ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

गुरुवार, 23 नवंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 89 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 18

 

Click Here for the English Translation

पवित्र आत्मा और सँसार – 1

 

    नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी, परमेश्वर के द्वारा उन्हें प्रभु के लिए गवाही का जीवन जीने और परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपी गई सेवकाई के निर्वाह के लिए दिए गए संसाधनों के भण्डारी हैं। जैसा कि प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों से प्रतिज्ञा की है, परमेश्वर ने उन्हें अपना पवित्र आत्मा भी प्रदान किया है, कि उनका सहायक और साथी हो, उन्हें सिखाए, उनकी जिम्मेदारियों के निर्वाह में उनका मार्गदर्शन करे। उन्हें प्रदान किए गए पवित्र आत्मा की सामर्थ्य का उचित और सही उपयोग करने के लिए, मसीही विश्वासियों को पवित्र आत्मा के बारे में सीखना चाहिए, बजाए उन्हें यूँ ही हलके में ले लेने, और अपनी इच्छा के अनुसार उनके विषय कुछ भी कहने और करने के। प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को पवित्र आत्मा के बारे में सिखाया है, और प्रभु की ये शिक्षाएँ मुख्यतः यूहन्ना रचित सुसमाचार के अध्याय 14 से 16 में दी गई हैं। हम इन्हीं अध्यायों से विश्वासी के पवित्र आत्मा का भण्डारी होने के बारे में सीखते आ रहे हैं। पिछले कुछ समय से हम यूहन्ना 14:17 पर अध्ययन कर रहे हैं, जहाँ पर प्रभु यीशु ने पवित्र आत्मा के बारे में तीन बातें कही हैं। इन तीन में से हमने पहली बात, पवित्र आत्मा  सत्य का आत्मा है, और उसके तात्पर्यों तथा व्यावहारिक उपयोग को देखा है। अब हम इस पद में प्रभु यीशु द्वारा कही गई दूसरी बात, तो पवित्र आत्मा और सँसार के बारे में है, “...जिसे संसार ग्रहण नहीं कर सकता, क्योंकि वह न उसे देखता है और न उसे जानता है...” को देखेंगे।


    इस वाक्याँश में प्रभु यीशु ने पवित्र आत्मा और सँसार के बारे में तीन बातें कही हैं; पहली, सँसार पवित्र आत्मा को ग्रहण नहीं कर सकता है, और फिर प्रभु उसके दो कारण बताता है – क्योंकि वह न तो उसे देखता है, और न ही उसे जानता है। बाइबल में शब्द ‘सँसार’ केवल इस भौतिक जगत के लिए ही उपयोग नहीं किया गया है, जिस में हम तथा अन्य सभी प्राणी रहते हैं। वरन पवित्र शास्त्र में ‘सँसार’ लोगों की एक श्रेणी भी है, वे लोग जो अभी तक परमेश्वर के परिवार का भाग नहीं बने हैं, क्योंकि वे परमेश्वर की सँतान नहीं है, चाहे उनके कर्म, जीवन, धर्म, और धार्मिक रीति-रिवाज़ कुछ भी हों, और इसमें इसाई धर्म तथा उसके सभी उप-समुदाय, दल, और डिनौमिनेशन भी सम्मिलित हैं। यह बात यूहन्ना 1:12-13, “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लोहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं”, में बहुत स्पष्ट कही गई है कि परमेश्वर की सँतान होने के लिए व्यक्ति को ‘उसे’ ग्रहण करना पड़ता है, ‘उसके’ नाम पर विश्वास करना पड़ता है; जैसा हम इस से पहले और बाद के पदों के सन्दर्भ से देखते हैं, यह ‘उसे’ और ‘उसके’ प्रभु यीशु मसीह के लिए उपयोग हुआ है।

