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प्रभु की मेज़ - भाग लेना वैकल्पिक नहीं, आज्ञा है (2)
पिछले लेख में हमने देखा था कि सुसमाचारों में, तथा कुरिन्थुस की कलीसिया को पौलुस द्वारा लिखी पत्री में, यह प्रभु की आज्ञा है कि उसके शिष्य प्रभु भोज में भाग लें; अपने आप जाँचने, अपने पापों, गलतियों, कमजोरियों को मान लेने, प्रभु के सामने उनका अंगीकार करने और उससे उनके लिए क्षमा माँगने, और इस प्रकार से प्रभु द्वारा उन्हें प्रभु भोज में भाग लेने के लिए योग्य किए जाने के बाद। हमने यह भी देखा था कि प्रभु यीशु ने इसे अपने शिष्यों के लिए वैकल्पिक नहीं छोड़ा था, परन्तु उन्हें आज्ञा दी थी कि वे ऐसा करें, जिससे कि उसके शिष्य हमेशा ही प्रभु भोज में योग्य रीति से भाग लेने वाले बने रहें। प्रभु भोज के प्ररूप, फसह से इसके बारे में अध्ययन करते हुए हम पहले भी देख चुके हैं कि जब परमेश्वर ने फसह के विषय आज्ञाएँ दीं, उसके पहली बार मनाए जाने के लिए, और बाद में उसे सात दिन के पर्व के रूप में मनाने के लिए, तब परमेश्वर ने यह भी कहा था कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों, इस्राएलियों के घरों में, उन दिनों में कोई भी खमीर न पाया जाए; बाइबल में खमीर पाप का प्रतीक है। पौलुस, 1 कुरिन्थियों 5:7-8 में इसी बात को लेकर मसीही विश्वासियों से आग्रह करता है कि वे भी बिना बुराई और दुष्टता के, प्रभु भोज के इस उत्सव को मनाएं। इसी प्रकार से 1 कुरिन्थियों 11:27-28 में भी, जैसा कि हम पिछले लेख में देख चुके हैं, पवित्र आत्मा के अगुवाई में पौलुस मसीही विश्वासियों को निर्देश देता है कि पहले अपने आप को जाँच लें, प्रभु से स्वयं को पापों से स्वच्छ करवा लें, और फिर योग्य रीति से भाग लें।
हम पहले निर्गमन 12:3, 6 से देख चुके हैं कि यह परमेश्वर की आज्ञा थी कि “इस्राएल की सारी मण्डली” को, प्रत्येक इस्राएली को, फसह में भाग लेना ही था। परमेश्वर ने निर्गमन 12:14-20 में फसह को एक वार्षिक पर्व बना दिया, जिसे सभी इस्राएलियों को हमेशा मनाना था। प्रभु यीशु ने प्रभु भोज को फसह का पर्व मनाते समय अपने शिष्यों के लिए स्थापित किया था, फसह की सामग्री के द्वारा, और जैसा हम देख चुके हैं, इसे एक आज्ञा के रूप में उन्हें सौंपा था। जिस प्रकार से इस्राएलियों के लिए फसह को मनाना अनिवार्य था, उसी प्रकार से प्रभु के नया-जन्म पाए हुए शिष्यों के लिए योग्य रीति से प्रभु भोज में भाग लेना अनिवार्य है। यह शिष्यों की ज़िम्मेदारी है कि वे अपने पाप प्रभु के सामने मानते रहें, और किसी रस्म के समान, या औपचारिकता के अंतर्गत नहीं किन्तु सच्चे मन से पापों के लिए पश्चाताप करके, प्रभु से क्षमा और सही किया जाना प्राप्त करके, फिर प्रभु की मेज़ में भाग भी लें।
