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शनिवार, 12 फ़रवरी 2022

अपरिपक्व कलीसिया के लक्षण


बालकों के समान व्यवहार और मानसिकता

 पीछे के लेखों में हमने देखा है कि प्रभु के लोगों में परमेश्वर के वचन से संबंधित पाँच प्रकार की ठीक से और निरंतर की जाने वाली सेवकाइयों के द्वारा ही मसीही विश्वासियों के मसीही जीवनों में और साथ ही प्रभु की कलीसिया की उन्नति होती है; वे परिपक्वता में अग्रसर होते रहते हैं, और प्रभु परमेश्वर की महिमा का कारण ठहरते हैं। किन्तु यदि किसी कारणवश व्यक्ति प्रेरितों 2:42 में दिए गए मसीही और कलीसिया के जीवन के चार स्तंभों, वचन की शिक्षा, मसीही विश्वासियों की संगति, सामूहिक एवं व्यक्तिगत प्रार्थना का जीवन, और प्रभु की मेज़ में नियमित सम्मिलित होने में शिथिल अथवा लापरवाह हो जाए, या कमज़ोर पड़ जाए तो उसका आत्मिक विकास बाधित हो जाता है, वह आत्मिक परिपक्वता में नहीं बढ़ने पाता है, उसका आत्मिक जीवन प्रभु के लिए अप्रभावी हो जाता है, और उसके जीवन से प्रभु को महिमा नहीं मिलती है। पिछले लेख में हमने यह भी देखा था कि मसीही विश्वास में आने के बाद लोग आत्मिक शिशु-अवस्था से निकलकर आत्मिक बालक-अवस्था में आकर क्यों अटक जाते हैं - परमेश्वर पिता और उनकी अपने बच्चों के लिए देखभाल पर उनके अधूरे विश्वास, और उसके अंतर्गत पिता परमेश्वर की बजाए अपने ऊपर तथा स्वयं के प्रयासों पर भरोसा रखने के कारण! 

जैसा हमने पिछले लेख में देखा है, इफिसियों 4:14 “ताकि हम आगे को बालक न रहें, जो मनुष्यों की ठग-विद्या और चतुराई से उन के भ्रम की युक्तियों की, और उपदेश की, हर एक बयार से उछाले, और इधर-उधर घुमाए जाते होंमें चार प्रकार की (प्रमुख की गई) बातें दी गई हैं जो मसीही विश्वासियों और कलीसिया के मध्य, नियुक्त सेवकों द्वारा, वचन की अप्रभावी सेवकाई के कारण आए आत्मिक कुपोषण से ग्रसित व्यक्तियों या कलीसिया में घर कर जाती हैं। इनमें से पहली बात है बालक के समान व्यवहार, विचार, और दृष्टिकोण रखना; अर्थात अपरिपक्व होना। शेष तीन बातें इन बालक समान, या अपरिपक्व लोगों में देखने को मिलती हैं। ये अपरिपक्व मसीही बालक, विभिन्न प्रकार के विचारों कीबयार से उछाले, और इधर-उधर घुमाए जातेहैं; अर्थात सूखे पत्तों या हल्की सी किसी ऐसी वस्तु के समान हो जाते हैं जो हल्की सी भी हवा चलने से एक से दूसरे स्थान पर उड़ा दिए जाएं। उनमें कोई आत्मिक स्थिरता एवं दृढ़ता, वचन की सही शिक्षाओं की समझ, मसीही विश्वास की आधारभूत बातों की जानकारी नहीं होती है। बेरिया के विश्वासियों (प्रेरितों 17:11) के विपरीत, यदि कोई भी प्रचारक आकर मसीह या परमेश्वर के नाम में कुछ भी उलटा-सीधा किन्तु आकर्षक और मनोहर रीति से कह देता है, उसे ये बालक समान अपरिपक्व लोग बिना जाँचे-परखे स्वीकार कर लेते हैं, गलत शिक्षाओं में तुरंत ही बहक और भटक जाते हैं, एक से दूसरे प्रचारक, मत, समुदाय, डिनॉमिनेशन आदि मेंउछाले, और इधर-उधर घुमाए जातेहैं। 