    इसलिए, परमेश्वर की सँतान होने के लिए, हर किसी को प्रभु यीशु को ग्रहण करना और उसमें विश्वास करना अनिवार्य है। यह अपने आप में व्यक्तिगत रीति से एक स्वेच्छा से और जानते-बूझते किए हुए निर्णय का तात्पर्य देता है; यह कोई ऐसी बात नहीं है जो विरासत में प्राप्त होती है या किसी परिवार-विशेष में जन्म लेने, और इसलिए उस परिवार के धार्मिक अनुष्ठानों और रीतियों का पालन करने के कारण मिल जाती है। यही बात यहाँ पद 13 में किसी भी तरह के संदेह की संभावना को हटाते हुए, के बिलकुल स्पष्ट कह दी गई है, “...वे न तो लोहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं।” दूसरे शब्दों में, परमेश्वर की सँतान होने का मानवीय जन्म से कोई संबंध नहीं है। इस विशेषाधिकार को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को परमेश्वर से उत्पन्न होना पड़ेगा। प्रभु यीशु ने इसी बात पर यूहन्ना 3:3, 5 में निकुदेमुस से हुए अपने वार्तालाप में भी बल दिया था। निकुदेमुस फरीसियों का एक बहुत शिक्षित धार्मिक अगुवा था, जो प्रभु के पास परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के बारे में सीखने के लिए आया था। उस धार्मिक अगुवे से भी, जो पवित्र शास्त्र को भली-भांति जानता था और व्यवस्था का कड़ाई से पालन करता था, प्रभु का यही कहना था कि उसे भी परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के लिए नया-जन्म लेना ही पड़ेगा, जल और आत्मा से जन्म लेना होगा। अर्थात, परमेश्वर के राज्य में प्रवेश किसी भी प्रकार के धर्म या कर्म के द्वारा संभव नहीं है।


    जो प्रभु यीशु को ग्रहण करने और उसके नाम में विश्वास करने के द्वारा नया जन्म प्राप्त करते हैं, उन्हें परमेश्वर यह विशेषाधिकार प्रदान करता है कि वे परमेश्वर की सँतान हों। जिस पल वे विश्वास के द्वारा परमेश्वर की संतान बनते हैं, उसी पल परमेश्वर पवित्र आत्मा भी उन्हें दे दिया जाता है, जो उनमें आजीवन रहने के लिए आ जाता है। तो इस प्रकार से हमारे पास दो प्रकार के लोगों की श्रेणियाँ हो जाती हैं – एक वे जो परमेश्वर की सँतान, मसीह के संगी-वारिस हैं (रोमियों 8:17), और उन्हें यह विशेषाधिकार उनके किसी कर्मों, धर्म, परिवार के कारण नहीं मिला है; और सँसार, अर्थात वे जिन्होंने अभी भी व्यक्तिगत रीति से, यीशु को अपना प्रभु और उद्धारकर्ता ग्रहण नहीं किया है। ये लोग, जिन्होंने सँसार के लोगों के समान रहने का निर्णय किया है, फिर अपने इस चुनाव के कारण, अन्ततः उसी नियति को भोगेंगे जो सँसार की है – अनन्त विनाश।


    जिस पद को हम ले कर चल रहे हैं – यूहन्ना 14:17, उस में प्रभु यीशु मसीह ने एक निर्णयात्मक बात कही है, ‘सँसार पवित्र आत्मा को ग्रहण नहीं कर सकता है’ – पवित्र आत्मा, सत्य का आत्मा, कभी भी किसी भी ऐसी बात के साथ संलग्न नहीं होगा जो सत्य नहीं है। क्योंकि सारा सँसार उस दुष्ट के वश में है (1 यूहन्ना 5:19), इसलिए यह असंभव है कि पवित्र आत्मा किसी सँसार के व्यक्ति में निवास करे। उसे और उसकी सामर्थ्य को प्राप्त करने के लिए, व्यक्ति को स्वेच्छा से जानते-बूझते हुए सँसार से अलग हो कर परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने का निर्णय लेना होगा, जैसा कि अगले परिच्छेद में समझाया गया है। अगले लेख में हम यूहन्ना 14:17 के इस दूसरे वाक्याँश का अध्ययन ज़ारी रखेंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

***********************************************************************

English Translation

Holy Spirit & The World – 1

 

