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बुधवार, 31 अगस्त 2022

मसीही सेवकाई और पवित्र आत्मा के वरदान / Gifts of The Holy Spirit in Christian Ministry – 11


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आत्मिक वरदानों का उपयोग 

    पिछले लेख में हम 1 कुरिन्थियों 12:7-11 से देख चुके हैं कि परमेश्वर पवित्र आत्मा के द्वारा दिए जाने वाले सभी वरदान किसी के निजी प्रयोग अथवा लाभ के लिए नहीं, वरन मसीही विश्वासियों की मण्डली की उन्नति और परमेश्वर के सुसमाचार के प्रचार तथा प्रसार के लिए हैं। इन वरदानों में आश्चर्यकर्म करने और अन्य भाषाएं बोलने तथा उन भाषाओं का अनुवाद करने के वरदान भी सम्मिलित हैं; और इनके संदर्भ में भी हमने देखा है कि ये भी, यदि उचित रीति से समझे तथा प्रयोग किए जाएं तो पद 7 के अनुसार और अन्य वरदानों के समान ही, सभी की भलाई के लिए दिए गए हैं। पद 11 में आत्मिक वरदानों के उपयोग के विषय दो बहुत महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं, जिन्हें आत्मिक वरदानों का उपयोग करने के लिए समझना और ध्यान में रखना अनिवार्य है। ये दो बातें हैं (1) आत्मिक वरदानों का सदुपयोग परमेश्वर पवित्र आत्मा ही करवाता है; (2) हर मसीही विश्वासी को सभी आत्मिक वरदान परमेश्वर पवित्र आत्मा अपनी ओर से प्रदान करता है।

 

यहाँ कही गई दूसरी बात के बारे में हम पहले भी देख चुके हैं कि परमेश्वर द्वारा हर एक मसीही विश्वासी के लिए निर्धारित सेवकाई (इफिसियों 2:10) के अनुसार, उसके सुचारु रीति से निर्वाह के लिए, पवित्र आत्मा व्यक्ति को उस सेवकाई के लिए आवश्यक एवं उपयुक्त वरदान देता है। क्योंकि ये सेवकाई परमेश्वर ने निर्धारित की है, और ‘पहले से’ ही निर्धारित कर रखी है, अर्थात यह परमेश्वर की सार्वभौमिक इच्छा एवं योजना के अनुसार है, इसलिए इसका ताल-मेल औरों की सेवकाइयों तथा व्यक्ति के लिए निर्धारित योजनाओं और कार्यों के साथ भी अवश्य होगा। इस कारण से किसी मनुष्य के द्वारा इसे बदलना संभव नहीं है। और हम पहले भी देख चुके हैं कि बाइबल में भी स्पष्ट उदाहरण हैं कि जिसके लिए परमेश्वर ने जो निर्धारित किया है, उसे ही वह कार्य, वह सेवकाई निभानी पड़ी; अपनी अनिच्छा या अयोग्यता आदि जताने के द्वारा कोई अपनी सेवकाई से हट नहीं सका, उसे बदलवा नहीं सका। साथ ही हम इस अध्याय के पद 31 (जिसका उपयोग पवित्र आत्मा से संबंधित गलत शिक्षाएं फैलाने वाले मन-चाहे वरदान मांगने और प्राप्त करने को सही ठहराने के लिए करते हैं), के बारे में भी देख चुके हैं कि यह पद केवल “धुन में रहने” के लिए कह रहा है, किन्तु इसका कोई आश्वासन नहीं दे रहा है कि उस व्यक्ति की वह ‘धुन” पूरी भी की जाएगी। साथ ही, इस पद को उसके संदर्भ में देखने और समझने से यह प्रकट है कि यह मण्डली में अधिक से अधिक उपयोगी होने के अभिप्राय से कहा गया है, आत्मिक वरदान बदलवाने के लिए नहीं।

 

इसी प्रकार से पद 11 में कही गई पहली बात, आत्मिक वरदानों का सदुपयोग परमेश्वर पवित्र आत्मा ही करवाता है, के भी कुछ बहुत महत्वपूर्ण निष्कर्ष हैं। हम परमेश्वर पवित्र आत्मा के बारे में यूहन्ना 16:12-13 से पहले देख चुके हैं कि वह “सत्य का आत्मा” है जो प्रभु के शिष्यों को केवल सत्य का मार्ग बताता है, और अपनी ओर से कुछ नहीं कहता है, केवल वही कहता और करता है जो वह प्रभु परमेश्वर से सुनता है। इसलिए यह संभव ही नहीं है कि मनुष्यों की इच्छा के अनुसार परमेश्वर पवित्र आत्मा उनकी सेवकाई या वरदानों में कोई परिवर्तन करे। मसीही विश्वासियों को पवित्र आत्मा दिए जाने का उद्देश्य उनकी सेवकाई और मसीही जीवन में उनकी सहायता करना, और उन्हें सही मार्ग पर चलाना है, न कि उनकी इच्छाओं के अनुसार फेर-बदल करते रहना। त्रिएक परमेश्वर का कोई भी स्वरूप मनुष्यों के हाथों की कठपुतली नहीं है कि व्यक्ति उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार नचाता रहे। जबकि पवित्र आत्मा के नाम से गलत शिक्षाएं देने वालों की बातों में अधिकांशतः परमेश्वर को अपनी इच्छा के अनुसार प्रयोग करने के प्रयास होते हैं। और अपनी इच्छा-पूर्ति को भक्ति के भेष में प्रस्तुत करने के लिए वे नाटकीय प्रार्थनाओं को भी इसके लिए सम्मिलित कर लेते हैं, किन्तु मूल बात परमेश्वर की निर्धारित इच्छा के स्थान पर अपनी पसंद-नापसंद को लागू करवाने के प्रयास रहते हैं। इसकी तुलना में, जब हम सुसमाचारों में प्रभु यीशु मसीह के, तथा पत्रियों में प्रेरितों और प्रभु के शिष्यों के प्रार्थना के जीवन को देखते हैं, तो न तो उन्होने कभी कोई नाटकीय प्रार्थनाएं कीं, न कोई नाटकीय प्रचार किए। प्रभु यीशु ने तो सदा ही एकांत में प्रार्थना के द्वारा हर बात के लिए पहले परमेश्वर पिता की इच्छा को पता किया, और फिर उस इच्छा को ही पूरा किया; अपनी इच्छा को परमेश्वर की इच्छा पर हावी कभी नहीं किया। यहाँ तक कि पकड़वाए जाने से पहले, गतसमनी के बाग में की गई प्रार्थना में भी प्रभु ने अपनी इच्छा व्यक्त अवश्य की, किन्तु किया वही जो परमेश्वर ने उनके लिए निर्धारित किया हुआ था।

