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शुक्रवार, 16 सितंबर 2022

मसीही सेवकाई और पवित्र आत्मा के वरदान / Gifts of The Holy Spirit in Christian Ministry – 27


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वरदानों का प्रयोग - रोमियों 12:4-5 - मण्डली के एक अभिन्न एवं उपयोगी अंग के समान

 

रोमियों 12 अध्याय हमें अपनी मसीही सेवकाई और उसके अनुसार हमें प्रदान किए गए आत्मिक वरदानों के प्रयोग की तैयारी के बारे में सिखाता है। इस अध्याय के पहले तीन पदों से हम देख चुके हैं कि इन दायित्वों के खराई से निर्वाह के लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी में कुछ बातों का होना अनिवार्य है, तब ही वह परमेश्वर द्वारा उसे दी गई सेवकाई का भली-भांति निर्वाह करने पाएगा। पहले तीन पदों की ये अनिवार्य बातें हैं वेदी पर चढ़ाए गए बलिदान के समान परमेश्वर को एक पूर्णतः समर्पित जीवन, जो मनुष्यों तथा मनुष्यों के द्वारा गढ़े गए रीति-रिवाजों, प्रथाओं, परंपराओं एवं नियमों के पालन के लिए नहीं, वरन परमेश्वर और उसके वचन के आदर और आज्ञाकारिता में जिया जाता है। ऐसे समर्पित और आज्ञाकारी जीवन की एक अन्य पहचान है कि पापों की क्षमा और उद्धार पाने के द्वारा उस व्यक्ति के अन्दर आया हुआ परिवर्तन उसके बदले हुए व्यवहार, चाल-चलन, जीवन के उद्देश्यों, और उस व्यक्ति की प्रभु और उसके वचन के प्रति प्राथमिकताओं, आदि में दिखता है, और उसके जीवन में हुए उद्धार के कार्य को प्रमाणित भी करता है। सच्चा मसीही विश्वासी और सेवक अपने इन गुणों के द्वारा पहचाना जाता है। इसलिए जो मसीही सेवकाई में संलग्न हैं, या होना चाहते हैं, उन्हें अपने आप को इन गुणों के लिए जाँचना चाहिए, अपना स्व-आँकलन करना चाहिए, और जहाँ जो सुधार आवश्यक हैं उन बातों को परमेश्वर के समक्ष रख कर, परमेश्वर द्वारा बताए गए आवश्यक सुधारों को अपने जीवन में लागू भी करना चाहिए।

 

रोमियों के इस अध्याय में मसीही जीवन और सेवकाई से संबंधित अगली शिक्षा हम 4 और 5 पद में पाते हैं। ये पद वास्तविक, सच्चे, मसीही विश्वासियों को उनके उद्धार और पाप-क्षमा के साथ जुड़े एक आधारभूत तथ्य को स्मरण करवाता है। प्रभु यीशु पर विश्वास लाने, उसे पूर्णतः समर्पित होकर उसे अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करने के द्वारा नया जन्म या उद्धार पाए हुए लोगों के विषय यूहन्ना 1:12-13 में लिखा है “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं।” अर्थात, वास्तविकता में उद्धार पाए हुए सभी मसीही विश्वासी, एक ही परिवार - परमेश्वर के परिवार, के सदस्य हैं। मसीही मण्डलियों में बहुत से ऐसे भी घुस आते हैं जो व्यवहार तो उद्धार पाने वालों के समान करते हैं, किन्तु वास्तव में उद्धार पाए हुए नहीं हैं, जैसे प्रेरितों 8:9-24 में शमौन टोन्हा करने वाले के विषय लिखा है (साथ ही प्रेरितों 20:29-30; 1 यूहन्ना 2:18-19 भी देखिए)। शैतान द्वारा मण्डलियों में लाए गए ऐसे लोग मसीही विश्वासियों और मसीही सेवकाई की बहुत हानि का, तथा समाज में प्रभु यीशु मसीह में पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार के प्रचार और प्रसार के गलत समझे जाने और विरोध होने का कारण ठहरते हैं। इसीलिए हमें उपरोक्त गुणों के अनुसार, तथा 1 यूहन्ना 2:3-6; 4:1-6, आदि के अनुसार लोगों को देख-परख कर, उनकी वास्तविकता को पहचान कर ही उन्हें मसीही मण्डलियों में आदर या स्थान देना चाहिए। विशेषकर वचन की सेवकाई और मण्डली के संचालन आदि की ज़िम्मेदारियाँ देने से पहले लोगों को बारीकी से जाँच-परख लेना चाहिए, अन्यथा उनके द्वारा बोए गए कड़वे बीज और गलत शिक्षाएं आगे चलकर बहुत हानि का कारण ठहरेंगे।

  