    The Born-Again Christian Believers are the stewards of their provisions, given to them by God for their life of witnessing for the Lord and fulfilling the ministry entrusted to them by God. As the Lord Jesus has promised to His disciples, God has also given to them His Holy Spirit, to be their Helper and Companion, to teach and guide them in fulfilling their responsibilities. To be able to properly utilize the power of the Holy Spirit made available to them, the Believers have to learn about the Holy Spirit, instead of taking Him for granted, saying and doing whatever suits their fancy about Him. The Lord Jesus taught about the Holy Spirit to the disciples, and we find the Lord’s teachings about this mainly in John’s gospel, chapters 14 to 16. From these chapters we have been learning about the Believer being a steward of the Holy Spirit. For some time now, we have been looking at John 14:17, where the Lord Jesus has mentioned three things about the Holy Spirit. Of these three, we have considered the first one, that the Holy Spirit is the Spirit of Truth, and seen its various implications and applications. We will now look into the second thing mentioned by the Lord Jesus in this verse, about the Holy Spirit and the world, “…whom the world cannot receive, because it neither sees Him nor knows Him…”.


    The Lord Jesus has said three things about the Holy Spirit and the world in this phrase; one, the world is unable to receive the Holy Spirit, and then He gives two reasons for it – because it neither sees Him, nor knows Him. In the Bible, the term ‘world’ is not only used for the physical world that we and all creatures live in. But ‘world’ is also used in the Scriptures for the category of people who, are not yet a part of the family of God, because they are not the children of God, no matter what their works, life, religion and religious practices may be, the Christian ‘religion’ and all its sects, groups, and denominations included. This has been made very clear in John 1:12-13, “But as many as received Him, to them He gave the right to become children of God, to those who believe in His name: who were born, not of blood, nor of the will of the flesh, nor of the will of man, but of God”, that to be a child of God one has to receive ‘Him’, to believe in ‘Him’; the ‘Him’, as we see from the context in the preceding and succeeding verses, is the Lord Jesus Christ.

    So, to be a child of God, everyone has to receive the Lord Jesus and believe in Him. This by itself implies a conscious, voluntary decision made by everyone individually; it is not something that is inherited or passed along by virtue of birth in a particular family, and therefore observing certain religious rites and rituals practiced by the family. This also has been made unambiguously clear in verse 13, “…who were born, not of blood, nor of the will of the flesh, nor of the will of man, but of God.” In other words, human birth has nothing to do with being a child of God; to attain this privilege, one has to be born of God. The Lord Jesus emphasized this in John 3:3, 5, to Nicodemus, the learned religious leader of the Pharisees. Nicodemus had come to the Lord to learn from Him about entering the Kingdom of God, and the Lord’s answer even to that religious person, well versed in the Scriptures and strictly following the Law was that even he had to be Born-Again, of the water and the Spirit, to enter the God’s Kingdom, i.e., entering God’s Kingdom cannot be done through any works or religion.

    Those who are Born-Again by receiving the Lord Jesus and believing in His name, to them God gives the right, the privilege to become the children of God. The moment they become the children of God through faith, God the Holy Spirit is also given to them, to reside in them throughout their lives. So, we have two categories of people – those who are the children of God, the co-heirs with the Lord Jesus (Romans 8:17), and they have received this privilege not because of any works, religion, or family; and the world, i.e., those who have not yet personally and individually come to accept the Jesus as their Lord and savior. These, who have chosen to live according to and with the world, will then also, as per their choice, suffer the fate of the world – eternal destruction.

    In our lead verse – John 14:17, the Lord Jesus has made a categorical statement, ‘the world cannot receive the Holy Spirit’ – the Holy Spirit, the Spirit of Truth, will never in any manner be associated with anything that is not the truth. The whole world is under the influence of the evil one (1 John 5:19), therefore, it is impossible for the Spirit of Truth, God the Holy Spirit to be present in a person of the world. To receive Him and His power, one has to take the conscious voluntary decision to step away from the world, into the Kingdom of God, as explained in the next paragraph. In the next article we will continue to look into this second phrase of John 14:17.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well