 

यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए भी अपने मसीही जीवन और सेवकाई के सही निर्वाह के लिए इन बातों को समझना और पालन करना बहुत आवश्यक है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा न तो अपनी ओर से कुछ कहेगा, और न करेगा; वह केवल वही कहेगा और करेगा जो प्रभु परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया हुआ है। पवित्र आत्मा “सत्य का आत्मा” है; इसलिए ऐसी प्रत्येक बात, ऐसा प्रत्येक व्यवहार, ऐसी प्रत्येक प्रार्थना या निवेदन जो परमेश्वर के वचन के अनुसार, उसके अनुरूप नहीं है, उससे “सत्य के आत्मा” अर्थात परमेश्वर पवित्र आत्मा का कोई संबंध, कोई लेना-देना नहीं है। जो कुछ भी वचन के बाहर का है, वह असत्य है, परमेश्वर की ओर से नहीं है, और पवित्र आत्मा उसमें किसी के भी साथ कदापि नहीं होगा, लेश-मात्र भी नहीं। इसलिए अपने मसीही जीवन और अपनी मसीही सेवकाई को वचन के अनुसार और अनुरूप बनाइए; परमेश्वर द्वारा आपके लिए निर्धारित सेवकाई को पूरा करने के प्रयास में रहिए, तब ही परमेश्वर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य और कार्य आपके जीवन को, तथा आप में होकर अन्य लोगों को, मण्डली को लाभान्वित करेंगे, उन्नत करेंगे।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • भजन 132-134 

  • 1 कुरिन्थियों 11:17-34


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English Translation

Utilizing the Gifts of the Holy Spirit


We have seen in the previous articles and from 1 Corinthians 12:7-11 that the gifts given by God the Holy Spirit are not meant for anyone’s personal use or benefit, but are for the growth and benefit of the Church, for the preaching and propagation of the gospel, and glorifying God through their use. Included in these gifts are the gifts of miracles, of speaking in tongues, i.e., other known earthly languages, and interpreting of ‘tongues’; and we saw that these too if understood and utilized properly, then as said in verse 7, like the other gifts these gifts too are similar to the other gifts, and for the benefit of all. In verse 11 two very important things have been stated about utilizing the gifts, and it is essential to understand them and always bear them in mind for the proper utilization of all the Spiritual gifts. These two things are, (1) It is God the Holy Spirit who helps properly utilize the gifts; (2) all the Spiritual gifts are decided and given only by the Holy Spirit to every Christian Believer.


We have already seen earlier about the second thing stated here, that according to the God ordained work and ministry of every Believer (Ephesians 2:10), to help fulfill it properly and worthily, the Holy Spirit gives appropriate gifts to every person. Since the work and ministry has been determined by God, and has been determined “beforehand”, i.e., it is according to the sovereign will of God, therefore those works and ministry must be in harmony with God’s overall plans and the related works and ministries of other Believers. Hence it is not possible to change the work, ministry, and its related gifts by, or for any person. We have seen earlier through Biblical examples that whatever God had decided for a person, he had to do it; no one could escape by pleading disinterest or inability for the work or ministry, nor could anyone ever get his God assigned work and ministry changed for another. We also saw from verse 31 of this chapter (a verse misinterpreted and misused as an assurance by those who preach and teach wrong doctrines and false teachings about the Holy Spirit, to ask for gifts according to one’s own desires), that not only all that this verse is saying is to “desire”, it is not assuring that God is bound to act according to the desire; but also that when seen in its context, this verse is exhorting to be desirous of being of the best possible use in the Church, and not to change one’s gifts to those that seem best to them.


Similarly, regarding the first thing stated in verse 11, i.e., it is God the Holy Spirit who helps utilize the gifts properly and worthily, there are some very important implications and conclusions too. We have seen in the earlier articles about the role of the Holy Spirit, from John 16:12-13, that He is “the Spirit of truth” and He teaches the way of truth to the Lord Jesus’s disciples. He never says anything from His own side, he only says and does what He hears form the Lord God. Therefore, it is just not possible that He will change anyone’s ministry and related Spiritual gifts according to any person’s desires. The purpose of the Holy Spirit being given to the Christian Believers is to help them in their Christian life and ministry, and lead them into the right way for them; He is not there to fulfill their whims and fancies. No person of the Holy Trinity, the Triune God, is a puppet in the hands of men, that people may make Him do according to their desires. In contrast, practically all of the doctrines and teachings of those who spread false teachings about the Holy Spirit, are centered on manipulating the Holy Spirit to fulfill their own desires and whims, in one form or the other. To present their desires as a godly activity these people also make use of dramatic gestures in prayers, of impressive language and behavior etc.; but the main thing remains to have their own desires replace and change God’s will. Whereas when we look at the life and prayers of the Lord Jesus and His disciples in the Gospel accounts and in the letters, we never see anything similar to what these people do. There is no example of any dramatic prayers, or pleadings, or preaching. The Lord Jesus usually went into a solitary place, prayed and communed with God alone, learnt of His will, and then came to fulfill that will; He never imposed His own will and desire over God’s will. So much so that in His prayer in the Garden of Gethsemane, He did express His will to the Father, but did only that which had already been ordained for Him to do by God the Father.


