परमेश्वर के वचन
में फेर-बदल – 9
मसीही विश्वासी के परमेश्वर के वचन का
भण्डारी होने के अपने इस अध्ययन में, हम उन तरीकों
को देख रहे हैं जिनके द्वारा शैतान परमेश्वर के वचन को भ्रष्ट करता है। हमने देखा
है कि उन में से एक तरीका है परमेश्वर द्वारा दिए गए उसके वचन, बाइबल, के लेख
में फेर-बदल करना। इस फेर-बदल को करने के लिए शैतान दो तरीके उपयोग करता है, पहला
जो प्रत्यक्ष होता है – लेख में कुछ जोड़ना, अथवा
उसमें से कुछ निकाल लेना; और दूसरा जो अप्रत्यक्ष और बहुत
चालाकी से किया हुआ, जिसे आसानी से समझा नहीं जा सकता है, वह है –
बाइबल के लेखों और तथ्यों का बाइबल के विपरीत रीति से उपयोग करना, उसे
ऐसे अर्थ और अभिप्राय देने के द्वारा जो मूल में उसके साथ कभी थे ही नहीं। इस
छेड़-छाड़ को लोगों को स्वीकार्य बनाने, उसका पालन करवाने, और उसके द्वारा लोगों को
पथ-भ्रष्ट करने का सबसे कारगर तरीका है इस कार्य के लिए परमेश्वर के प्रतिबद्ध
लोगों, कलीसिया के प्रमुख लोगों तथा अगुवों, बाइबल
के प्रचारकों तथा शिक्षकों आदि को भरमा कर उनसे बाइबल के लेखों को बाइबल के विपरीत
अर्थों और अभिप्रायों के साथ दुरुपयोग करवाना; और पिछले कुछ लेखों से हम शैतान की
इसी युक्ति के बारे में देखते आ रहे हैं।
हमने पिछले लेख में देखा था कि इस बात
में शैतान को बहुत बड़ी सहायता इस से मिलती है कि अधिकांश ईसाई या मसीही बाइबल का
अध्ययन करते ही नहीं हैं; कुछ लोग एक औपचारिकता निभाने के
समान बाइबल को पढ़ लेते हैं, लेकिन बहुत ही थोड़े होते हैं जो वास्तव
में बाइबल का अध्ययन करने में समय बिताते हैं। बाइबल के ज्ञान की इस कमी के कारण, शैतान बड़ी
आसानी से अपने झूठ और बिगाड़े हुए वचन को लोगों में फैला देता है, और वे बातें
पकड़ी भी नहीं जाती हैं और न ही उनके बारे में कोई प्रश्न उठाता है। बल्कि,
अधिकांश ईसाइयों या मसीहियों में अपने परमेश्वर के प्रतिबद्ध लोगों,
कलीसिया के प्रमुख लोगों तथा अगुवों, बाइबल के
प्रचारकों तथा शिक्षकों आदि के प्रति जो अंध-भक्ति और बिना कोई प्रश्न किए उनकी हर
बात को मानने की जो प्रवृत्ति देखी जाती है, वह भी
शैतान के लिए बहुत सहायक होती है। शैतान उन से प्रभावी, रोचक, आकर्षक, और
तर्कपूर्ण प्रतीत होने वाली रीति से जो भी कहलवा देता है, लोग
उसे स्वीकार कर लेते हैं, मान लेते हैं। इस सन्दर्भ में हम
एक बहुधा देखे और माने जाने वाले, किन्तु सर्वथा गलत और बाइबल के विरुद्ध उदाहरण
को देख रहे हैं; यह उदाहरण वह शिक्षा है कि उद्धार को यदि अच्छे कर्मों से बना कर
न रखा जाए, तो उद्धार खोया जा सकता है। यह समझने के लिए कि यह किस प्रकार से एक
शैतानी झूठ है, बाइबल के विरुद्ध है, हमने पिछले लेख में बहुत संक्षेप
में देखा था कि बाइबल के अनुसार मसीही होने और उद्धार यानि नया जन्म पाने का क्या
अर्थ है।
इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए, आज हम,
फिर से बहुत संक्षेप में, देखेंगे कि क्यों बाइबल के
अनुसार उद्धार हमेशा के लिए है, उसे कभी खोया नहीं जा सकता है; और फिर
अगले लेख में देखेंगे कि उद्धार को खोया जा सकता है कहने और मानने के क्या
अभिप्राय होते हैं।
उद्धार से संबंधित कुछ आधारभूत, मूल
तथ्य हैं:
·
उद्धार कभी भी कर्मों से नहीं है, वरन
परमेश्वर के अनुग्रह से प्रभु यीशु मसीह के कलवरी के क्रूस पर समस्त मानव जाति के
पापों के प्रायश्चित के लिए दिए गए बलिदान पर विश्वास करने से मिलने वाली पापों की
क्षमा, और उसके मृतकों में से पुनरुत्थान से है (इफिसियों
2:1-9)। किसी भी प्रकार के कोई भी कार्य, कभी भी किसी को भी परमेश्वर के