परमेश्वर के वचन बाइबल में दो स्थानों पर परमेश्वर पवित्र आत्मा ने इस आत्मिक बालक अवस्था के लक्षण बताए हैं, जिससे मसीही विश्वासी अपने जीवनों में झांक कर अपनी आत्मिक परिपक्वता की दशा को देख लें। बाइबल के ये स्थान, और वहाँ लिखे लक्षण हैं: 

1. हे भाइयों, मैं तुम से इस रीति से बातें न कर सका, जैसे आत्मिक लोगों से; परन्तु जैसे शारीरिक लोगों से, और उन से जो मसीह में बालक हैं। मैं ने तुम्हें दूध पिलाया, अन्न न खिलाया; क्योंकि तुम उसको न खा सकते थे; वरन अब तक भी नहीं खा सकते हो। क्योंकि अब तक शारीरिक हो, इसलिये, कि जब तुम में डाह और झगड़ा है, तो क्या तुम शारीरिक नहीं? और मनुष्य की रीति पर नहीं चलते? इसलिये कि जब एक कहता है, कि मैं पौलुस का हूं, और दूसरा कि मैं अपुल्लोस का हूं, तो क्या तुम मनुष्य नहीं? (1 कुरिन्थियों 3:1-4)

यहाँ पर दिए गए इस बालक अवस्था के, अपरिपक्वता के लक्षण हैं:

  • उनसे परिपक्व आत्मिक लोगों के समान आत्मिक बात-चीत नहीं की जा सकती है; वे उसे समझ नहीं पाते हैं, ग्रहण नहीं करने पाते हैं।
  • वे शारीरिक या सांसारिक लोगों के समान की गई बात-चीत को ही समझने और ग्रहण करने पाते हैं। 
  • वे बाइबल की ठोस शिक्षाओं, मसीही विश्वास और जीवन की उन्नत तथा गूढ़ बातों को समझ नहीं पाते हैं, न उनका पालन, और न ही उन्हें अपने जीवन में लागू करने पाते हैं। 
  • उनमें डाह और झगड़ा, अर्थात अहंकार, दूसरों के साथ तुलना करते रहना, अपने आप को ऊंचा और दूसरों को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति, क्षमा न करना, सहनशीलता, नम्रता और दीनता का व्यवहार न रखना, आदि बातें बनी रहती हैं।
  • वे बाइबल की सही शिक्षाओं पर परमेश्वर पवित्र आत्मा के चलाए नहीं चलते; वरन मनुष्यों, संस्थाओं, मानवीय मतों, समुदायों, और डिनॉमिनेशंस के नियमों के अनुसार, जहाँ से भी उन्हें लाभ मिले, उनके अनुसार चलते और जीवन जीते हैं।
  • उनमें मनुष्यों को महत्व देने, उन्हें अपना आदर्श बनाकर मनुष्यों के अनुसार चलने, और इस बात को लेकर औरों के साथ मतभेद और टकराव रखने की प्रवृत्ति देखने को मिलती है। 

2. “इस के विषय में हमें बहुत सी बातें कहनी हैं, जिन का समझना भी कठिन है; इसलिये कि तुम ऊंचा सुनने लगे हो। समय के विचार से तो तुम्हें गुरु हो जाना चाहिए था, तौभी क्या यह आवश्यक है, कि कोई तुम्हें परमेश्वर के वचनों की आदि शिक्षा फिर से सिखाए ओर ऐसे हो गए हो, कि तुम्हें अन्न के बदले अब तक दूध ही चाहिए। क्योंकि दूध पीने वाले बच्चे को तो धर्म के वचन की पहचान नहीं होती, क्योंकि वह बालक है। पर अन्न सयानों के लिये है, जिन के ज्ञानेन्‍द्रिय अभ्यास करते करते, भले बुरे में भेद करने के लिये पक्के हो गए हैं” (इब्रानियों 5:11-14)