If you are a Christian Believer, then to properly and worthily live your Christian life and fulfill your ministry, it is very essential for you to understand and follow these Biblical truths, that God the Holy Spirit will never say or do anything on His own, or from His side; He will only say and do what has been decided and said by the Lord God. The Holy Spirit is the Spirit of Truth; therefore, every such prayer, statement, behavior, or anything which is not in accordance with God’s Word, is not from God’s Word, God the Holy Spirit will have nothing to do with it. Everything that is outside of God’s Word is not the truth, is not from God, and God the Holy Spirit will not have any part in it, none whatsoever. Therefore, make your Christian life and ministry conform to God’s Word and will, instead of the other way around; strive to fulfill your God given work and ministry, instead of trying to change or modify them. Only then will the power of the Holy Spirit be evident and working in your life, and will not only benefit you, but also others in your Church and congregation.


If you are still thinking of yourself as being a Christian, a child of God, entitled to a place in heaven, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start learning, understanding, and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 132-134 

  • 1 Corinthians 11:17-34




मंगलवार, 30 अगस्त 2022

मसीही सेवकाई और पवित्र आत्मा के वरदान / Gifts of The Holy Spirit in Christian Ministry – 9


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1 कुरिन्थियों 12:7-11 के आत्मिक वरदान की समझ - भाग - 2


पिछले लेख में हमने 1 कुरिन्थियों 12:7-11 में दिए गए आत्मिक वरदानों को देखना आरंभ किया था। यहाँ दिए गए 9 विभिन्न वरदानों: “बुद्धि का बातें”; “ज्ञान की बातें”; “विश्वास”; “चंगा करने का वरदान”; “सामर्थ्य के काम करने की शक्ति”; “भविष्यवाणी करने की शक्ति”; “आत्माओं की परख”; “अनेक प्रकार की भाषा”; “भाषाओं का अर्थ बताना” में से हमने पहले पाँच के बारे में देखा था। साथ ही हमने यह भी देखा था कि पवित्र आत्मा के सभी वरदान किसी के निज प्रयोग अथवा लाभ के लिए नहीं हैं, वरन, सभी के लिए और मसीही विश्वासियों की मण्डली की उन्नति और लाभ के लिए हैं। जिसे भी उसकी सेवकाई के लिए जो भी वरदान परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रदान किया है, उसे वह वरदान पवित्र आत्मा की अगुवाई में, सभी मसीही विश्वासियों के लाभ के लिए प्रयोग करना है, अपने लिए नहीं।


आज हम शेष चार वरदानों के बारे में कुछ विवरण देखेंगे:

  • “भविष्यवाणी करने की शक्ति”: मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद “भविष्यवाणी” किया गया है, उसका शब्दार्थ न केवल भविष्य की बातें बताना होता है, वरन प्रेरित होकर औरों के सामने बोलना या बताना भी होता है। 1 कुरिन्थियों 14:3 में इसी शब्द को “”... मनुष्यों से उन्नति, और उपदेश, और शान्‍ति की बातें” कहने के लिए भी प्रयोग किया गया है, और लूका 22:64 में, जब पकड़वाए जाने के बाद सैनिकों द्वारा प्रभु का उपहास किया जा रहा था, तब “बूझने” या “पता लगाकर बताने” के लिए भी हुआ है। इसी प्रकार से इस शब्द को विभिन्न स्थानों में उसके भिन्न अर्थों के साथ उपयोग किया गया है। पवित्र आत्मा न केवल कुछ लोगों को भविष्य की बातें बताने की सामर्थ्य देता है (प्रेरितों 21:9-11), वरन कुछ लोगों को परमेश्वर की बातें औरों के सामने बोलने की भी सामर्थ्य देता है (1 कुरिन्थियों 11:4,5; 13:9; 14:3-5, 24, 31, 39; प्रकाशितवाक्य 11:3)। इसलिए “भविष्यवाणी” का वरदान न केवल भविष्य की बातन बताने की सामर्थ्य है, वरन परमेश्वर का प्रतिनिधि बनकर लोगों के सामने परमेश्वर के वचन का प्रचार करना और सिखाना भी है।

  • “आत्माओं की परख”: पहली कलीसिया की स्थापना, और प्रभु के शिष्यों द्वारा सुसमाचार प्रचार के आरंभ होने के साथ ही शैतान की ओर से झूठे प्रचारक (1 यूहन्ना 2:18; 4:1), प्रभु यीशु के नाम से प्रचार को कमाई का साधन बना कर प्रयोग करने वाले (रोमियों 16:18; फिलिप्पियों 3:18, 19), और गलत शिक्षाओं के देने वाले (2 कुरिन्थियों 4:2; 2 पतरस 2:1; 2 यूहन्ना 1:7) भी मण्डलियों और लोगों में फैलने लगे थे, अपने कार्य के द्वारा लोगों को बहकाने लगे थे। उस समय में, जब आज के समान लिखित वचन लोगों के हाथ में नहीं था, अधिकांशतः मसीही जीवन की शिक्षाएं, सुसमाचार प्रचार, और प्रभु की बातों का प्रसार, मौखिक प्रचार और संबोधनों के द्वारा होता था। ऐसे में, इन शैतान के लोगों के झूठ और गलत शिक्षाओं को तुरंत ही परखने और प्रकट करने के लिए, वचन को जानने, जाँचने, और सच को उजागर करने की शक्ति पवित्र आत्मा लोगों को देता था, जिससे वे झूठ को प्रकट कर के लोगों को गलत शिक्षाओं से बचा सकें (1 कुरिन्थियों 14:29)। यह कार्य आज भी पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से कुछ लोग विभिन्न माध्यमों के द्वारा करते रहते हैं, अन्यथा गलत शिक्षाओं की भरमार में मसीही विश्वासियों के लिए सत्य की पहचान करना बहुत कठिन हो जाएगा।   