अनुग्रह और उद्धार को प्राप्त करने के योग्य नहीं बना सकते हैं,
क्योंकि उसका तात्पर्य होगा कि वे कार्य परमेश्वर पुत्र, प्रभु
यीशु मसीह के कार्यों और बलिदान के समतुल्य हैं – अपवित्र और पापी मनुष्य पवित्र
निष्पाप परमेश्वर के समतुल्य कार्य कर सकता है – जो बिलकुल बेतुकी और असंभव बात है।
·
इस तथ्य का अनिवार्य स्वाभाविक उप-सिद्धान्त
है, जो कर्मों से प्राप्त नहीं हो सकता है, उसे
कर्मों द्वारा बना कर रखा भी नहीं जा सकता है। सीधी सी बात है, यदि
उद्धार पाने के बाद, कोई अपने आप को अपने कर्मों के द्वारा “निष्पाप”
बनाए रख सकता है, तो वह यही उद्धार प्राप्त करने से पहले
भी कर सकता था। तो फिर प्रभु यीशु को हमारे पापों को अपने ऊपर लेकर हमारे पापों की
कीमत चुकाने के लिए हमारे लिए मरने की कोई आवश्यकता नहीं थी। साथ ही 1 यूहन्ना 1:7-10
भी देखिए, और ध्यान कीजिए कि “हम” शब्द के उपयोग के द्वारा प्रेरित यूहन्ना अपने
आप को भी उन में सम्मिलित कर रहा है जिन्हें निरंतर प्रभु की क्षमा की आवश्यकता
पड़ती रहती है, और जो लोग उद्धार पाने और परमेश्वर की सन्तान (यूहन्ना
1:12-13) बनने के बाद भी पाप करते रहते हैं।
·
जब प्रभु ने हमारे पाप क्षमा किए, तब
हमारे जीवन भर के सारे पाप क्षमा कर दिए; और उन लोगों के लिए जिनका जन्म प्रभु
यीशु की पृथ्वी की सेवकाई के बाद हुआ, प्रभु ने उनके
पापों की कीमत चुका कर उन्हें तब क्षमा कर दिया था जब उनका जन्म भी नहीं हुआ था,
उन्होंने कोई पाप किया भी नहीं था। साथ ही, ऐसा भी नहीं
है कि परमेश्वर ने व्यक्ति के केवल उतने ही पाप क्षमा किए थे जितने पाप उसने प्रभु
यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण करने और उद्धार पाने के समय तक किए थे, और
फिर उस पर छोड़ दिया कि इसके बाद वो फिर कोई पाप न करे; और यदि उसने पाप कर दिया, तो फिर
उसे परिणाम भुगतने पड़ेंगे, उसका उद्धार जाता रहेगा। यह एक
बहुत बेतुकी और व्यर्थ धारणा है, जिसकी बाइबल से कोई समर्थन अथवा
पुष्टि कदापि नहीं है। यदि मेरे जन्म लेने से भी पहले, मेरे
सारे जीवन भर के सारे पाप क्षमा कर दिए गए हैं, तो
प्रकट है कि इन क्षमा किए गए पापों में वे पाप भी सम्मिलित हैं जो मैंने उद्धार
पाने के बाद किए हैं। क्योंकि मेरे द्वारा यह भी तो उसी एक जीवन में किया गया है, और
प्रभु ने उसी एक जीवन में मुझे 1 यूहन्ना 1:9 के द्वारा बहाल भी कर दिया है।
·
उद्धार अनन्तकालीन है (इब्रानियों
5:9; 9:12, 15); और अनन्तकालीन होने का अर्थ है हमेशा के लिए है। यदि उद्धार जा
सकता होता तो उसे अनन्त या सदा काल का नहीं कहा जाता। यदि परमेश्वर का वचन उसे
अनन्त कहता है, तो फिर जो यह दावा करते हैं कि उद्धार जा सकता है, वे परमेश्वर
के वचन में गलतियाँ और असत्य होने का तात्पर्य दे रहे हैं। यदि आप इस बात पर
यूहन्ना 1:1, 14 के आधार पर मनन करेंगे, तो उद्धार
गंवाया जा सकता है कि इस धारणा का प्रकट अर्थ होगा स्वयं प्रभु यीशु को झूठा कहना, उनके
जीवन तथा दावों में गंभीर गलतियाँ होना। ऐसे में फिर उनके यह कहने के, कि वे ही
सत्य हैं, परमेश्वर तक पहुँचने का एकमात्र मार्ग हैं (यूहन्ना 14:6) पर कोई
कैसे भरोसा कर सकता है?
·
क्योंकि परमेश्वर का वचन अनन्तकाल के लिए
है, अचूक है, और पूर्णतः सत्य है, कभी
बदलेगा नहीं, इसलिए, “सब से बड़ा पापी” होने की उपाधि हमेशा के
लिए पौलुस प्रेरित ने ले ली है (1 तीमुथियुस
1:15)। इसलिए, कोई भी, वह
चाहे कितना भी जघन्य पापी और गिरा हुआ मनुष्य क्यों न हो, हर हाल में वह पौलुस से
कुछ कम पापी और गिरा हुआ ही रहेगा। ऐसे में, यदि
पौलुस न केवल उद्धार पा सकता था, वरन उसे लगभग
