बाइबल में दी गई व्यवस्था और मनुष्य के उद्धार में संबंध
बाइबल के अनुसार भला कौन है? – 2
पिछले लेख, इस लेख के प्रथम भाग में, हमने देखा था कि परमेश्वर को स्वीकार्य होने लायक भला होने के लिए, हमारी भलाई परमेश्वर के मानकों के अनुसार होनी चाहिए। हम अपने ही मानक और गुण निर्धारित कर के उन्हें परमेश्वर पर नहीं थोप सकते हैं, इस आशा के साथ कि वह उन्हें स्वीकार करेगा और उन्हीं के अनुसार हमारा आँकलन करेगा और कह देगा कि हम पर्याप्त भले हैं। हमारा परमेश्वर को स्वीकार्य होना उसकी शर्तों पर होगा, उसके द्वारा निर्धारित आधार पर होगा, न कि हमारे बनाए हुए पर। इस संदर्भ में हमने पहले तीनों सुसमाचारों में दिए गए धनी जवान व्यक्ति के साथ हुई प्रभु यीशु की वार्तालाप के कुछ भागों को देखना आरंभ किया था। हमने मरकुस 10:18 से प्रभु यीशु द्वारा भले होने के मानक और परिभाषा को देखा था; स्वयं प्रभु यीशु के शब्दों में – परमेश्वर के अतिरिक्त और कोई भला नहीं है! इसमें यह भी निहित है कि जो कोई भी परमेश्वर के मानकों के अनुसार भला है, परमेश्वर के स्तर का है, उसके समान है।
अब, इस धनी जवान व्यक्ति के साथ हुए इस वार्तालाप के आगे के भाग में, भला होने के बारे में एक बड़ा विरोधाभास आता हुआ लगता है। प्रभु यीशु मसीह ने अनन्त जीवन का मार्ग जानने के लिए उसके पास आए हुए धनी जवान से कहा था, “उसने उस से कहा, तू मुझ से भलाई के विषय में क्यों पूछता है? भला तो एक ही है; पर यदि तू जीवन में प्रवेश करना चाहता है, तो आज्ञाओं को माना कर” (मत्ती 19:17); अर्थात, प्रभु यीशु मसीह के अनुसार, आज्ञाओं के पालन से जीवन में प्रवेश मिल सकता है, परमेश्वर के साथ रहने के लिए उद्धार यानी अनन्त जीवन में प्रवेश मिल सकता है। दूसरे शब्दों में, उद्धार कर्मों तथा परमेश्वर की आज्ञाओं के पालन के द्वारा संभव है। यहाँ पर हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि, जैसे के इससे आगे के वार्तालाप से प्रगट है, प्रभु जिन आज्ञाओं के पालन की बात कर रहा था, वे पुराने नियम में दी गई परमेश्वर की व्यवस्था का एक भाग, दस आज्ञाओं के पालन के बारे में है।
न केवल यहाँ पर प्रभु यीशु मसीह ने, लेकिन पुराने नियम में परमेश्वर ने भी कहा है कि उसके नियम और विधियाँ मानने से उसके लोग जीवित रहेंगे (लैव्यव्यवस्था 18:5; नहेम्याह 9:29; यहेजकेल 20:11; आदि), जिसकी पुष्टि नए नियम में पवित्र आत्मा ने पौलुस प्रेरित द्वारा भी करवाई है (रोमियों 10:5)।
अब एक ओर वचन कह रहा है कि व्यवस्था के पालन से जीवन है, दूसरी ओर यह भी कह रहा है कि उद्धार कर्मों से नहीं विश्वास से है, और कोई मनुष्य भला नहीं है, इतनी भलाई कभी नहीं कर सकता है कि परमेश्वर को स्वीकार्य हो जाए। तो इस विरोधाभास का समाधान क्या है?