  • “अनेक प्रकार की भाषा”: प्रेरितों 2:4-11 से यह प्रकट है कि जिन “अन्य भाषाओं” का उल्लेख किया गया है वे पृथ्वी की ही, और विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों के लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएं थीं, न कि अलौकिक या पृथ्वी के बाहर की भाषाएं, जैसा पवित्र आत्मा के नाम से गलत शिक्षाएं देने वाले दावा करते हैं। यह बात 1 कुरिन्थियों 14 अध्याय के अध्ययन से और अधिक स्पष्ट एवं दृढ़ हो जाती है। उस समय प्रभु के शिष्यों और प्रेरितों को तुरंत ही संसार भर में जाकर सुसमाचार बताने की आवश्यकता थी; किन्तु प्रभु के अनुयायी सभी इस्राएल से थे, अपनी स्थानीय भाषा बोलने वाले थे, और अधिकांशतः तो बहुत कम शिक्षा पाए हुए या अनपढ़ भी थे। इस बात का सुसमाचार प्रचार में बाधा बनने के समाधान के लिए पवित्र आत्मा ने उन शिष्यों को अनेकों प्रकार की भाषाएं बोलने का वरदान भी दे दिया, जिससे वे उस भाषा के अनुसार अलग-अलग इलाकों में जाकर प्रचार कर सकें। यह उस समय की तात्कालिक आवश्यकता थी, जिसका समाधान परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रदान किया, और यह 1 कुरिन्थियों 14 अध्याय में और स्पष्ट भी हो जाता है। साथ ही पवित्र आत्मा ने यह भी लिखवा दिया कि यह वरदान स्थाई नहीं है, वरन एक समय पर समाप्त हो जाएगा क्योंकि तब इसकी आवश्यकता नहीं रहेगी (1 कुरिन्थियों 13:8), हर स्थान पर हर भाषा में सुसमाचार देने वाले लोग खड़े हो जाएंगे। किन्तु इस वरदान की गलत समझ, व्याख्या, और शिक्षाओं के द्वारा पवित्र आत्मा के नाम से गलत शिक्षाएं देने वालों ने बहुतेरों को बहका रखा है, भ्रम में डाल रखा है। 

इसीलिए अन्य भाषा बोलने का वरदान भी सभी की भलाई, सभी की उपयोगिता, और मण्डली की उन्नति के लिए है; किसी के द्वारा व्यक्तिगत प्रयोग या अपने आप को विशेष सामर्थ्य पाया हुआ दिखाने के लिए नहीं। इस वरदान को व्यक्तिगत उपयोग के लिए बताना या प्रयोग करना, वचन के अनुसार नहीं है, इस वरदान तथा परमेश्वर के वचन का दुरुपयोग है। और जो यह करते हैं, वे वास्तव में कोई भाषा भी नहीं बोलते हैं; वे तो एक उन्माद की स्थित में होकर मुँह से कुछ समझ में न आने वाली आवाज़ें बारंबार निकालते चले जाते हैं। क्योंकि उनकी बात और उच्चारण किसी को समझ में नहीं आते हैं इसलिए वे यह दावा करते हैं कि वे एक “स्वर्गीय” भाषा बोल रहे हैं।  

  • “भाषाओं का अर्थ बताना”: जिस प्रकार संसार के सभी स्थानों में जाकर वहाँ की भाषा में सुसमाचार प्रचार करने वालों की आवश्यकता थी, उसी प्रकार से मण्डलियों में ऐसे लोगों की भी आवश्यकता थी जो दु-भाषिये का कार्य कर सकें। अर्थात यदि कोई भिन्न भाषा बोलने वाला प्रचारक किसी मण्डली में आए, तो उसकी बात को स्थानीय भाषा में अनुवाद कर के स्थानीय लोगों को लाभान्वित कर सकें। इसीलिए पवित्र आत्मा ने लिखवाया है कि प्रचारक को किसी नए स्थान पर जाने के बाद पहले यह पता कर लेना चाहिए कि उसकी बात का स्थानीय भाषा में अनुवाद करने वाला कोई है कि नहीं; यदि नहीं है तो फिर उसे शांत रहना चाहिए, नाहक प्रचार नहीं करना चाहिए (1 कुरिन्थियों 14:27-28)।


यदि आप मसीही विश्वासी हैं तो आपके लिए यह अनिवार्य है कि वचन की सही समझ और शिक्षा में दृढ़ और स्थापित हों, तथा गलत शिक्षाओं के बहकावे में न आएं; वरन गलत शिक्षाओं को औरों के सामने प्रकट करें और लोगों को उनसे सावधान रहने, बच कर रहने के बारे में समझाएं। इन अंत के दिनों में जिस तेज़ी से चिह्न-चमत्कारों आदि के द्वारा गलत शिक्षाएं फैलाई जा रही हैं, उसका सामना करने, लोगों को झूठी बातों में फँसने और बहकाए जाने से बचाने के लिए सभी मसीही विश्वासियों को वचन की सही समझ रखने और उसका सही उपयोग करना सिखाने की बहुत आवश्यकता है। प्रभु से प्रार्थना कीजिए, उससे माँगिए कि वह आपको अपने लिए उपयोग करे कि आप झूठ और गलत शिक्षाओं को प्रकट कर सकें, उन्हें उजागर कर सकें, और लोगों को गलत बातों में फंस कर अनन्त विनाश में जाने से बचा सकें।


 यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • भजन 129-131 

  • 1 कुरिन्थियों 11:1-16


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English Translation

Understanding the Gifts of the Holy Spirit of 1 Corinthians 12:7-11 - Part 2


From the previous article we had started to see about the gifts of the Holy Spirit mentioned in 1 Corinthians 12:7-11. Of the 9 different gifts, “word of wisdom,” “word of knowledge,” “faith,” “healing,” “miracles,” “prophecy,” “discerning of spirits,” “different kinds of tongues,” and “interpretation of tongues” mentioned in these 5 verses, we had seen about the first 5. We had also seen that none of the gifts of the Holy Spirit are for any person’s personal use or benefit; rather, all the gifts are meant for the help and benefit of everyone in the Church. Whichever gift anyone has received for their God assigned work and ministry, he has to use that gift under the guidance of God the Holy Spirit, for the benefit of the Christian Believers, not for himself alone.


