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मंगलवार, 19 अक्टूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 19


मसीही विश्वासी के प्रयोजन (3) 

       पिछले लेखों में हमने देखा है कि मसीही विश्वासी का जीवन प्रभु के लिए उपयोगी होने और प्रभु के लिए कार्यरत रहने में सक्रिय जीवन होता है। प्रभु का अपने सभी अनुयायियों के लिए कुछ-न-कुछ प्रयोजन है। प्रभु द्वारा प्रत्येक के लिए निर्धारित किए गए इन प्रयोजन तथा किसी के लिए निर्धारित अन्य किसी विशिष्ट प्रयोजन के अनुसार, उन्हें सक्षम करने और उस कार्य में सहायता प्रदान करने के लिए परमेश्वर पवित्र आत्मा ने सभी मसीही विश्वासियों को उचित आत्मिक वरदान भी प्रदान किए हैं, जिनके बारे में विवरण रोमियों 12 अध्याय, और 1 कुरिन्थियों 12 अध्याय में से पढ़ा जा सकता है। मरकुस 3:13-15 में हमने देखा कि प्रभु यीशु ने जब शिष्यों में से बारह प्रेरितों को चुना तो उनके लिए उसने तीन प्रयोजन निर्धारित किए। यही तीनों प्रयोजन सामान्यतः सभी मसीही विश्वासियों के लिए भी हैं; अर्थात प्रभु द्वारा प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए निर्धारित किए गए किसी विशिष्ट कार्य का आधार यही तीन प्रयोजन हैं, और वह विशिष्ट कार्य इन्हीं तीनों के निर्वाह के द्वारा ही सफल और प्रभु को महिमा देने वाला होता है। 

कल हमने इन तीन में से पहले प्रयोजन - प्रभु के साथ-साथ रहने के बारे में देखना आरंभ किया था। निरंतर प्रभु के साथ बने रहना, और हर बात में, तथा हर बात के लिए प्रभु की इच्छा को जानकर कार्य करना ही मसीही विश्वासी की सही सेवकाई का सबसे महत्वपूर्ण आधार है। जो प्रभु के साथ रहेगा, वही प्रभु के साथ घनिष्ठ संबंध में भी रहेगा; और जो प्रभु के साथ घनिष्ठ होगा उस पर ही प्रभु अपनी इच्छा प्रकट करेगा, और उसी का मार्गदर्शन करेगा। इससे वह जन यह भी पहचानने पाएगा कि उसकी अपनी तथा प्रभु की समझ, सोच-विचार, और बुद्धिमत्ता में कितना अंतर हैक्योंकि यहोवा कहता है, मेरे विचार और तुम्हारे विचार एक समान नहीं है, न तुम्हारी गति और मेरी गति एक सी है। क्योंकि मेरी और तुम्हारी गति में और मेरे और तुम्हारे सोच विचारों में, आकाश और पृथ्वी का अन्तर है” (यशायाह 55:8-9)। इसीलिए प्रभु यीशु मसीह ने अपने शिष्यों से कहा, “तुम मुझ में बने रहो, और मैं तुम में: जैसे डाली यदि दाखलता में बनी न रहे, तो अपने आप से नहीं फल सकती, वैसे ही तुम भी यदि मुझ में बने न रहो तो नहीं फल सकते। मैं दाखलता हूं: तुम डालियां हो; जो मुझ में बना रहता है, और मैं उस में, वह बहुत फल फलता है, क्योंकि मुझ से अलग हो कर तुम कुछ भी नहीं कर सकते। यदि कोई मुझ में बना न रहे, तो वह डाली के समान फेंक दिया जाता, और सूख जाता है; और लोग उन्हें बटोरकर आग में झोंक देते हैं, और वे जल जाती हैं। यदि तुम मुझ में बने रहो, और मेरी बातें तुम में बनी रहें तो जो चाहो मांगो और वह तुम्हारे लिये हो जाएगा। मेरे पिता की महिमा इसी से होती है, कि तुम बहुत सा फल लाओ, तब ही तुम मेरे चेले ठहरोगे” (यूहन्ना 15:4-8)। यहाँ पर प्रभु द्वारा कही गई बात के प्रवाह और परिणाम पर ध्यान कीजिए। सच्चा शिष्य प्रभु में बना रहेगा, और उससे सामर्थ्य पाकर प्रभु के लिए फलवंत होगा, जो परमेश्वर की महिमा का कारण ठहरेगा, और उसके सच्चे शिष्य होने का प्रमाण भी। किन्तु जो प्रभु में बना नहीं रहता है, वह प्रभु के लिए फलवंत भी नहीं होता है, सूख जाता है, जो उसके प्रभु का सच्चा शिष्य नहीं होने का प्रमाण है, और उसे अलग हटाकर नाश कर दिया जाता है।  