प्रेरितों 2 अध्याय में, पतरस के प्रचार की प्रतिक्रिया में, भक्त यहूदियों में से, जो उस समय यरूशलेम में पर्व मनाने के लिए आए हुए थे, लगभग 3000 ने अपने पापों से पश्चाताप किया, और प्रभु यीशु के शिष्यों के साथ जुड़ गए (प्रेरितों 2:37-41)। हमें प्रेरितों 2:42 में चार बाते बताई गईं हैं, जिन्हें अधिकांश सुसमाचार प्रचार करने वाली कलीसियाएं मसीही जीवन के “चार खंबे” भी कहती हैं, और जिनमें ये नए विश्वासी “लौलीन” बने रहे, और इन चार में से तीसरी, तीसरा खंबा, है “रोटी तोड़ना”, अर्थात प्रभु भोज में भाग लेना। यह ध्यान में रखने के लिए बहुत महत्वपूर्ण बात है कि इन 3000 नए शिष्यों से यह नहीं कहा गया कि जब तक कि वे अपने मसीही विश्वास में स्थिर और दृढ़ न हो जाएं, जब तक परिपक्व मसीही विश्वासी न हो जाएं, तब तक प्रभु भोज में भाग न लें। परन्तु, उनके मसीही विश्वास, प्रभु की शिष्यता के जीवन के आरंभ से ही उन्हें इसमें तथा अन्य तीन बातों में लौलीन होकर बने रहने के लिए कहा गया। अवश्य ही उनके आत्मिक जीवनों में उस समय बहुत सी गलतियाँ और कमज़ोरियाँ रही होंगी, जैसे कि हमेशा ही नए विश्वासियों में होती हैं, किन्तु इसे कभी भी प्रभु की मेज़ में भाग न लेने का कारण नहीं बनाया गया, न ही कभी उन्होंने अपने आप को अयोग्य समझा और मेज़ में भाग लेने से अपने आप को रोके रखा। आरंभ से ही प्रभु की मेज़ उनके आत्मिक जीवन का, उनकी आत्मिक बढ़ोतरी और उन्नति का एक अनिवार्य भाग रही, कभी उनके लिए वैकल्पिक नहीं रही।
फिर प्रेरितों 2:43-47 में, सुसमाचार के प्रचार और प्रसार के द्वारा जब और भी शिष्य बने और प्रभु के शिष्यों के साथ जुड़े, तब हमें प्रेरितों 2:42 के समान एक और उदाहरण देखने को मिलता है। प्रेरितों 2:46 में लिखा है कि वे लोग घर-घर रोटी तोड़ने के लिए जमा होते थे। यह एक बहुत महत्वपूर्ण और ध्यान देने योग्य बात है कि पवित्र आत्मा ने यह नहीं लिखवाया है कि “वे घर-घर आराधना सभा के लिए एकत्रित होते थे”, न ही यह लिखवाया कि “वे घर-घर वचन की शिक्षा पाने के लिए जमा होते थे”, और न ही यह कि “वे घर-घर प्रार्थना करने के लिए जमा होते थे”, परन्तु यह लिखवाया कि “घर-घर रोटी तोड़ते हुए।” यह दिखाता है कि मसीही विश्वासियों के लिए यह करना कितना आवश्यक था, उनकी आत्मिक आयु और परिपक्वता चाहे जो भी रही हो, कि वे प्रभु भोज में भाग लें। उन्हें यह करने के लिए प्रोत्साहित किया गया, वे यह करने के लिए प्रतिबद्ध थे, और वे यह करते भी रहे, बिना कभी भी भाग न लेने का कोई कारण अथवा बहाना ढूँढे। फिर, प्रेरितों 2:46 के समान एक और परिस्थिति हमें प्रेरितों 20:7 में भी देखने को मिलती है, जहाँ एक बार फिर से पवित्र आत्मा ने यह लिखवाया कि “हम रोटी तोड़ने के लिये इकट्ठे हुए”, यद्यपि आराधना, वचन की शिक्षा पाना और प्रार्थना भी उनके एकत्रित होने का भाग रही थीं - प्रेरितों 20:7 में हम देखते हैं कि पौलुस देर रात तक उन्हें वचन की शिक्षा देता रहा था। लेकिन हमारे ध्यान देने के लिए जो महत्वपूर्ण बात है, वह है कि परमेश्वर के वचन में इसे “रोटी तोड़ने”, अर्थात प्रभु भोज में भाग लेने के लिए एकत्रित होना लिखवाया गया है। यह एक बार फिर से मसीही विश्वासी के जीवन में प्रभु की मेज़ के महत्व और उसमें नियमित भाग लेते रहने की अनिवार्यता पर जोर देता है; बजाए इसके कि वह जन उसे वैकल्पिक समझे और उससे बचने का कोई तरीका अथवा तर्क ढूँढे।
