पाप का समाधान - उद्धार - 3
पिछले दो लेखों में हमने
उद्धार से संबंधित पहले प्रश्न – “उद्धार किससे और क्यों” को देखा है। बाइबल की
प्रथम पुस्तक, उत्पत्ति के 3 अध्याय
में दिए गए विवरण के अनुसार इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए, आज
हम इस प्रश्न के निष्कर्ष को देखेंगे।
पिछले लेखों में हमने देखा
था कि पाप के कारण मनुष्य में दोष-बोध, लज्जा, सत्य का सामना करने का डर, परमेश्वर से छिपना,
अपनी लज्जा और दोष को अपने प्रयासों से छुपाने की प्रवृत्ति,
अपने आप को सही दिखाने के लिए बहाने बनाने तथा दूसरों पर दोषारोपण
करने की प्रवृत्ति, और उसमें अहं, अर्थात
अपनी गलती को स्वीकार न करने, वरन दूसरों को ही दोषी देखने
का स्वभाव आ गया। साथ ही पाप के कारण सृष्टि भी पाप के श्राप में पड़ गई, और उससे निकाले जाने की बाट जोह रही है (रोमियों 8:19-21)। मनुष्य को अपनी गलती मान लेने और पश्चाताप करने, के
अवसर देने के बाद भी जब मनुष्य ने परमेश्वर द्वारा दिए गए अवसर को स्वीकार नहीं
किया, उसका लाभ नहीं उठाया, अपने अहं
में ही बना रहा, तो अन्ततः परमेश्वर को फिर उसे क्षमा की
संभावना से निकाल कर अपने न्याय के नीचे लाना पड़ा।
जैसे परमेश्वर ने मनुष्य को आरंभ से ही चेतावनी दी थी
(उत्पत्ति 2:17), इस
पाप के कारण मनुष्य मृत्यु के अधीन आ गया - जो दो प्रकार से उसके जीवन में
कार्यान्वित हुई। आत्मिक रीति से वह परमेश्वर की संगति से बिछड़ गया, और शारीरिक रीति से उसी समय से (और तब से मनुष्य के जन्म लेते ही) उसके
पल-पल करके मरते चले जाने की अपरिवर्तनीय प्रक्रिया आरंभ हो गई, जो अन्ततः उसकी शारीरिक मृत्यु के साथ पूरी होती है। साथ ही ये सभी बातें,
पाप के प्रभाव और मृत्यु, वांशिक, अर्थात फिर उसकी संतान में भी आने वाली भी हो गईं। न केवल पाप के दण्ड के
अंतर्गत मनुष्य मृत्यु के अधीनता में आया, वरन उसे अन्य
बातों को भी सहना पड़ गया। स्त्री को कहा गया कि उसके प्रसव की पीड़ा और भी अधिक बढ़
जाएगी और वह पीड़ा के साथ बच्चे जनेगी; तथा उसे उसके पति की
प्रभुता में दे दिया गया (उत्पत्ति 3:16)। आदम के पाप के
कारण भूमि भी श्रापित ठहराई गई, और ठहराया गया कि आदम वाटिका
के अच्छे फलों (उत्पत्ति 2:9, 16) के स्थान पर अब जीवन भर
बहुत परिश्रम और दुख के साथ पृथ्वी की उपज खाएगा, और पृथ्वी
से उसके परिश्रम में व्यर्थ की उपज भी उत्पन्न होती रहेगी (उत्पत्ति:17-19)
उसे उस आशीषित स्थान, अदन की वाटिका से निकाल
दिया गया (उत्पत्ति 3:23-24)।
किन्तु केवल ये दुखद बातें ही पाप के प्रति परमेश्वर
के न्याय के व्यवहार का प्रकटीकरण नहीं थीं। ये बातें उसके न्याय को दिखाती हैं; किन्तु साथ ही परमेश्वर
ने अपने प्रेमी, दयालु, और अनुग्रहकारी,
कृपालु स्वभाव को भी इनके साथ व्यक्त किया। परमेश्वर ने अपने विषय
