलना

·        परमेश्वर के वचन में मिलावट नहीं करना

 

    पौलुस यहाँ पर कहता है कि उपरोक्त गुणों के द्वारा, उसकी सेवकाई का उद्देश्य था सत्य को प्रगट करना, जिस से कि वह प्रत्येक मनुष्य के विवेक में अपनी भलाई बैठा सके, इस बात का ध्यान रखते हुए कि वे हमेशा परमेश्वर की दृष्टि में बने रहते हैं। यह एक बार फिर से, पौलुस के उदाहरण का अनुसरण करने के द्वारा, परमेश्वर के वचन की सेवकाई का एक और उद्देश्य हमारे सामने रखता है – सत्य को प्रगट करना। इसलिए, हम यह समझ सकते हैं कि परमेश्वर के वचन की सेवकाई किसी के द्वारा पवित्र शास्त्र के विषय उसके ज्ञान और समझ का प्रदर्शन करने के लिए नहीं है। पौलुस एक बहुत ज्ञानवान और प्रशिक्षित फरीसी था, परन्तु पवित्र शास्त्र के विषय अपने ज्ञान को प्रदर्शित करने की बजाए, उसने यीशु की पहचान को प्राप्त करने के लिए अपने ज्ञान का तिरस्कार किया, उसे कूड़ा समझा, क्योंकि अपने ज्ञान के द्वारा वह मसीह को प्राप्त कर पाने में असमर्थ था (फिलिप्पियों 3:7-8)। न ही वचन की सेवकाई मण्डली में अपने अनुयायी बनाने, गुट-बाज़ी करने, अपना अनुसरण करने वाले लोगों का समूह बना लेने के लिए है; हम देख चुके हैं कि पौलुस ने ऐसी प्रवृत्तियों की तीव्र भर्त्सना की है (रोमियों 16:17; 1 थिस्सलुनीकियों 2:6)। और न ही यह सेवकाई साँसारिक संपत्ति अर्जित करने, भौतिक लाभ कमाने का तरीका है – पौलुस ने इसके विरुद्ध भी कठोरता से लिखा है (रोमियों 8:5-7; फिलिप्पियों 3:19; 1 तीमुथियुस 6:5)।


    लेकिन जैसा कि पौलुस ने अपने जीवन के द्वारा दिखाया है, और यहाँ इस पद में वह कहता भी है, परमेश्वर के वचन की सेवकाई का उद्देश्य है परमेश्वर के वचन के सत्य को सँसार के सामने उजागर करना। यही, यह अभिप्राय देता है कि परमेश्वर के वचन को उसकी शुद्धता और पवित्रता में ही प्रस्तुत करना है, बिना उस में मानवीय बुद्धि और समझ की कोई बात मिलाए। जैसा हम पहले देख चुके हैं, यह कार्य स्पष्ट, सीधे और सहज रीति से किया जाना है, जिससे कि श्रोता उसे सुनकर आसानी से समझ सकें। ध्यान कीजिए कि जिस समय पौलुस ने यह लिखा था, अधिकांश लोग अनपढ़ होते थे, वे सीधे-सादे और साधारण लोग होते थे, जिनकी शब्दावली बहुत सीमित थी। इसीलिए, किसी भी जटिल, या आलंकारिक, या समझने में कठिन भाषा का उपयोग, परमेश्वर के वचन के प्रचार और शिक्षा के उद्देश्य को ही व्यर्थ कर देता। और एक तरह से, आज भी हमारे लिए यह बात सही है, क्योंकि आज भी अधिकांश लोग परमेश्वर के वचन के बारे में ‘अनपढ़’ और ‘साधारण’ ही हैं। इसीलिए, उनके लिए भी वचन को उन्हें सीधे, स्पष्ट, और सहज रीति से दिए जाने की आवश्यकता है। हम पहले देख चुके हैं कि पौलुस सामान्य लोगों के मध्य बहुत सीधे और सहज रीति से बोलता था (1 कुरिन्थियों 2:1); और वह आत्मिक रीति से परिपक्व लोगों के मध्य ही परमेश्वर के वचन की गूढ़ बातें और भेदो की बात करता था (1 कुरिन्थियों 2:6-7)। साथ ही, परमेश्वर के वचन के सत्य को प्रस्तुत करने के लिए, परमेश्वर के वचन में किसी भी प्रकार की कोई मानवीय समझ और बुद्धि, या वाक्पटुता के मिलाने की ज़रा भी गुंजाइश नहीं है, लेश-मात्र भी नहीं, क्योंकि शब्दों के ज्ञान का उपयोग क्रूस के सन्देश को व्यर्थ कर देता है (1 कुरिन्थियों 1:17)।