जो प्रभु परमेश्वर के परिवार का सदस्य है, वह अपने परिवार के लोगों के साथ मेल-मिलाप रखेगा, उनकी भलाई की सोचेगा (गलातियों 6:10; 1 तिमुथियुस 5:8), उनके हित में होकर कार्य करेगा; तथा परमेश्वर के वचन के निर्देश के अनुसार (1 कुरिन्थियों 12:7), अपने आत्मिक वरदानों को अपनी नहीं वरन सभी की भलाई के लिए प्रयोग करेगा। वह इस एहसास के साथ जीता और कार्य करता है कि परमेश्वर के परिवार में, प्रभु की मण्डली - उसकी देह (इफिसियों 5:25-30) में वह एक आवश्यक, उपयोगी, और अभिन्न अंग है। इसलिए किसी भी मसीही विश्वासी का कैसा भी अनुचित जीवन, व्यवहार, और कार्य, परमेश्वर के पूरे परिवार, प्रभु की पूरी मण्डली पर दुष्प्रभाव लाता है, उनके लिए दुख का कारण होता है और उनकी सेवकाई के कार्यों को सुचारु रीति से करने में बाधा बनता है।


रोमियों 12:4 यह बिल्कुल स्पष्ट बता रहा है कि जैसे देह के सभी अंगों का एक ही या समान ही कार्य नहीं होता है, वैसे ही प्रत्येक मसीही विश्वासी की भी मण्डली में अपनी-अपनी, औरों से भिन्न सेवकाई है, भिन्न दायित्व हैं, जो उनके लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित किए गए हैं। इसलिए सभी को अपनी-अपनी सेवकाई, अपने-अपने दायित्वों का सही रीति से निर्वाह करना है। किसी दूसरे की सेवकाई या दायित्वों को लेकर ईर्ष्या नहीं करनी है, उसकी सेवकाई को अपने लिए लेने और करने के प्रयास नहीं करने हैं, और न ही अपनी सेवकाई के कारण अपने आप को उच्च या महान समझने, घमण्ड करने की प्रवृत्ति रखनी है; क्योंकि जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, परमेश्वर की दृष्टि में सभी सेवकाई और आत्मिक वरदान बराबर स्तर के हैं, बड़े या छोटे नहीं। देह के सभी अंग अपने-अपने स्थान और कार्य के लिए महत्वपूर्ण हैं; कोई भी अंग अथवा उसका कार्य देह के लिए कम या अधिक महत्वपूर्ण नहीं है, सभी का समान महत्व और उपयोग है। जैसे किसी एक अंग के न होने के कारण, या सुचारु रीति से कार्य न करने के कारण सारी देह अपनी रचना में अपूर्ण हो जाती है, या कार्य में अधूरी अथवा कम कार्य-कुशल हो जाती है, वैसे ही किसी भी मसीही विश्वासी के द्वारा मण्डली में ठीक से कार्य न करने अथवा मण्डली की परिस्थितियों के कारण चाहते हुए भी ठीक से नहीं कर पाने के द्वारा मण्डली के साथ भी होता है। इसीलिए रोमियों 12:5 मसीही विश्वासियों को न केवल प्रभु की देह का अंग, वरन एक-दूसरे का अंग भी बताता है, जो मण्डली के लिए भी तथा एक-दूसरे के लिए भी सहायक और उपयोगी हों।

 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं तो अपनी सेवकाई को ठीक से, प्रभु की इच्छानुसार, तथा अपने आत्मिक वरदानों का उपयुक्त उपयोग मण्डली की भलाई और उन्नति के लिए कर पाने के लिए, आपके लिए यह आवश्यक है कि अपने आप को, औरों के समान ही, परमेश्वर के परिवार का तथा प्रभु की देह, उसकी मण्डली का एक अभिन्न एवं उपयोगी अंग समझ कर कार्य करें। न अपने आप को किसी से गौण या छोटा अथवा कम उपयोगी समझें, और न ही किसी प्रकार से विशिष्ट और उच्च होने की भावना अपने में उत्पन्न होने दें। अन्यथा शैतान आपको हीन भावना अथवा घमण्ड से ग्रसित करके, अपने या मण्डली के, या मण्डली के किसी सदस्य के विरुद्ध किसी-न-किसी पाप में उलझा और फंसा देगा, प्रभु के लिए आपके कार्य और उपयोगिता की हानि करवा देगा। प्रभु परमेश्वर ने जो सेवकाई और वरदान आपको दिया है, उसे ही प्रभु की महिमा, सुसमाचार के प्रचार और प्रसार, तथा मण्डली के उन्नति कि लिए योग्य रीति से प्रयोग करें। तब आप भी उन्हीं तथा वैसे ही आशीषों के पात्र होंगे जैसे कोई अन्य प्रभु द्वारा उसे दी गई सेवकाई को सुचारु रीति से करने के द्वारा होगा।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • नीतिवचन 25-26 

  • 2 कुरिन्थियों 9


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Utilizing Spiritual Gifts - Romans 12:4-5 - As an Integral Part of the Church


Romans chapter 12 teaches us about our Christian Ministry and preparation for using our Spiritual gifts. We have seen from the first three verses of this chapter that for a worthy fulfilment of our ministry responsibilities, it is essential that every Christian Believer should have certain characteristics; only then will he be able to carry out his ministry properly and in a worthy manner. These essential characteristics from the first three verses are, a fully surrendered life to God just as an offering sacrificed on the altar of God. Such a life is not meant to be lived according to contrived, man-made customs, rites and rituals, traditions, rules and regulations, but in obedience to God and His Word. A life so committed, surrendered and obedient to God has another characteristic - the person who has received the forgiveness of sins and salvation, has had an inner change, manifests it through his changed life, behavior, purpose, and according the first priority to the Lord and His Word; this also affirms the work of salvation in his life. A true and committed Christian Believer and minister is recognized by these characteristics. Therefore, anyone engaged, or desiring to be in Christian Ministry, should examine themselves for the presence of these characteristics, and placing their life before God, should carry out whatever corrections and modifications are necessary in their lives, as shown by God to them.


