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गुरुवार, 29 फ़रवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 184 – Stewards of The Gifts of the Holy Spirit / पवित्र आत्मा के वरदानों के भण्डारी – 15

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पवित्र आत्मा के वरदानों का उपयोग – 6

 

    प्रत्येक नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी, परमेश्वर द्वारा उसे प्रदान किए गए प्रावधानों और विशेषाधिकारों का भण्डारी है और उन्हें अपने मसीही जीवन एवं सेवकाई में योग्य रीति से उपयोग करने के लिए परमेश्वर को उत्तरदायी है। वर्तमान में हम रोमियों 12 अध्याय से पवित्र आत्मा द्वारा दिए गए वरदानों के उचित उपयोग करने के बारे में सीख रहे हैं। परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा प्रत्येक मसीही विश्वासी को वरदान दिए गए हैं, जो परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई के अनुसार हैं। सभी विश्वासियों को इन वरदानों को अपनी नहीं वरन कलीसिया की भलाई और उन्नति के लिए उपयोग करना है। अभी तक हमने पिछले लेखों में रोमियों 12:1-5 से देखा है कि पवित्र आत्मा सभी विश्वासियों को परमेश्वर को पूर्णतः समर्पित और आज्ञाकारी होने, अपने आप का स्वयं-आँकलन करने वाला बनाने के द्वारा वरदानों के प्रयोग के लिए व्यक्तिगत रीति से तैयार होने को कहता है। इसके बाद अब पवित्र आत्मा उसके द्वारा दिए गए वरदानों के व्यावहारिक प्रयोग के बारे में पद 6-8 में बताता है; एक बार फिर हमारे सामने आत्मिक वरदानों से संबंधित सदा ध्यान रखने और पालन करने वाले तथ्यों को दोहराता है। यह पद स्मरण दिलाते हैं कि:

  • सभी मसीही विश्वासियों को भिन्न-भिन्न वरदान दिए गए हैं; सभी को एक ही वरदान नहीं दिया गया है, और न ही किसी एक को सभी या अधिकांश वरदान दिए गए हैं। इसलिए किसी एक वरदान के सभी में विद्यमान होने की इच्छा रखना और परमेश्वर से यह माँग करने की शिक्षा, परमेश्वर के वचन के अनुसार सही नहीं है। क्योंकि न तो हर किसी की एक ही सेवकाई है, और न ही हर किसी को एक ही, या समान वरदान दिया गया है। प्रत्येक को अपने वरदान को पहचानना है और उस के बारे में जानना है, तथा ईमानदारी के साथ, निरन्तर, पूरी लग्न से उसे कलीसिया की भलाई के लिए उपयोग करने में लगे रहना है। यहाँ पर ऐसा कोई संकेत अथवा शिक्षा नहीं दी गई है कि परमेश्वर से अपने वरदान को किसी अन्य में बदलने के प्रयास किए जाएँ।

  • यहाँ पर किसी सेवकाई अथवा वरदान को किसी अन्य की तुलना में बड़ा या छोटा, अथवा कम या अधिक महत्वपूर्ण नहीं कहा गया है। मसीही सेवकाई और उनके निर्वाह के लिए दिए गए आत्मिक वरदानों के विषय इस प्रकार की कोई धारणा रखना और सिखाना, ऐसा कोई प्रचार करना, वचन के अनुसार सही नहीं है। 