अब, यहाँ 1 कुरिन्थियों 11 अध्याय में भी हम देखते हैं कि पवित्र आत्मा ने पौलुस प्रेरित के द्वारा प्रभु भोज से संबंधित उनकी त्रुटियों और दुरुपयोग को सुधारने के लिए लिखवाया है। यह पूरी पत्री कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों द्वारा उनके मसीही विश्वास के जीवन से संबंधित लगभग हर बात में की जा रही गलतियों को प्रकट करने और सुधारने के बारे में है। लेकिन यहाँ पर भी मसीही विश्वास के चार खंबों में से तीसरे खंबे को ही सुधारने की शिक्षा के लिए प्रतिनिधि के समान लिया गया है। यह फिर से परमेश्वर के दृष्टिकोण से मसीही विश्वासी के जीवन में इसके महत्व को दिखाता है, कि क्यों इसे कभी भी वैकल्पिक समझ कर इसे हल्की बात नहीं समझना चाहिए। यदि हम प्रभु यीशु मसीह के द्वारा प्रभु भोज के स्थापित किए जाने के बारे में मनन करें, तो हम देखते हैं कि इस तीसरे खंबे के साथ शेष तीनों खंबे स्वतः ही जुड़े हुए हैं। प्रभु यीशु ने इसकी स्थापना शिष्यों की “संगति” में की, उसने “प्रार्थना/धन्यवाद” के साथ स्थापित किया, और उसने तथा बाद में पौलुस ने भी उसके बारे में “शिक्षा” दी। इसलिए जब भी प्रभु के शिष्य “रोटी तोड़ने” के लिए एकत्रित होते हैं, तब वे साथ ही प्रेरितों 2:42 के शेष तीनों खंबों को भी साथ ले लेते हैं। इसीलिए, इसमें कोई अचरज नहीं होना चहिए कि नए नियम में बारम्बार प्रभु के लोगों के “रोटी तोड़ने” के लिए एकत्रित होने का उल्लेख आया है, क्योंकि इसके साथ ही वे शेष तीनों बातों को भी पूरा कर लेते थे। यह हमें दिखाता है कि प्रत्येक मसीही विश्वासी को प्रभु भोज को अपने जीवन कितना आदरणीय स्थान देना चाहिए, जैसा कि प्रभु परमेश्वर ने उनके लिए इसे प्रदान किया है।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
उत्पत्ति 31-32
मत्ती 9:18-38
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The Lord’s Table - A Commandment; Not Optional (2)
In the previous article we have seen that in the Gospel accounts, as well as in Paul’s letter to the Corinthian Church, it is the Lord’s command that His disciples participate in the Holy Communion; after examining themselves, acknowledging their sins, errors, and short-comings, confessing them before the Lord and seeking His forgiveness for them, thereby allowing Him to make them worthy of participating in the Holy Communion. We had also seen that the Lord had not made it optional for the disciples but had commanded them to do it, to ensure that His disciples always participated in the Communion worthily. Earlier, in our study about the Holy Communion through its antecedent, the Passover, we had also seen that it was God’s command that in the observing of the Passover, the first time, as well as later as a seven-day feast, there was to be no leaven in the houses of God’s chosen people - the Israelites; and leaven in the Bible is a symbol of sin. Paul, in 1 Corinthians 5:7-8, alludes to this, while exhorting the Christian Believers to participate in the Communion feast without any malice or wickedness. Similarly, in 1 Corinthians 11:27-28, as we have seen in the last article, Paul through the Holy Spirit instructs the Christian Believers to first examine themselves, have themselves cleansed from their sins by the Lord, and then participate worthily.