बाइबल में लिखवाया है कि उसकी हर योजना उसके लोगों की भलाई के लिए ही होती है:
“क्योंकि यहोवा की यह वाणी है, कि जो
कल्पनाएं मैं तुम्हारे विषय करता हूँ उन्हें मैं जानता हूँ, वे
हानि की नहीं, वरन कुशल ही की हैं, और
अन्त में तुम्हारी आशा पूरी करूंगा” (यिर्मयाह 29:11);
“और हम जानते हैं, कि जो लोग परमेश्वर से
प्रेम रखते हैं, उन के लिये सब बातें मिलकर भलाई ही को
उत्पन्न करती है; अर्थात उन्हीं के लिये जो उस की इच्छा के
अनुसार बुलाए हुए हैं” (रोमियों 8:28)। इस प्रथम पाप, प्रथम न्याय, और प्रथम दण्ड की
प्रक्रिया में भी हम परमेश्वर के इन गुणों को देखते हैं। परमेश्वर ने दण्ड के साथ
ही उनके प्रति अपने प्रेम और देखभाल को भी व्यक्त किया:
·
उसने उनके बनाए हुए नाशमान और अस्थाई पत्तों के अँगरखों के स्थान पर उन्हें
चमड़े के अँगरखे बना कर पहना दिए, जो लंबे समय तक चल सकते थे। (उत्पत्ति 3:21)
·
परमेश्वर ने स्त्री को यह प्रतिज्ञा भी दी कि पाप से छुड़ाने और पहली स्थिति
में बहाल करने वाला जगत का उद्धारकर्ता भी उसी में से होकर आएगा, पुरुष का नहीं, उसका वंश होगा (उत्पत्ति 3:16)। यह बात प्रभु यीशु
में होकर पूरी हुई, जो अपनी माता मरियम के कुँवारेपन में,
पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से गर्भवती हुई, और
आदम के नहीं, परमेश्वर के पुत्र की माता बनाई गई, “जब वह इन बातों के सोच ही में था तो प्रभु का स्वर्गदूत उसे स्वप्न में
दिखाई देकर कहने लगा; हे यूसुफ दाऊद की सन्तान, तू अपनी पत्नी मरियम को अपने यहां ले आने से मत डर; क्योंकि
जो उसके गर्भ में है, वह पवित्र आत्मा की ओर से है। वह पुत्र
जनेगी और तू उसका नाम यीशु रखना; क्योंकि वह अपने लोगों का
उन के पापों से उद्धार करेगा। यह सब कुछ इसलिये हुआ कि जो वचन प्रभु ने
भविष्यद्वक्ता के द्वारा कहा था; वह पूरा हो। कि, देखो एक कुंवारी गर्भवती होगी और एक पुत्र जनेगी और उसका नाम इम्मानुएल
रखा जाएगा जिस का अर्थ यह है “परमेश्वर हमारे साथ”।” (मत्ती 1:20-23)।
परमेश्वर के कृपालु होने का यह अद्भुत उदाहरण है - जिस के द्वारा पाप और उसकी बरबादी
ने संसार में प्रवेश किया, उसे नष्ट, नहीं
तो कम से कम नजरंदाज करने के स्थान पर, उसी के द्वारा पाप और
उसके दुष्प्रभावों का निवारण करने वाले को भी संसार में भेजे जाने की प्रतिज्ञा
परमेश्वर ने इस आरंभिक स्थिति में ही दे दी।
·
पति की ओर स्त्री की लालसा रखने तथा स्त्री को पति के अधिकार में रखने के
द्वारा परमेश्वर ने अब परिवार का मुख्या होने का अधिकार आदम को दे दिया।
·
परमेश्वर चाहता तो आदम और हव्वा को नष्ट कर के, एक नए मनुष्य की रचना कर
सकता था; किन्तु उसने ऐसा नहीं किया। उसने उसी मनुष्य के साथ,