  • प्रत्येक मसीही विश्वासी को ये वरदान परमेश्वर द्वारा उसके अनुग्रह में होकर दिए गए हैं। किसे कौन सी सेवकाई देनी है, और फिर उस सेवकाई के अनुसार किसे कौन सा वरदान देना है, यह परमेश्वर ही निर्धारित करता है। सेवकाई और वरदानों के दिए जाने में किसी मनुष्य की किसी भी प्रकार की कोई भी भूमिका नहीं है। किसी को भी कोई भी वरदान, उसकी किसी योग्यता अथवा गुण के अनुसार नहीं दिए गए हैं। इसका एक उत्तम उदाहरण है प्रेरित पतरस और पौलुस को सौंपी गई सुसमाचार प्रचार की सेवकाइयां। वचन बताता है कि पतरस एक “अनपढ़ और साधारण” मनुष्य था (प्रेरितों 4:13), और पौलुस, उद्धार से पहले, परमेश्वर के वचन की उच्च शिक्षा पाया हुआ एक फरीसी था (प्रेरितों 22:3; 26:5)। दोनों को ही परमेश्वर ने सुसमाचार प्रचार के लिए नियुक्त किया था। मानवीय बुद्धि और समझ, तथा उन दोनों की योग्यताओं के अनुसार, उपयुक्त होता कि पतरस को अन्यजातियों में भेजा जाए, जो परमेश्वर के वचन और व्यवस्था के बारे में नहीं जानते थे; और पौलुस को जो व्यवस्था और वचन का विद्वान था, यहूदियों के मध्य सेवकाई के लिए भेज जाए। किन्तु परमेश्वर ने पतरस को यहूदियों के मध्य, और पौलुस को अन्यजातियों में सुसमाचार प्रचार की सेवकाई के लिए नियुक्त किया (रोमियों 11:13; गलातीयों 2:7), जो उनकी व्यक्तिगत योग्यता के अनुसार कदापि नहीं था, किन्तु परमेश्वर ने अपने अनुग्रह और योजना में अपनी इच्छा के अनुसार ठहराया था। साथ ही इस बात का भी ध्यान करें कि न तो पतरस ने, और न ही पौलुस ने परमेश्वर से कभी अपनी योग्यता और प्रशिक्षण के अनुसार अपनी सेवकाई या सेवकाई के लोगों को बदलने की कोई प्रार्थना की। जैसा परमेश्वर ने जिसे सौंपा, उसने वह वैसा परमेश्वर की आज्ञाकारिता और इच्छा के अनुसार, उसके लिए परमेश्वर द्वारा दी गई सामर्थ्य और सद्बुद्धि के अनुसार किया। यही बात हम वचन के अन्य भागों में भी देखते हैं।

    इन पदों के बारे में हम कुछ और बातें अगले लेख में देखेंगे। यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Utilizing the Gifts of the Holy Spirit – 6

 

    Every Born-Again Christian Believer is a steward of the provisions and privileges given to him by God; and is accountable to God for worthily using them in his Christian life and ministry. Presently, from Romans chapter 12, we are learning about utilizing the gifts of the Holy Spirit. God the Holy Spirit has given Spiritual gifts to every Christian Believer according to the Ministry assigned to him by God. The Believers are to use these gifts not for their own, but for the benefit and edification of the Church. So far we have seen in the preceding articles on Romans 12:1-5, that the Holy Spirit has taught the Believers to prepare themselves to use these gifts worthily through becoming fully submitted and obedient to God, engaging in self-assessment and preparation. Now, the Holy Spirit goes on to teach the practical utilization of these Spiritual gifts in verses 6-8 of this chapter; once again repeating before us the basic facts to always be kept in mind and followed in doing so. These verses remind us that:

  • All Christian Believers have been given differing gifts; everyone has not been given the same gift; nor has anyone received most, or all of the gifts. Therefore, to desire to have a particular gift in everyone and asking God to do so, is not consistent with God’s Word, this teaching is incorrect. Because not everyone has the same ministry, and neither does everyone need the same gift for their ministry. Everyone has to know and recognize their gift, and be sincerely committed in continually and diligently utilizing it for the benefit of the Church. No teaching or indication of asking God to change their gift into some other has been mentioned here.

  • Here, no ministry or gift has been called lesser or greater than any other, or of greater or lesser importance than any other. Having and teaching any such concept about Spiritual gifts and ministry, and preaching this is not according to God’s Word, is wrong.

  • Every Christian Believer has been given their ministry and Spiritual gift by God in His grace. It is God and God alone who determines which ministry and the corresponding Spiritual gift to give to a person. No man has any role, none whatsoever, in the assigning of the ministries and giving of the Spiritual gifts. No one has been given any ministry or Spiritual gift because of any ability or characteristic. An excellent example of this fact are the ministries assigned to the Apostles Paul and Peter. God’s Word tells us that Peter was an “uneducated and untrained man” (Acts 4:13), and Paul, before his salvation, was a learned Pharisee, highly trained in the Scriptures (Acts 22:3; 26:5). Both were appointed by God for preaching and propagating the Gospel. Going by human understanding, reasoning and logic, it would have been better to send Peter to the Gentiles, since neither he nor the Gentiles knew much about the Jewish Scriptures; and Paul, who was learned in the Jewish Scriptures should be sent to the Jews for this ministry. But God sent Peter to the Jews and Paul to the Gentiles for this ministry (Romans 11:13; Galatians 2:7), which did not correspond to their individual abilities at all; but it was something that God in His grace had determined for both of them. Also take note that neither Peter nor Paul prayed and asked for change in ministry according to their abilities and qualifications, or preferences. As God assigned to them, they did it with the ability and wisdom given by God to them. We see the same thing at other places, with other minsters of God as well.

    We will look some more about these verses in the next article also. If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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