We had also seen earlier, from Exodus 12:3, 6 that it was God’s command that “all the congregation of Israel”, every Israelite, was to participate in the Passover. This was turned into a seven day memorial feast by God in Exodus 12:14-20, for all Israel to observe throughout their generations, as an everlasting ordinance. The Lord Jesus had established the Holy Communion while observing the Passover, using the elements of the Passover, for His disciples, giving it as a command for the disciples, as we have seen in the previous articles. Like observing the Passover was mandatory for all the Israelites, participating worthily in the Lord’s Table is mandatory for all the truly Born-Again committed disciples of the Lord Jesus. It is the responsibility of the disciples that they confess their sins to the Lord, not ritualistically or perfunctorily but sincerely repent of them and having received the Lord’s forgiveness and cleansing, to go ahead and participate in the Lord’s Table.
In Acts 2, in response to Peter’s sermon, about 3000 of the devout Jews gathered in Jerusalem to observe the feasts, repented of their sins and accepted the Lord Jesus as their savior, and were added to the disciples of the Lord Jesus (Acts 2:37-41). In Acts 2:42, we are told of four things, also called “the Four Pillars of Christian Faith” by most evangelical Churches, that these new disciples of the Lord continued “steadfastly” in, and the third of these four things, the third Pillar of Christian Faith is “breaking of bread”, i.e., the Holy Communion. It is important to note that these 3000 new disciples were not told that till they become strong and established in the Faith, till they mature as Christian Believers, they should refrain from participating in the Holy Communion. Instead from the very beginning of their new life as disciples of Christ, they were asked to continue steadfastly in it, along with the other three. For sure, there must have been many errors and shortcomings in their spiritual lives, as is always the case with any new Believer; but this was never made a reason to ask them to refrain from the Table, nor did they feel unworthy and kept themselves from participating. Right from the beginning, the Lord’s Table was an essential part of their spiritual life, their spiritual growth and edification, it was never optional for them.
Then in Acts 2:43-47, as the Gospel was preached and spread, more souls were added to the Lord’s disciples; and we have another example similar to Acts 2:42. In Acts 2:46 it says that they held the Holy Communion from house to house. It is very significant to note that the Holy Spirit did not have it recorded as “they held worship services from house to house”, neither that, “they met for learning God’s Word from house to house”, nor that “they gathered together for prayers from house to house”, but had it recorded that they were “breaking bread from house to house.” This denotes how important and necessary it was for the Christian Believers, irrespective of their spiritual age or maturity, to participate in the Holy Communion. They were encouraged to doing so, they were committed to doing so, and they did so, without looking for excuses to avoid participating in the Lord’s Table. A situation similar to Acts 2:46 is seen in Acts 20:7, where again, the Holy Spirit has had it recorded that “the disciples came together to break bread”, although worship, studying the Word and prayers, all of these were a part of their activities - & in Acts 20:7 Paul himself taught them till late. But what is important for us to note is that it has been recorded in God’s Word is that the gathering was for “breaking bread”, i.e., partaking of the Holy Communion. This once again, strongly emphasizes the importance of the Holy Communion in the Christian Believer’s life, and the necessity of his regularly participating in it, instead of considering it optional and avoiding it on some pretext or the other.
Here in 1 Corinthians 11 too we see that the Holy Spirit has Paul write to the Corinthian Church to correct their misconceptions and mishandling of participating in the Lord’s Table. The whole of this letter is full of errors that the Corinthian Believers were committing about practically everything related to their Christian Faith. But here, of the four Pillars of Acts 2:42, once again the Holy Communion has been used as the representative for correction. This once again emphasizes the place it has to have in a Christian Believer’s life, from God’s perspective; and why it should never be considered optional and thus belittled in the life of Christian Believers. If we ponder over the establishing of the Holy Communion by the Lord Jesus, we see that this third Pillar carries with it the other three Pillars as well. The Lord did it in “Fellowship”, He “Prayed/gave thanks”, and He, then later Paul too, “Taught about it.” So, when the Lord’s disciples gather for “breaking of bread”, they also simultaneously do the other three activities of Acts 2:42. Therefore, it is no wonder that time and again it is written in the New Testament that the Lord’s people used to gather for “breaking of bread”, since in doing so, they would also gather together for the other three. This shows why it is the responsibility of every Christian Believer to accord participating in the Holy Communion the same importance and status in their lives, as the Lord God has accorded to it for them.
If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Genesis 31-32
Matthew 9:18-38
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