    आने वाले लेखों में हम इस पद में परमेश्वर के वचन की सेवकाई के संबंध में कही गई अन्य बातों पर विचार करना ज़ारी रखेंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

***********************************************************************

Appropriately Handling God’s Word – 19

 

    In the previous article we have seen from 2 Corinthians 4:1 how Paul, in handling utilizing and God’s Word, took care of three things – his ministry was God assigned, it was because of God’s mercy, and he labored diligently for his ministry under the guidance and power of the Holy Spirit. Paul had left the results of his labors to God, without being discouraged or worried about his circumstances, how people behaved towards him, and the results of his ministry. Today we will take up the next verse, i.e., 2 Corinthians 4:2 for consideration, and continue to learn from Paul about our utilizing and handling God’s Word nowadays.


    In this verse Paul gives three characteristics of his utilizing and handling God’s Word, and his purpose in the ministry of God’s Word. Paul says here that he did these things to manifest the truth, commend themselves in every man’s conscience, and being aware that they are always in God’s sight, and God is always aware of whatever they do. The three characteristics of Paul’s ministry, as given in this verse are:

·        Having renounced the hidden things of shame

·        Not walking in craftiness

·        Not handling the Word of God deceitfully

 

    Paul here states that through the above-mentioned characteristics, the aim of his ministry was to manifest the truth so as to make themselves commendable to every person’s conscience, knowing that they are always under the watchful eyes of God. This, through emulating Paul, sets before us another of the purposes of the ministry of God’s Word – to manifest or display the truth. Therefore, we can understand that the ministry of God’s Word is not to display one’s knowledge and understanding of the Scriptures. Paul was a very learned Pharisee, but instead of displaying his knowledge of the Scriptures, he denounced it in light of the excellence of the knowledge of Christ Jesus, since that knowledge was unable to have him gain Christ (Philippians 3:7-8). Nor is the Word ministry meant to acquire a fan-following and cause any factionalism or have one’s own group of followers, in the Church; we have seen earlier how Paul strongly spoke against these tendencies (Romans 16:17; 1 Thessalonians 2:6). Nor is it meant to be a means of acquiring worldly wealth and temporal gains – this too Paul has spoken against very strongly (Romans 8:5-7; Philippians 3:19; 1 Timothy 6:5).


    But, as Paul demonstrates from his own life, and says here in this verse, the ministry of the Word of God is to bring forth the truth of God’s Word before the world. This by itself implies that the Word of God has to be presented in its purity and holiness, and unadulterated by any human thoughts or understanding. As we have seen earlier, this has to be done in a clear, simple, straightforward manner, so that the audience can easily understand and follow it. Remember, when Paul wrote this, the vast majority of the population was illiterate, they were simple rustic folks with a limited vocabulary. Therefore, any complex, or idiomatic, or difficult to understand language would defeat the very purpose of preaching and teaching God’s Word; and in a manner of speaking, the same holds true even today, since the vast majority of the people are ‘illiterate’ and ‘simple’ regarding God’s Word even today. Therefore, they too need it to be presented to them in a simple, easy to understand manner. We saw earlier that Paul spoke in very simple straightforward manner to the common people (1 Corinthians 2:1); he spoke the mysteries and wisdom of God’s Word only amongst the spiritually mature (1 Corinthians 2:6-7). Moreover, for presenting the truth of God’s Word, there is no scope, none whatsoever, of mixing in one’s own eloquence and understanding about God’s Word, since, as we have seen earlier, preaching with the wisdom of words only spoils God’s Word, making it vain (1 Corinthians 1:17).


    In the coming articles, we will continue to ponder over the other things stated in this verse, related to the ministry of the Word of God.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well