जिसे उसने अपने स्वरूप में अपने हाथों से बनाया था, और जिसे अपनी श्वास के द्वारा जीवित प्राणी बनाया था, आगे भी कार्य पृथ्वी पर कार्य करते रहने को चुना, और उसी में से संसार को पाप
से छुड़ाने वाले को लाने का प्रयोजन किया।
·
परमेश्वर ने आदम और हव्वा को अदन की वाटिका, उस आशीष और परमेश्वर की संगति के
स्थान से तो निकाला, किन्तु पृथ्वी पर से नहीं निकाला;
और न ही उनसे समस्त पृथ्वी और जीव-जंतुओं पर दिए गए अधिकार
(उत्पत्ति 1:26-28) को वापस लिया।
·
अदन की वाटिका के बाहर भी परमेश्वर उनकी देखभाल करता रहा, उनकी सहायता करता रहा:
o
अपने प्रथम संतान के प्रसव के समय हव्वा ने कहा, “जब आदम अपनी पत्नी
हव्वा के पास गया तब उसने गर्भवती हो कर कैन को जन्म दिया और कहा, मैं ने यहोवा की सहायता से एक पुरुष पाया है” (उत्पत्ति 4:1)। यह पृथ्वी पर मनुष्य का पहला जन्म था;
न अदन को और न हव्वा को कुछ पता था कि क्या और कैसे करना है;
किन्तु इसमें परमेश्वर ने स्वयं उनकी सहायता की।
o
अपने भाई की हत्या करने, और परमेश्वर से झूठ बोलने वाले कैन के प्रति भी परमेश्वर
ने सहनशीलता का बर्ताव किया, उसे सुरक्षा प्रदान की
(उत्पत्ति 4:13-16)।
इसके बाद भी बाइबल और शेष
मानव इतिहास में भी हम परमेश्वर के पापी, अनाज्ञाकारी,
और ढीठ मनुष्यों के प्रति भी इसी प्रकार प्रेमी, अनुग्रहकारी, और कृपालु होने के अनेकों उदाहरणों
देखते हैं। इन बातों के आधार पर हम अपने इस पहले प्रश्न “यह
उद्धार, अर्थात बचाव, या सुरक्षा किस
से और क्यों होना है?” के विषय क्या निष्कर्ष देख सकते हैं?
निष्कर्ष स्पष्ट प्रकट हैं:
- किस
से - उद्धार या बचाव पाप के दुष्प्रभावों से होना है, जिन के कारण मनुष्यों में
आत्मिक एवं शारीरिक मृत्यु, डर, अहं,
दोष, लज्जा, परमेश्वर
से दूरी, अपनी गलतियों के लिए बहाने बनाना तथा दूसरों
पर दोषारोपण करने, परमेश्वर की कृपा को नजरंदाज करने
जैसी प्रवृत्ति और भावनाएं आ गई हैं। प्रभु यीशु मसीह हमें पाप के प्रभावों
से मुक्त कर के “पवित्र, निष्कलंक,
निर्दोष, बेदाग और बेझुर्री” बनाकर अपने साथ, अपनी कलीसिया, अर्थात मसीही विश्वासियों के कुल समुदाय को, अपनी
दुल्हन बनाकर खड़ा करना चाहता है (इफिसियों 5:25-27)।
- क्यों
- क्योंकि हमारा सृष्टिकर्ता परमेश्वर हम सभी मनुष्यों से अभी भी प्रेम करता
है, हमारे साथ
संगति में रखना चाहता है, चाहता है कि हम उस से
मेल-मिलाप कर लें, और उसके पुत्र-पुत्री होने के दर्जे को स्वीकार कर लें (यूहन्ना 1:2-13)। वह हमें विनाश में नहीं आशीष में देखना चाहता
है। उसने केवल मनुष्य बनाए; मनुष्यों ने अपने आप को स्थान, धर्म, जाति, कुल, रंग, स्तर, शिक्षा, कार्य आदि
हर बात के अनुसार विभाजित कर लिया, अपने अंदर ऊँच-नीच
ले आया, एक दूसरे से बैर, विरोध, ईर्ष्या, घमंड, दुर्भावना आदि रखने लगा। ये