इसके लिए एक अन्य प्रश्न के उत्तर को जानना और समझना बहुत महत्वपूर्ण है, कि जिस व्यवस्था के पालन की बात की जा रही है, वह व्यवस्था क्या है? यदि हम इस आधारभूत प्रश्न को नहीं समझेंगे, तो हम गलतियों में पड़ जाएंगे, शैतान द्वारा भरमा और भटका दिए जाएंगे, जैसा कि वह बहुत से लोगों के साथ करता चला आ रहा है।
व्यवस्था क्या है, इसे हम अगले लेख में देखेंगे। इन बातों की सही समझ के लिए हमें यह ध्यान रखना अनिवार्य है कि परमेश्वर न झूठ बोलता है, न ही उसमें कोई दोगलापन है, और न ही उसके वचन में कोई विरोधाभास है। उसके वचन की बातों की सही समझ के लिए किसी भी बात को उसके संदर्भ से बाहर लेकर उसकी कोई भी मन-गढ़ंत व्याख्या कभी नहीं करनी चाहिए। साथ ही, हमेशा ही उस विषय से संबंधित वचन में दी गई अन्य बातों का भी ध्यान रखते हुए यह सुनिश्चित करके व्याख्या करनी चाहिए कि वचन की सभी बातों का उसमें समावेश हो, वह सभी से सुसंगत हो, किसी भी बात को वह व्याख्या काटे नहीं, वह व्याख्या बाइबल की किसी भी सच्चाई के ज़रा भी विमुख न हो। मसीह के सभी अनुयायियों को सदा ही परमेश्वर के वचन पर पूरा भरोसा बनाए रखना चाहिए। इसलिए यदि आप कभी भी किसी भी रीति से परमेश्वर के वचन पर अविश्वास के, उसकी गलत व्याख्या के, उससे संबंधित गलत शिक्षाओं को बताने या सिखाने के दोषी हैं, तो प्रभु के सामने अपनी इस गलती को स्वीकार करके, उसके लिए पश्चाताप करके, प्रभु से उसके लिए क्षमा माँग लीजिए, और उससे विनती कीजिए के आपको वचन की सही समझ प्रदान करे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Relationship Between the Law and Salvation in the Bible
Who is good according to the Bible? – 2
In the previous, the first part of this article, we had seen that to become good enough to be acceptable to God, our goodness has to be according to God’s criteria. We cannot decide our own criteria and standards, and then impose them upon God, expecting Him to accept them and measure us by the yardsticks we prepare and give Him, and declare us to be up to the mark. Acceptance to God has to be on His terms, not ours. In this context, we had started to look into certain parts of the conversation the Lord Jesus had with the Rich Young Ruler, given in the first three gospels. In Mark 10:18, we have the standard and definition of being good; in Lord Jesus’s own words – no one is good but God! This also implies that whoever is good by God’s measures, will be equal to God!
Now, in the next part of this conversation with the Rich Young Ruler, there seems to be a big contradiction related to being good. The Lord Jesus Christ told the rich young man who had come to Him, seeking the way to eternal life, “So He said to him, "Why do you call Me good? No one is good but One, that is, God. But if you want to enter into life, keep the commandments” (Matthew 19:17); i.e., according to the Lord Jesus Christ’s assurance in this statement, it seems that obedience to the commandments can provide entry into life, i.e., being with God for eternity, or being saved. In other words, salvation can be through works and following God’s Law. We should take note here that as is apparent from the conversation that followed, the commandments that the Lord is talking about here are the Ten Commandments, a part of God's Law in the Old Testament.
Not just the Lord Jesus Christ here, but God also said in the Old Testament that obeying His Law and statutes would ensure life for His people (Leviticus 18:5; Nehemiah 9:29; Ezekiel 20:11; etc.); and this is confirmed In the New Testament by the Holy Spirit through the apostle Paul (Romans 10:5).
Now on the one hand, God’s Word is saying that there is life in following the Law; and on the other hand, it is also saying that salvation is not by works but by faith, and no man is good, cannot do good. So, what is the solution to this paradox?
For this it is very important to know and understand, that what is the Law that is being talked about here; and what does the call to obeying the Law mean? If we do not understand this fundamental question, we will fall into error, be misguided and misled by Satan, as he has been doing to so many people.
What the Law is, we will see it in the next article. For a proper understanding of these things, we must keep in mind that God does not lie, there is no hypocrisy in Him, and there is no contradiction in His Word. For a proper understanding of the meaning of His Word One should never take anything out of its context and interpret it out of its context. At the same time, one must always take into account the other things in the Scriptures relating to that subject, making sure that the interpretation satisfies all the things stated in the Scriptures about the subject. That interpretation should never contradict any part of God’s Word; neither should it in any manner be inconsistent with anything in any part of the Bible, and it should not deviate even the slightest from the truth of God’s Word. All followers of Christ must at all times have complete faith in the Word of God. So, if you have ever been guilty of distrusting God's word in any way, of misinterpreting it, or of telling or giving wrong teachings, then by confessing your mistake to the Lord, and repenting for it, apologize to Him for it, and ask Him to give you a proper understanding of the Word.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.