Today we will see about the remaining four gifts:

  • “Prophecy”: The word used in the original Greek language, that has been has translated as “prophecy” means “to speak forth” - not only in time, i.e., tell about future events or things, but also to be inspired to speak before others, or tell others. The same word has been used in 1 Corinthians 14:3 “But he who prophesies speaks edification and exhortation and comfort to men” to convey that to prophecy also means to edify, exhort, and comfort others; and not only to tell about future things. Similarly, in Luke 22:64, when the soldiers were mocking the Lord Jesus caught for crucifixion, the same word has been used "Prophesy! Who is the one who struck You?" with the meaning of telling about an ongoing event. At other places too, in the Bible, this word has been used in its various meanings. The Holy Spirit not only gives the power to tell about the future events to some people (Acts 21:9-11), but also gives the power and ability to speak the things of God before others (1 Corinthians 11:4,5; 13:9; 14:3-5, 24, 31, 39; Revelation 11:3), and for all these, the same word has been used. So, the gift of “prophecy” is not just the gift of foretelling events, but also the gift of speaking and preaching God’s Word as the spokesman of God, before others.

  • “Discerning of spirits”: Along with the establishing of the first Church, and the beginning of the preaching of the gospel by the Lord’s disciples at various places, false preachers and teachers from Satan too started their work (1 John 2:18; 4:1), those who preach wrong doctrines and false teachings started to grow and spread (2 Corinthians 4:2; 2 Peter 2:1; 2 John 1:7), and people started to use the name of the Lord Jesus and preaching in His name as a means of earning money (Romans 16:18; Philippians 3:18, 19), and through all these and other similar things started to mislead and beguile people into wrong ways. At that time, when, unlike today, the people did not have the written Word in their hands, and usually all preaching about Christian Living, preaching the Gospel, and spreading the teachings of the Lord was done through oral preaching and addressing people. In such a situation, the Holy Spirit gave the ability to some people to immediately recognize the lies and false teachings of Satan and expose them to others. The Holy Spirit also gave the power and ability to know, examine, and teach God’s Word and to expose the false teachings, so that they could expose the lies and save others from wrong teachings and false doctrines (1 Corinthians 14:29). This work is done even today by some people under the guidance and power of the Holy Spirit; else in the rampant spread of the wrong doctrines and false teachings amongst Christian Believers today, it would become very difficult to discern the truth.

  • “Different kinds of tongues”: From Acts 2:4-11 it is apparent that the “tongues” or other languages that has been spoken of were known, recognized, named, and spoken earthly languages of different geographical regions. They were not any “out of the world” or “heavenly” languages, as those who preach and teach wrong things in the name of the Holy Spirit claim. This becomes all the more clear and established form 1 Corinthians 14. At that time, the disciples of the Lord Jesus had to spread out into the world and preach the gospel to all people; but the disciples were all from Israel, spoke their local language, and most of them were either poorly educated or uneducated. So that this does not become a limiting factor in the preaching and spread of the Gospel, therefore, the Holy Spirit gave the then disciples the remedy to the situation - the miraculous ability to speak in other languages without having to wait to learn them, so that they could immediately go to various geographical areas and preach the gospel unhindered by language. This was an immediate need of the situation, and it was taken care of by the Holy Spirit, and this becomes clear in 1 Corinthians 14. Moreover, God the Holy Spirit also had it written down that this gift was not for all times, but aftet some time it will be taken away because by that time it will no longer be needed (1 Corinthians 13:8), at every place, in every language people would come up who can preach the gospel in the local language. But, by misinterpreting the teachings about this gift and misusing this gift itself, those who preach wrong doctrines and teach false teachings have created a lot of confusion and have beguiled and led astray many people.

The gift of being able to speak in other languages is also for the growth and benefit of the Church and other Christian Believers, and not for the use and benefit of any person. Therefore, no one can claim to be someone extra-special or extra-ordinary, specially blessed by God because of having this gift. Doing so is a misuse of this gift and God’s Word; and those who do this actually do not speak any language, but just repetitively utter a few unintelligible sounds in an ecstatic state. Since what they are saying is not understood by anyone, they claim that they are speaking some “heavenly” language.

  • “Interpretation of tongues”: At that time, just as it was required that there be people who will be able to go to various places and preach the gospel in the local language, similarly it was required in the Church that there be bi-lingual or multi-lingual people, who would be able to translate for someone coming from another language speaking area, so that if an outside preacher comes, then the local people can benefit from what he has to say. It is for this reason that the Holy Spirit had it written down that if a preacher goes to a new area, he should first find out if there is someone who can translate for him into the local language; if there is nobody, then he should stay silent instead of unnecessarily preaching when no one can understand what he is saying (1 Corinthians 14:27-28).


If you are a Christian Believer, then it is essential for you to be firmly rooted and established in the correct understanding and teachings of God’s Word. You should not get carried away by the attractive, emphatic, and impressive presentations of wrong doctrines and false teachings. Rather you should expose these wrong things before others and caution the people against getting misled by these wrong things. In these last days wrong doctrines and false teachings are being preached, taught, and spread very rapidly, specially through signs and wonders. It is essential for every Christian Believer to learn from God’s Word the truth about these things, stay safe themselves and keep others safe as well, and teach the correct doctrines and teachings from the Word of God. Pray about this to the Lord and ask Him to use you to counter and expose the wrong doctrines and teachings, to help people come out of and stay away from these seemingly attractive, alluring, and dramatic teachings, which actually are destructive and lead people astray into condemnation.