दो-तिहाई नए नियम को लिखने का आदर भी दिया जा सकता था, तो फिर
औरों के लिए आशा क्यों नहीं होगी? इसी सन्दर्भ में रोमियों 7:15-24, और फिर
रोमियों 7:25-8:2 में पौलुस के प्रत्युत्तर तथा जयघोष को भी देखिए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक
स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों
को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ
प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की
बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की
आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा
से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और
स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु
मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना
जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी
कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों
के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं
आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को
अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे
उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित
प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे
अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना
जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और
समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक
के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए
स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Altering God’s
Word – 9
In our study on Christian
Believer’s being stewards of God’s Word, we have been considering the ways
through which Satan corrupts God’s Word. We have seen that one of the ways
Satan does this is by altering the God given text of God’s Word the Bible. To
do this alteration Satan uses two methods, one is quite evident – add to the
text, or take away from it; and the second method is quite subtle and not
easily evident – use Biblical text and facts in an unBiblical way, giving it
meanings and implications that originally were
never meant or intended with them. The most
reliable way of making sure this tampering with God’s Word is accepted and
followed, and the people do get misguided is by inducing God’s committed
Believers, Church leaders and elders, Bible preachers and teachers, etc. to use
Biblical text in an unBiblical manner; and for the past few articles, we have
been considering about this satanic ploy.
We had seen in the previous
article that Satan is greatly helped in this by the fact that the vast majority
of Christians do not study the Bible; some may perfunctorily read it, but very
few spend time in actually studying it. Because of this lack of Biblical
knowledge, Satan is able to very easily feed his lies and distortions of the
Word, without their being caught and questioned. Rather, the blind-faith and
unquestioning attitude seen amongst the vast majority of Christians towards
their Church leaders and elders, Bible preachers and teachers, etc. and
whatever they preach and teach, helps Satan in getting them to say anything in
an impressive, appealing, and seemingly logical manner, and get away with it.