यहाँ पर दिए गए इस बालक अवस्था के, अपरिपक्वता के लक्षण हैं:

  • उनमें वचन की बातों और शिक्षाओं को सुनने और सीखने में रुचि नहीं होती है; वे उन बातों कोऊँचा सुनतेहैं।
  • उनकी आत्मिक दशा, आत्मिक परिपक्वता, बाइबल की शिक्षाओं और बातों की समझ, आदि, उनके मसीही विश्वास में आने की अवधि के अनुपात में नहीं देखी जाती है।
  • उन्हें परमेश्वर के वचन की आदि शिक्षाओं, मसीही विश्वास की आधारभूत बातों का ही बोध नहीं रहता है। वे उन बातों को भूल गए हैं, उन्हें उन बातों को फिर से सिखाने की आवश्यकता होती है। 
  • वे केवल बिलकुल आरंभिक शिक्षाएं ही समझ और ग्रहण करने पाते हैं; ठोस या गूढ़ शिक्षाओं को समझ पाना या उनका पालन करना उनके लिए संभव नहीं होता है। 
  • उन्हेंधर्म के वचनकी पहचान नहीं होती है; एक प्रकार से यह इफिसियों 4:14 में लिखेहर एक बयार से उछाले, और इधर-उधर घुमाए जाते होंका दोहराया जाना है। वचन की सही पहचान न होने के कारण, वे जाँचे और समझे बिना ही हर प्रकार की शिक्षाओं को स्वीकार कर लेते हैं।
  • वे आत्मिक बातों में भले और बुरे में अंतर पहचानने में अक्षम होते हैं।

आत्मिक बालक-अवस्था के उपरोक्त लक्षण प्रकट करते हैं कि मसीही विश्वासियों में भी अधिकांश लोग अभी इस बालक-अवस्था से ऊपर नहीं बढ़ने पाए हैं। इसका कारण इब्रानियों 5:14 के मध्य भाग में दिया गया है: “... जिन के ज्ञानेन्‍द्रिय अभ्यास करते करते...”; ये लोग अपरिपक्व या बालक इसलिए हैं क्योंकि ये मसीही जीवन और उसमें बढ़ोतरी से संबंधित विभिन्न परिस्थितियों से होकर नहीं निकलते हैं। ये प्रभु के लिए उपयोगी होने, उसके लिए कुछ करने में रुचि नहीं रखते हैं; बस शिथिल और निष्क्रिय होकर प्रभु और उसकी आशीषों को अपने लिए प्रयोग करते रहते हैं। यदि ये उन आरंभिक मसीही विश्वासियों के समान प्रेरितों 2:42 की चारों बातों में लौलीन रहते, तो उन्हीं आरंभिक विश्वासियों के समान प्रभु के लिए उपयोगी भी होते, और मसीही जीवन के विभिन्न अनुभवों में से होकर निकलते हुए आत्मिक परिपक्वता में भी बढ़ते चले जाते। 

इस आत्मिक अपरिपक्वता के कारण ये लोग जिन बातों में शैतान द्वारा फँसा लिए जाते हैं, उन्हें हम अगले लेख में देखेंगे। किन्तु यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो उपरोक्त 1 कुरिन्थियों 3:1-4 और इब्रानियों 5:11-14 के आधार पर अपनी आत्मिक परिपक्वता की स्थिति को पहचान लीजिए, और उसके अनुसार जो भी आवश्यक निर्णय हों, उन्हें लेकर अपने जीवन में कार्यान्वित कर लीजिए। आप जितना प्रभु के वचन और शिक्षाओं में बढ़ेंगे, जितना वचन और प्रभु के आज्ञाकारी रहेंगे, आप उतने अधिक परिपक्व और प्रभु के लिए उपयोगी और अपने लिए आशीषित होते चले जाएंगे।   

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • लैव्यव्यवस्था 13        
  • मत्ती 26:26-50