If you are still thinking of yourself as being a Christian, a child of God, entitled to a place in heaven, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start learning, understanding, and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.




Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 129-131 

  • 1 Corinthians 11:1-16



सोमवार, 29 अगस्त 2022

मसीही सेवकाई और पवित्र आत्मा के वरदान / Gifts of The Holy Spirit in Christian Ministry – 8


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1 कुरिन्थियों 12:7-11 के आत्मिक वरदान - भाग 1


पिछले लेख में हमने देखा है कि न तो कोई आत्मिक वरदान और न ही कोई मसीही सेवकाई छोटी अथवा बड़ी, या कम अथवा अधिक महत्वपूर्ण है; परमेश्वर की दृष्टि में सभी समान हैं। सभी वरदानों का उपयोग किसी के निज प्रयोग अथवा भलाई के लिए नहीं वरन मण्डली के सभी लोगों की भलाई के लिए होना है। सभी वरदान परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए परमेश्वर द्वारा नियुक्त सेवकाई को सुचारु रीति से पूरा करने के लिए दिए जाते हैं; किसको क्या वरदान मिलना है, यह व्यक्ति की इच्छा के अनुसार नहीं, अपितु पवित्र आत्मा के द्वारा निर्धारित किया जाता है। हमने यह भी देखा था कि 1 कुरिन्थियों 12:31 में वाक्यांश “बड़े से बड़े वरदान की धुन में रहो” का अभिप्राय मण्डली में परमेश्वर के लिए अधिक से अधिक उपयोगी होने की “धुन में रहने” या हार्दिक इच्छा बनाए रखने के लिए है, वरदानों को बड़ा या छोटा बताने और वरदानों में बदलाव करवाने के लिए नहीं। इस वाक्यांश के विषय यह भी ध्यान कीजिए कि “धुन में रहो” लिखा गया है; किन्तु यह नहीं कहा गया है कि ऐसा करने से पवित्र आत्मा हमारी “धुन में रहने” के अनुसार हमारे वरदानों और सेवकाई में कोई परिवर्तन कर देगा - जैसा कि बहुधा पवित्र आत्मा से संबंधित गलत शिक्षाएं सिखाने वाले अभिप्राय देते हैं, और इसके लिए इस पद का दुरुपयोग करते हैं। 


आज से हम 1 कुरिन्थियों 12:7-11 के इन 5 पदों में दिए गए विभिन्न वरदानों को थोड़ा और गहराई से देखते हैं। यहाँ हर वरदान के साथ लिखा है, “किसी को...”; अर्थात हर किसी को सभी वरदान नहीं दिए गए हैं, और हर किसी को एक ही वरदान नहीं दिया गया है; वरन अलग-अलग सेवकों को, उनकी सेवकाई के अनुसार ही अलग-अलग वरदान दिए गए हैं। इसलिए किसी को भी किसी दूसरे के वरदान को लेकर ईर्ष्या या कोई अनुचित भावना नहीं रखनी चाहिए। यहाँ दिए गए वरदानों के अतिरिक्त भी पवित्र आत्मा के वरदान हैं, जो बाइबल की अन्य पुस्तकों में दिए गए हैं। अभी के लिए हम 1 कुरिन्थियों 12:7-11 में दिए गए वरदानों को ही देखना आरंभ करेंगे। इन 5 पदों में 9 विभिन्न वरदान दिए गए हैं; ये वरदान हैं: “बुद्धि का बातें”; “ज्ञान की बातें”; “विश्वास”; “चंगा करने का वरदान”; “सामर्थ्य के काम करने की शक्ति”; “भविष्यवाणी करने की शक्ति”; “आत्माओं की परख”; “अनेक प्रकार की भाषा”; “भाषाओं का अर्थ बताना”। इस खंड का आरंभ इन सभी वरदानों के सभी लोगों के लाभ के लिए होने, और पवित्र आत्मा के द्वारा होने (पद 7), और अंत इनके पवित्र आत्मा की इच्छा के अनुसार दिए जाने तथा इनका उपयोग पवित्र आत्मा द्वारा ही करवाए जाने (पद 11) से होता है। अर्थात आत्मिक वरदानों से संबंधित सब कुछ - उनका उद्देश्य, उन्हें प्रयोग करने की क्षमता, किस को क्या वरदान दिया जाना है का निर्णय, आदि, सभी परमेश्वर पवित्र आत्मा के अधिकार में है, यह पूर्णतः उनकी ओर से और उनके द्वारा है; किसी मनुष्य की इसमें कोई भूमिका अथवा अधिकार नहीं है, जैसा कि इस खंड से पहले पद 4-6 में भी लिखा गया है।


इन वरदानों की उपयोगिता के बारे में समझते हैं:

  • “बुद्धि का बातें”: बुद्धि या बुद्धिमत्ता का अर्थ होता है किसी परिस्थिति या आवश्यकता के अनुसार उपलब्ध ज्ञान एवं संसाधनों का उपयुक्त उपयोग करना; किसी कार्य को भली-भांति या लाभदायक रीति से करना। इसे भजन 119:97-105 के साथ देखने से यह और अधिक स्पष्ट हो जाता है। 

  • “ज्ञान की बातें”: ज्ञान किसी बात या विषय की जानकारी होने या उसे एकत्रित करने के लिए है। सामान्य व्यवहार में बुद्धिमत्ता और ज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं, और साथ-साथ उपयोग होते हैं; एक के बिना दूसरा ठीक से उपयोग नहीं किया जा सकता है। किन्तु ज्ञान शारीरिक भी हो सकता है और ईश्वरीय भी; शारीरिक ज्ञान शैतानी होता है और स्वयं तथा औरों के लिए हानिकारक होता है, और ईश्वरीय ज्ञान आत्मा के फलों के अनुसार होता है (याकूब 3:14-17)। पवित्र आत्मा द्वारा दिया जाने वाला “ज्ञान” ईश्वरीय ज्ञान है, और इस ज्ञान का बुद्धि के साथ किया गया उपयोग व्यक्ति तथा औरों के लिए उन्नति लाता है। 