यूहन्ना से लिए गए उपरोक्त उदाहरण में एक बहुत महत्वपूर्ण बात निहित है - जो प्रभु में बना रहेगा, वह स्वतः ही प्रभु द्वारा पोषित और विकसित भी होता रहेगा। कोई भी पौधा हर समय फल नहीं लाता है, किन्तु जो जीवन के जल से संबंध में रहेगा, वह कभी भी सूखेगा नहीं वरन अपने समय और अपनी ऋतु में फल भी लाएगावह उस वृक्ष के समान है, जो बहती नालियों के किनारे लगाया गया है। और अपनी ऋतु में फलता है, और जिसके पत्ते कभी मुरझाते नहीं। इसलिये जो कुछ वह पुरुष करे वह सफल होता है” (भजन 1:3)। जो प्रभु में स्थापित रहता है, प्रभु के कहे के अनुसार करता है, प्रभु ही उसके कार्यों को सफल और फलवंत करता हैमैं ने लगाया, अपुल्लोस ने सींचा, परन्तु परमेश्वर ने बढ़ाया। इसलिये न तो लगाने वाला कुछ है, और न सींचने वाला, परन्तु परमेश्वर जो बढ़ाने वाला है” (1 कुरिन्थियों 3:6-7)। राजा सुलैमान ने कहा, “क्योंकि बुद्धि यहोवा ही देता है; ज्ञान और समझ की बातें उसी के मुंह से निकलती हैं” (नीतिवचन 2:6)। जब अपनी अक्षमता तथा प्रभु की सामर्थ्य और सक्षमता को ध्यान में रखते हुए मसीही विश्वासी प्रभु से अपने दायित्व के निर्वाह के लिए उपयुक्त बुद्धि एवं सामर्थ्य माँगता है, तो वह प्राप्त भी करता है। किन्तु जो प्रभु के निकट नहीं है, वह प्रभु और उसकी बातों और योजनाओं पर संदेह करेगा, प्रभु की कही गई बातों और दिए गए निर्देशों में अपने मन और समझ की बात मिलाना चाहेगा, और इसलिए प्रभु से कुछ प्राप्त नहीं कर सकेगा, जैसा कि याकूब ने लिखा है, “पर यदि तुम में से किसी को बुद्धि की घटी हो, तो परमेश्वर से मांगे, जो बिना उलाहना दिए सब को उदारता से देता है; और उसको दी जाएगी। पर विश्वास से मांगे, और कुछ सन्देह न करे; क्योंकि सन्देह करने वाला समुद्र की लहर के समान है जो हवा से बहती और उछलती है। ऐसा मनुष्य यह न समझे, कि मुझे प्रभु से कुछ मिलेगा। वह व्यक्ति दुचित्ता है, और अपनी सारी बातों में चंचल है” (याकूब 1:5-8)

प्रभु के साथ यह घनिष्ठ संबंध प्रभु के वचन से प्रेम करने और उसके वचन में बने रहने से बनता है। प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों से कहा कि यदि वे उसके वचन में बने रहेंगे, तो यही प्रभु के प्रति उनके प्रेम का प्रमाण होगा, और उससे वास्तविक प्रेम करने वाले के पास प्रभु और पिता परमेश्वर आएंगे, और उसके साथ रहेंगेजिस के पास मेरी आज्ञा है, और वह उन्हें मानता है, वही मुझ से प्रेम रखता है, और जो मुझ से प्रेम रखता है, उस से मेरा पिता प्रेम रखेगा, और मैं उस से प्रेम रखूंगा, और अपने आप को उस पर प्रगट करूंगा। यीशु ने उसको उत्तर दिया, यदि कोई मुझ से प्रेम रखे, तो वह मेरे वचन को मानेगा, और मेरा पिता उस से प्रेम रखेगा, और हम उसके पास आएंगे, और उसके साथ वास करेंगे” (यूहन्ना 14:21, 23)। इसलिए यदि आप अपना जीवन प्रभु यीशु मसीह के नाम में तो जी रहे हैं, किन्तु उसके साथ निरंतर एवं घनिष्ठ संबंध में स्थापित नहीं हैं, वरन अपनी अथवा अन्य मनुष्यों और मनुष्यों द्वारा बनाए गए मतों की ही सामर्थ्य, समझ, और शिक्षाओं अथवा युक्ति तथा योग्यता, के अनुसार जीते रहने का प्रयास करते रहें हैं, तो फिर आपको अपने जीवन में एक आमूल-चूल, एक मौलिक परिवर्तन करने की तात्कालिक आवश्यकता है। समय तथा अवसर के रहते आज ही, अभी ही, इस व्यर्थ एवं निष्फल धारणा एवं मान्यता से निकलकर प्रभु यीशु मसीह की वास्तविक शिष्यता में आ जाएं, और हर समय हर बात के लिए उसके साथ उसकी आज्ञाकारिता में बने रहने को निभाना आरंभ कर लें। कहीं ऐसा न हो कि जब परलोक में आँख खुले तब पता लगे कि आप अपनी ही जिन धारणाओं और मान्यताओं का सारे जीवन बड़ी निष्ठा से निर्वाह करते रहे उससे आपको कोई लाभ नहीं हुआ है, और अब उस गलती को सुधारने का कोई अवसर पास नहीं है; अब तो केवल अनन्तकाल का दण्ड ही मिलेगा। 

किन्तु यदि आप अभी भी संसार के साथ और संसार के समान जी रहे हैं, या परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह की मानसिकता में भरोसा रखे हुए हैं, तो आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यशायाह 56-58     
  • 2 थिस्सलुनीकियों 2