In this chapter from Romans, we see the next teaching related to Christian Life and Ministry, in verses 4 and 5. These verses remind a true and committed Christian Believer of a basic fact related to their receiving forgiveness of sins and salvation. The Apostle John has written about those who have come to faith in the Lord Jesus, have fully surrendered their lives to Him, and accepted Him as their Savior and Lord, have also become the children of God, “But as many as received Him, to them He gave the right to become children of God, to those who believe in His name: who were born, not of blood, nor of the will of the flesh, nor of the will of man, but of God” (John 1:12-13). In other words, all truly Born-Again Christian Believers, are members of one single family - the family of God. Many people sneak into the Christian Assemblies and Churches and behave like those who have been saved, but actually they are not saved, as was Simon the sorcerer mentioned in Acts 8:29-24 (also see Acts 20:29-30; 1 John 2:18-19). Such people, brought into the assemblies and Churches by Satan, not only cause a great deal of harm in them, but also are a potent cause of people misunderstanding the gospel of forgiveness of sins and salvation through faith in the Lord Jesus, and of its opposition by the people of the world. Therefore, according to 1 John 2:3-6; 4:1-6 etc., we should carefully examine and evaluate people coming into the Church or Assembly, and only then give them a place of honor or responsibility. This is very important especially for giving the responsibility of ministering God’s Word or the responsibility of managing the affairs of the local Church to anyone. Otherwise, the harmful seeds of improper attitudes and behavior, wrong teachings, and false doctrines that they sow will be a cause of severe harm in the days to come.


He who truly is a member of God’s family, will stay in fellowship and unity with the other members of his spiritual family, will think about their good (Galatians 6:10; 1 Timothy 5:8), and will do things for their benefit; he, in accordance with the instructions of God’s Word (1 Corinthians 12:7), will use his Spiritual gifts and ministry not for himself but for the benefit and edification of others. Such a person lives and works with the realization that in the family of God, in the Church of the Lord i.e., the body of Christ (Ephesians 5:25-30), he is a necessary, useful, and integral part. Therefore, any unworthy living, behavior, and work of any Christian Believer, brings a harmful effect on the whole family of God, the Church, and becomes a cause for pain and problem for everybody else, and adversely affects the proper work and ministry of the others.


Romans 12:4 is very clearly saying that just as in a body every part and organ has its own place and work, similarly in the Christian Assembly or Church, every member has his own role and ministry, which is different from the work, ministry and role of others, that have been assigned to them by God. Therefore, everyone should carry out his assigned role and ministry properly and worthily. No one should covet another’s ministry or feel envious or jealous of another’s ministry. Neither should anyone feel proud or superior because of the ministry given by God to him; since as we have seen earlier, all Spiritual gifts and ministries are of same importance in God’s eyes. All parts of the body are important and essential in the place they are placed, and the work they have to do; no part of the body or its function is of any lesser importance for the body, all are equally necessary and important. Just as due to the absence, non-functioning, or improper functioning of any one part, the functioning of the whole body is adversely affected, similarly due to the non-functioning or improperly functioning of any Christian Believer, adversely affects the work of the local Church or Assembly. For this reason, Romans 12:5 not only calls the Christian Believers as members of the body of the Lord, but also members of each other, who are required not only for the functioning of the Church, but also of each other, since a wrong atmosphere in any Church will hamper the proper functioning and attitude of its members, therefore the members should be helpers and of service for each other.


If you are a Christian Believer, then for you to carry out your ministry properly and worthily, according to the will of God, and to be able to use your ministry and gifts for the benefit and edification of the Church, it is necessary for you to consider yourself a similar member of God’s family, a necessary and integral part of the Assembly or the Church, just as the others are. You should neither consider yourself, your ministry, and your Spiritual gift as small or of lesser importance than any other’s; nor should you think of yourself, your ministry, and your Spiritual gift as superior and of more importance than any other. If you allow any of these feelings to settle in you, then Satan will soon make you fall in either a feeling of inferiority or in pride of superiority, entrap you in some sin or the other, obstruct your work and ministry for the Lord. Use whatever ministry and Spiritual gift God has given to you for the glory of God, the propagation of the gospel, and edification of the Church. Then you too will be blessed and benefitted, as will the others be through your ministry and gifts.


If you are still thinking of yourself as being a Christian, a child of God, entitled to a place in heaven, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start learning, understanding, and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.

 


Through the Bible in a Year: 

  • Proverbs 25-26 

  • 2 Corinthians 9