  • “विश्वास”: बहुत सी ईश्वरीय बातें मनुष्य को अपनी सांसारिक बुद्धि से अविश्वसनीय लगती हैं, समझ में नहीं आती हैं। उदाहरण के लिए यह स्वीकार कर लेना कि प्रभु यीशु मसीह ने समस्त मानवजाति के पापों की पूरी-पूरी कीमत चुका दी है, अब उन पर लाए विश्वास के द्वारा मनुष्य अनन्तकाल के नरक के दण्ड से बचकर, परमेश्वर की संतान बनकर अनन्तकाल के लिए परमेश्वर के साथ स्वर्ग में रहने लगता है, मानवीय बुद्धि और ज्ञान के आधार पर बहुतों के लिए कठिन होता है। किन्तु पवित्र आत्मा इसे और परमेश्वर की अन्य अद्भुत और अविश्वसनीय प्रतीत होने वाली बातों को मानने के लिए आवश्यक विश्वास प्रदान करता है। इसीलिए याकूब ने लिखा है कि जिसे बुद्धि की घटी है वह परमेश्वर से मांगे और उसे दी जाएगी (याकूब 1:5-6); और इब्रानियों 11 अध्याय में पुराने नियम के उन विश्वास के दिग्गजों के नाम दिए गए हैं, जिन्होंने परमेश्वर की अविश्वसनीय प्रतीत होने वाली बातों पर भी विश्वास किया और ऐसे-ऐसे कार्य करे जो उनके अपने लिए तथा औरों के लिए असंभव थे। 

  • “चंगा करने का वरदान”: प्रभु यीशु के शिष्यों के द्वारा शारीरिक रोगों से चंगाई भी पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से दी जाती है, और चंगाई का यह वरदान भी परमेश्वर पवित्र आत्मा किसी-किसी मसीही सेवक को देता है, हर किसी को नहीं। किन्तु जिस प्रकार से आज इस वरदान का प्रयोग किया जा रहा है, वैसा बाइबल में नहीं किया गया है। बाइबल में कहीं पर भी “चंगाई की सभाएं” आयोजित करने, चंगाई प्राप्त करने को लोगों को लुभाने और एकत्रित करने, और शारीरिक चंगाई की शिक्षा को आत्मिक चंगाई अर्थात सुसमाचार प्रचार पर प्रमुखता एवं प्राथमिकता दिए जाने का कोई उल्लेख या उदाहरण नहीं है। शारीरिक चंगाई, चाहे प्रभु यीशु के द्वारा, या फिर उनके शिष्यों के द्वारा, जब भी दी गई है, व्यक्तिगत रीति से, व्यक्ति विशेष को, उससे बात करने के बाद दी गई है। किन्तु आज चंगाई देना मनुष्यों के नाम के प्रचार और प्रशंसा प्राप्त करने का माध्यम बन गया है। इस वरदान का बाइबल की शिक्षाओं के अनुरूप उचित उपयोग करने के स्थान पर इसका प्रभु यीशु के नाम में व्यक्तिगत प्रशंसा और लाभ के लिए किया जाने वाला दुरुपयोग और इसे अनुचित शिक्षाओं के साथ मिलाकर लोगों में प्रदर्शन करना, आज मसीही विश्वास और सुसमाचार प्रचार के लिए बहुत बड़ी मुसीबत और बाधा बना हुआ है। 

  • “सामर्थ्य के काम करने की शक्ति”: यद्यपि यहाँ पर यह नहीं बताया गया है कि ये सामर्थ्य के काम कौन से हैं, किन्तु मूल यूनानी भाषा के शब्द का अंग्रेजी अनुवाद “miracles” किया गया है। अर्थात ऐसे कार्य जो सामान्य मानवीय योग्यता, शक्ति, एवं क्षमताओं के द्वारा किया जाना संभव नहीं है। इन विभिन्न प्रकार के कार्यों को हम इब्रानियों 11 अध्याय में दिए गए विश्वास के दिग्गजों द्वारा परमेश्वर और उसके वचन में विश्वास के द्वारा की गई बातों से भी समझ सकते हैं। उनके विश्वास को व्यावहारिक रूप में कार्यान्वित परमेश्वर पवित्र आत्मा ही करवाता रहा।


शेष वरदानों, “भविष्यवाणी करने की शक्ति”; “आत्माओं की परख”; “अनेक प्रकार की भाषा”; “भाषाओं का अर्थ बताना” को हम अगले लेख में देखेंगे। यदि आप मसीही विश्वासी हैं तो आपके लिए यह अति आवश्यक है कि आप अपनी सेवकाई को पहचानें और उस सेवकाई के लिए पवित्र आत्मा द्वारा आपको प्रदान किए गए वरदानों को भी पहचानें, उनके महत्व को समझें, और उनका उपयुक्त उपयोग करें, जिससे सुसमाचार का प्रचार और प्रसार, तथा परमेश्वर के नाम की महिमा हो। जो भी सेवकाई और वरदान परमेश्वर ने आप को प्रदान किए हैं, वही आपके ले सही और आशीषपूर्ण हैं। उन्हें बदलने के व्यर्थ प्रयासों और गलत शिक्षाओं में मत फंसें; वरन उन्हें पवित्र आत्मा के निर्देशानुसार उपयोग कीजिए और परमेश्वर की आशीषों से परिपूर्ण होते चले जाइए।

 

  यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • भजन 126-128 

  • 1 कुरिन्थियों 10:19-33

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English Translation

Understanding the Gifts of the Holy Spirit of 1 Corinthians 12:7-11 - Part 1


In the previous article we have seen that neither any Spiritual Gift, nor any Christian Ministry is greater or smaller, or of greater or lesser importance; in the eyes of God all are equal. All the Spiritual Gifts are to be used not for anyone’s personal benefit, but for the benefit of the people of the Church. All the gifts are given by God the Holy Spirit, so that the Believer can do his God assigned work and ministry properly and worthily. It is the Holy Spirit who decides which gift to give to whom; these gifts are not according to the desires of any person and no man can demand any particular gift from Him. We had also seen that the phrase “But earnestly desire the best gifts” from 1 Corinthians 12:31 implies to be desirous of being of “best use” or as much use as possible in the Church of God. Contrary to popular interpretation and misuse, as is done by those who teach wrong doctrines and false teachings about the Holy Spirit, this phrase and this verse is not meant to say that any gift is greater or lesser than another, and Believers should strive to have their gifts changed or to obtain a particular gift.