परमेश्वर का किया हुआ नहीं है, वरन पापी मनुष्य की बिगड़ी
हुई सोच का परिणाम है, वे “अंजीर
के पत्ते” हैं जिनसे मनुष्य अपनी लज्जा को ढाँपना चाहता
है, किन्तु ढाँपने के स्थान पर अपनी लज्जा और दोष को और
बढ़ाता रहता है। परमेश्वर उससे फिर भी प्रेम करता है, और
इन सभी बातों से ऊपर उठकर उसे अपने साथ स्वर्ग में स्थान देना चाहता है।
परमेश्वर की इस मनसा को स्वीकार करना अथवा नहीं करना, मनुष्य
का अपना निर्णय है।
क्या आपने परमेश्वर के इस प्रेम, सहनशीलता, अनुग्रह और कृपया के पक्ष में निर्णय लिया है? यदि
नहीं, तो आप अभी यह कर सकते हैं; आपकी
स्वेच्छा, सच्चे मन और अपने पापों के लिए पश्चाताप के साथ की
गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु, मैं मान लेता हूँ कि मैंने मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता
करके पाप किया है। मैं धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर,
मेरे स्थान पर उनके मृत्यु-दण्ड को कलवरी के क्रूस पर दिए गए अपने
बलिदान के द्वारा सह लिया। आप मेरे स्थान पर मारे गए, और
मेरे उद्धार के लिए मृतकों में से जी भी उठे। कृपया मुझ पर दया करें और मेरे पाप
क्षमा करें। मुझे अपना शिष्य बना लें, और अपनी आज्ञाकारिता
में अपने साथ बना कर रखें” आपको पाप के विनाश से निकालकर
परमेश्वर के साथ संगति और उसकी आशीषों में लाकर खड़ा कर देगी। क्या आप यह प्रार्थना
अभी समय रहते करेंगे - निर्णय आपका है?
बाइबल पाठ: भजन 136:1-9, 23-26
भजन संहिता 136:1 यहोवा का धन्यवाद
करो, क्योंकि वह भला है, और उसकी करुणा
सदा की है।
भजन संहिता 136:2 जो ईश्वरों का
परमेश्वर है, उसका धन्यवाद करो, उसकी करुणा
सदा की है।
भजन संहिता 136:3 जो प्रभुओं का प्रभु
है, उसका धन्यवाद करो, उसकी करुणा सदा
की है।
भजन संहिता 136:4 उसको छोड़कर कोई
बड़े बड़े आश्चर्यकर्म नहीं करता, उसकी करुणा सदा की है।
भजन संहिता 136:5 उसने अपनी बुद्धि से
आकाश बनाया, उसकी करुणा सदा की है।
भजन संहिता 136:6 उसने पृथ्वी को जल
के ऊपर फैलाया है, उसकी करुणा सदा की है।
भजन संहिता 136:7 उसने बड़ी बड़ी
ज्योतियों बनाईं, उसकी करुणा सदा की है।
भजन संहिता 136:8 दिन पर प्रभुता करने
के लिये सूर्य को बनाया, उसकी करुणा सदा की है।
भजन संहिता 136:9 और रात पर प्रभुता
करने के लिये चन्द्रमा और तारागण को बनाया, उसकी करुणा सदा
की है।
भजन संहिता 136:23 उसने हमारी दुर्दशा
में हमारी सुधि ली, उसकी करुणा सदा की है।
भजन संहिता 136:24 और हम को द्रोहियों
से छुड़ाया है, उसकी करुणा सदा की है।
भजन संहिता 136:25 वह सब प्राणियों को
आहार देता है, उसकी करुणा सदा की है।
भजन संहिता 136:26 स्वर्ग के परमेश्वर
का धन्यवाद करो, उसकी करुणा सदा की है।
एक साल में बाइबल:
· भजन 135; 136
· 1 कुरिन्थियों 12