In this context we have been considering an example of a very commonly seen and
believed teaching, but one that is absolutely unBiblical, that salvation has to
be maintained by the saved persons by good works or else it can be lost. In
trying to understand how this is a satanic lie, is quite unBiblical, in the
previous article we had very briefly seen, Biblically speaking, what it means
to be a Christian and being saved or being Born-Again.
Continuing with this same topic,
today let us, again very briefly, see why Biblically speaking, salvation is
eternal, can never be lost; and in the next article we consider what the
implications of saying or believing that salvation can be lost are.
Some basic and fundamental Biblical
Facts related to Salvation are:
- Salvation is not by works but by the grace
of God through the forgiveness of sins granted by God because of the
atoning sacrifice of the Lord Jesus for the sins of the entire mankind on
the Cross of Calvary (Ephesians 2:1-9) and His resurrection from the dead.
No works of any kind can ever make anyone worthy of gaining God’s favor
and salvation, because that would mean that those works of a man are
equivalent to the works and sacrifice of God the Son, the Lord Jesus –
unholy, sinning man can do works equivalent to the works of holy sinless
God – an absurdity and impossibility.
- An imperative corollary of this fact is
that what cannot ever be gained by work, cannot ever be maintained by any
kind of work either. If anyone on his own, through his works, can maintain
a “sin-free” status after salvation, then he could as well have done this
before salvation, and there was no need for the Lord Jesus to take our
sins upon Himself and die in our place to pay for those sins. Also, see 1
John 1:7-10, and note that the Apostle John, through the use of “we”
includes himself amongst those who continually needs the Lord’s
forgiveness, those who keep sinning even after being saved and having become
the child of God (John 1:12-13).
- When the Lord God forgave our sins, He
forgave the sins of our entire lifetime; and for people born after the
earthly ministry of the Lord Jesus, He had paid for and forgiven them
their sins even before they were born and had even committed those sins.
It is not that God only forgave those sins of a person that had been
committed by him till the day he accepted the Lord Jesus as his Savior and being saved, and then left it to him to see that he sins
no more; and if he did sin after that, then he will have to suffer their
consequences, lose his salvation. That is an illogical and absurd thought,
with no support or affirmation whatsoever from the Bible. If all my sins,
of my entire life, have been forgiven, even before I was born and
committed them, then quite evidently these forgiven sins also include the
times I have backslidden after my salvation; because this too has happened
in that same lifetime, and I was restored by the Lord in that one life,
because of 1 John 1:9.
- Salvation is eternal (Hebrews 5:9; 9:12,
15); and eternal means everlasting, beyond the limits of time. If
salvation could be lost, then it could not have been called “eternal”. If
God’s Word calls it eternal, then those who claim that salvation can be
lost, imply that there are errors, and lies, in God’s Word. If you ponder
on it in light of John 1:1, 14, then this notion of losing salvation is
tantamount to calling the Lord Jesus a liar and of having gross errors in
His life and claims. How then can one trust His statement of being “The
Truth” and “The Way” to God (John 14:6)?
- The “title” of being the Chief Sinner
ever, has already been taken by Paul (1 Timothy 1:15), for all times,
since God’s Word is eternal, infallible, and true in its entirety; it will
never change. Therefore, anyone, however sinful and fallen he may be, will
still remain a lesser sinner than Paul. If Paul could not only be saved,
but also be given the honor of writing about two-thirds of the New
Testament, why shouldn’t there be the same hope for others? See also Romans
7:15-24, and then Paul’s response and exultation in Romans 7:25-8:2.
If you have not yet accepted the
discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to
ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to
the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the
blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the
Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely,
surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life.
You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ
willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and
submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words
something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank
you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.
Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose
again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the
living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption
from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your
care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your
one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future
life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.