From today we will see in a little more detail about the Spiritual gifts mentioned in the 5 verses, 1 Corinthians 12:7-11. Take note that in these verses, along with the gifts the phrase “to one/to another…” has been added. In other words, all the gifts have not been given to any one person, nor has one particular gift been given to all the persons; but according to their work and ministry, different people have been given different gifts. Therefore, no one should have any ill-feelings or jealousy about another’s gifts. Besides the gifts of the Holy Spirit mentioned over here, other gifts have also been mentioned in the other books of the Bible. But for now, we will concentrate upon only 1 Corinthians 12:7-11, where in these 5 verses, 9 different gifts have been mentioned. The gifts mentioned are: “word of wisdom,” “word of knowledge,” “faith,” “healing,” “miracles,” “prophecy,” “discerning of spirits,” “different kinds of tongues,” and “interpretation of tongue.” This section starts with the caution that all the gifts are given by the Holy Spirit for the benefit of all (verse 7) and concludes with the caution that these gifts are given as the Holy Spirit decides and are to be used as the Holy Spirit instructs (verse 11). In other words, everything related to the Spiritual gifts - their purpose, the ability to use them, who is to receive which gift, etc., are all completely controlled by the Holy Spirit; all these gifts are from Him and by Him. No man has any role or interference in this, as has been made clear in the immediately preceding section of verses 4-6.


Let us now understand the utility of these gifts:

  • “Word of wisdom”: Wisdom is the ability to properly use the knowledge and available resources in any given situation; to be able to do a job well, and in a beneficial manner. Consider this along with Psalm 119:97-105 and the meaning will become clearer.

  • “Word of knowledge”: Knowledge is accumulating what is known about a topic or thing. In general behavior, wisdom and knowledge complement each other, and are used along with each other; one cannot be used well without the other. But knowledge can be temporal or physical as well as godly; temporal or physical knowledge can be satanic, is harmful for the person as well as others, whereas godly knowledge is in accordance with the fruits of the Holy Spirit (James 3:14-17). The knowledge given by the Holy Spirit is godly, and its use with wisdom brings benefits for the person as well as others.

  • “Faith”: Many godly things seem impossible or unbelievable by the worldly wisdom, and are very difficult to understand. For example, to accept that the Lord Jesus has paid in full the price of the sins of the entire mankind, and now by coming into faith in Him man can be saved from the eternal punishment in hell, and spend eternity in heaven with God as his child, is very difficult if not impossible by man’s own knowledge and wisdom. But the Holy Spirit gives the requisite faith to accept this and other seemingly too wonderful and unbelievable things of God. That is why James has written that the one who lacks wisdom should ask God for it, and it will be given to him (James 1:5-6). In Hebrews 11 we have listed for us the names of the Heroes of Faith from the Old Testament who believed even on the seemingly impossible things of God and then through their faith in God and His Word did things which were impossible for others.

  • “Gifts of Healing”: The physical healings done by the disciples of the Lord Jesus are done by the power of the Holy Spirit, and this gift of healing is given by God to some, not to everyone. But the way this gift is being promoted and used today, has never been done in the Bible. In the Bible there is no mention of any “Healing Campaigns or Meetings” being organized and advertised; there is no mention in the Bible of people being enticed for physical healings, and this preaching of healings taking precedence over the preaching of the Gospel, the message of salvation, i.e., the ‘healing’ of the spirit. The pattern we see throughout God’s Word is that any physical healing given to any person, has always been given personally, and after talking with that person. But today, physical healing has become a method of preaching about and promoting persons, acquiring name and fame. Instead of using this gift in accordance with the Biblical teachings about it, it is being misused to gain name, fame, and temporal benefits in the name of the Lord Jesus, and to preach many wrong doctrines and false teachings along with it. And this has become a big problem for the actual Christian Faith and for preaching and propagating the Gospel of Salvation.

  • “Working of Miracles”: The kinds of miracles have not been specified here, the term generally means those works or things that are not possible through human ability, power, and skills. What these kinds of works are can be well understood from the works done by the Heroes of Faith mentioned in Hebrews 11, because of their faith in God and His Word. It was the Spirit of God who gave a practical working to their faith.


We will see about the remaining gifts, “prophecy,” “discerning of spirits,” “different kinds of tongues,” and “interpretation of tongue” in the next article. If you are a Christian Believer then it is very essential for you to know and understand your ministry, and the gifts the Holy Spirit has given to you to fulfill the work and ministry. You should understand the importance of the gifts, and how to use them appropriately and effectively, so that through you and your ministry the Gospel of salvation is preached and propagated worthily and God’s name is glorified. Whichever gifts the Holy Spirit has given to you, they are the best, most beneficial, and most rewarding for you. Do not get caught up in the false teaching and vain efforts of trying to change them or acquire some other gifts. Rather, use your gifts for your God assigned works and ministry and you will grow and be filled with the blessings of the Lord God.


If you are still thinking of yourself as being a Christian, a child of God, entitled to a place in heaven, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start learning, understanding, and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 126-128 

  • 1 Corinthians 10:19-33