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मसीही विश्वासी - प्रभु के लिए सब कुछ छोड़ने के लिए तैयार
सुसमाचारों में दिए गए प्रभु यीशु मसीह के शिष्य के गुणों में से यह पाँचवाँ गुण, पहले कहे गए दूसरे गुण के समान, शिष्य, अर्थात मसीही विश्वासी में एक अलगाव की माँग करता है। प्रभु यीशु ने कहा, “इसी रीति से तुम में से जो कोई अपना सब कुछ त्याग न दे, तो वह मेरा चेला नहीं हो सकता” (लूका 14:33)। मसीही विश्वासी का दूसरा गुण पारिवारिक संबंधों में अलगाव की माँग करता है, और यह पाँचवाँ गुण, प्रभु यीशु के पक्ष में शिष्य द्वारा भौतिक, या सांसारिक और नश्वर वस्तुओं से अलगाव से की माँग करता है। इसी गुण के एक दूसरा स्वरूप पर नए नियम में काफी ज़ोर दिया गया है, पत्रियों में उसे बहुधा दोहराया गया है - अपने आप को संसार में परदेशी और यात्री जानकर संसार की बातों के मोह में पड़ने से बचे रहना (इब्रानियों 11:13; 1 पतरस 2:11)। यूहन्ना और याकूब ने तो पवित्र आत्मा की अगुवाई में यहाँ तक लिखा है कि भौतिक या सांसारिक बातों से प्रेम रखना, स्वतः और अनिवार्यतः व्यक्ति में परमेश्वर के प्रति प्रेम न होने का सूचक है, उसको परमेश्वर का बैरी बना देता है; उनके द्वारा लिखे पदों को देखें:
- “तुम न तो संसार से और न संसार में की वस्तुओं से प्रेम रखो: यदि कोई संसार से प्रेम रखता है, तो उस में पिता का प्रेम नहीं है। क्योंकि जो कुछ संसार में है, अर्थात शरीर की अभिलाषा, और आंखों की अभिलाषा और जीविका का घमण्ड, वह पिता की ओर से नहीं, परन्तु संसार ही की ओर से है। और संसार और उस की अभिलाषाएं दोनों मिटते जाते हैं, पर जो परमेश्वर की इच्छा पर चलता है, वह सर्वदा बना रहेगा” (1 यूहन्ना 2:15-17)।
- “हे व्यभिचारिणयों, क्या तुम नहीं जानतीं, कि संसार से मित्रता करनी परमेश्वर से बैर करना है सो जो कोई संसार का मित्र होना चाहता है, वह अपने आप को परमेश्वर का बैरी बनाता है” (याकूब 4:4)।
जब प्रभु ने अपने आरंभिक शिष्यों को बुलाया, तो वे अपने व्यवसाय, अपने परिवार आदि को छोड़ कर प्रभु के पीछे हो लिए: “वे तुरन्त नाव और अपने पिता को छोड़कर उसके पीछे हो लिए” (मत्ती 4:22); “और व नावों को किनारे पर ले आए और सब कुछ छोड़कर उसके पीछे हो लिए” (लूका 5:11); “वहां से आगे बढ़कर यीशु ने मत्ती नाम एक मनुष्य को महसूल की चौकी पर बैठे देखा, और उस से कहा, मेरे पीछे हो ले। वह उठ कर उसके पीछे हो लिया” (मत्ती 9:9)। जब एक व्यक्ति ने प्रभु से उसका शिष्य बनने की इच्छा व्यक्त की, “जब वे मार्ग में चले जाते थे, तो किसी न उस से कहा, जहां जहां तू जाएगा, मैं तेरे पीछे हो लूंगा। यीशु ने उस से कहा, लोमडिय़ों के भट और आकाश के पक्षियों के बसेरे होते हैं, पर मनुष्य के पुत्र को सिर धरने की भी जगह नहीं” (लूका 9:57-58) - अर्थात प्रभु के पीछे चलने के लिए इस अनिश्चितता को स्वीकार करके चलना होगा कि यह आवश्यक नहीं है कि इस सेवकाई में रहने के लिए स्थान और खाने के लिए भोजन मिलेगा। जब, जो, जैसा मिल जाए, उसे ही स्वीकार करके प्रभु द्वारा दिए गए कार्य में लगे ही रहना है। पौलुस ने तिमुथियुस को लिखा, “पर तू सब बातों में सावधान रह, दुख उठा, सुसमाचार प्रचार का काम कर और अपनी सेवा को पूरा कर” (2 तीमुथियुस 4:5)। लेकिन जो यह सब जानते हुए, इन बातों को स्वीकार करते हुए, प्रभु के पीछे चल निकले थे, अपने उन शिष्यों को प्रभु यीशु ने प्रतिज्ञा दी, “यीशु ने कहा, मैं तुम से सच कहता हूं, कि ऐसा कोई नहीं, जिसने मेरे और सुसमाचार के लिये घर या भाइयों या बहिनों या माता या पिता या लड़के-बालों या खेतों को छोड़ दिया हो। और अब इस समय सौ गुणा न पाए, घरों और भाइयों और बहिनों और माताओं और लड़के-बालों और खेतों को पर उपद्रव के साथ और परलोक में अनन्त जीवन” (मरकुस 10:29-30)।
प्रभु यीशु द्वारा दिए गए बीज बोने वाले के दृष्टांत को स्मरण करें (मत्ती 13:3-9)। यहाँ पर तीसरी प्रकार की भूमि, झाड़ियों के स्थान, पर गिरने और उगने वाला बीज वह है जो उगा और बढ़ा, किन्तु संसार की बातों और धन के धोखे ने उसे दबा कर निष्फल कर दिया “जो झाड़ियों में बोया गया, यह वह है, जो वचन को सुनता है, पर इस संसार की चिन्ता और धन का धोखा वचन को दबाता है, और वह फल नहीं लाता” (मत्ती 13:22)। जो धनी जवान व्यक्ति (मत्ती 19:16-24) प्रभु के पास अनन्त जीवन का मार्ग प्राप्त करने के लिए आया था, वह निराश और असफल इसलिए लौट गया, क्योंकि वह अपने धन और सांसारिक वस्तुओं से अपने आप को अलग नहीं करने पाया था; वह प्रभु की शिष्यता की यह कीमत नहीं चुकाना चाहता था, और जीवन के जल के सोते के पास आकर भी प्यासा और बिना अनन्त जीवन पाए चला गया।
यदि आप प्रभु यीशु मसीह के शिष्य हैं, तो क्या आपने अपने आप को भौतिक, नश्वर सांसारिक बातों के मोह से पृथक किया है? इसका यह अभिप्राय नहीं है कि प्रभु के शिष्य को सन्यासी बनकर विरक्ति का जीवन जीना चाहिए। अभिप्राय यह है कि प्रभु का शिष्य अपने जीवन में प्राथमिक स्थान प्रभु और उसके वचन की आज्ञाकारिता को देता है, न कि सांसारिक उपलब्धियों और महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में लगे रहने को। प्रभु यीशु की शिष्यता की इस कसौटी पर आज अपने आप को कहाँ खड़ा हुआ पाते हैं? क्या अपने आप को प्रभु यीशु का शिष्य कहना आप के लिए एक औपचारिकता निभाना है, या आप सच्चे मन से उसके समर्पित और आज्ञाकारी शिष्य हैं?
और यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 18-19
प्रेरितों 20:17-38
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Christian Believer – Forsakes All for The Lord
The fifth characteristic of a disciple of the Lord Jesus, given in the Gospels is similar to the second characteristic that we have seen earlier, and demands a separation of the Christian Believer. This fifth characteristic is that the Believer is willing and ready to forsake all for the Lord; the Lord Jesus has said to His disciples, “So likewise, whoever of you does not forsake all that he has cannot be My disciple” (Luke 14:33). The second characteristic asks for a separation in familial relationships, this fifth characteristic demands a separation from the temporal and worldly, i.e., the perishable things. A lot of emphasis has been placed in the New Testament on a different form of this characteristic, which has often been repeated in the letters - a Christian Believer is to consider himself as a pilgrim and sojourner in this world and avoid getting entangled in the attachment to worldly things (Hebrews 11:13; 1 Peter 2:11). In this context, John and James have gone to the extent of writing that loving the things of this world, by itself is a sure indicator of not loving the Lord God; and this love for the worldly things makes one an enemy of God. Consider what they have written:
“Do not love the world or the things in the world. If anyone loves the world, the love of the Father is not in him. For all that is in the world--the lust of the flesh, the lust of the eyes, and the pride of life--is not of the Father but is of the world. And the world is passing away, and the lust of it; but he who does the will of God abides forever” (1 John 2:15-17).
“Adulterers and adulteresses! Do you not know that friendship with the world is enmity with God? Whoever therefore wants to be a friend of the world makes himself an enemy of God” (James 4:4).
When the Lord called His initial disciples, they immediately left their work, business, families to follow the Lord: “and immediately they left the boat and their father, and followed Him” (Matthew 4:22); “As Jesus passed on from there, He saw a man named Matthew sitting at the tax office. And He said to him, "Follow Me." So, he arose and followed Him” (Matthew 9:9). Consider the response of the Lord when a person expressed the desire to Him to be His follower, “Now it happened as they journeyed on the road, that someone said to Him, "Lord, I will follow You wherever You go." And Jesus said to him, "Foxes have holes and birds of the air have nests, but the Son of Man has nowhere to lay His head."” (Luke 9:57-58) - in other words, to decide to be a follower of the Lord is to accept the uncertainty that in this ministry there will always be a doubt for availability of a place to stay and food to eat; the follower of Christ should be willing and ready to accept whatever he may get and whenever he may get it, but continue in the ministry nevertheless. Paul wrote to Timothy, “But you be watchful in all things, endure afflictions, do the work of an evangelist, fulfill your ministry” (2 Timothy 4:5). To those disciples, who knowing all these things, still decide to accept becoming a follower of the Lord, the Lord also promised that, “So Jesus answered and said, "Assuredly, I say to you, there is no one who has left house or brothers or sisters or father or mother or wife or children or lands, for My sake and the gospel's, who shall not receive a hundredfold now in this time--houses and brothers and sisters and mothers and children and lands, with persecutions--and in the age to come, eternal life” (Mark 10:29-30).
Recall the parable given by the Lord Jesus about the Sower of the Seed (Matthew 13:3-9). In this parable, the seed falling in the third kind of soil, the soil with the thorns, is the seed that fell and germinated and started to grow; but the things of the world and the deceitfulness of wealth suppressed it and rendered it fruitless, “Now he who received seed among the thorns is he who hears the word, and the cares of this world and the deceitfulness of riches choke the word, and he becomes unfruitful” (Matthew 13:22). The Rich Young Ruler who came to the Lord, seeking the way to eternal life (Matthew 19:16-24), returned disappointed and unsuccessful, since he was unable to separate himself from his wealth and the things of the world; he did not want to pay the price of becoming a follower of Christ Jesus, therefore, having come to the source of the water of life he returned back dejected and as thirsty as he had come, without having received eternal life.
If you are a disciple of the Lord, then have you separated yourself from the temporal and perishing world and its things? This does not mean that the disciple of the Lord Jesus has to totally detach himself from the world and live the life of a hermit or an ascetic. The implication is that the disciple has to give the primary place to the Lord Jesus and to the obedience of His Word; instead of pursuing worldly achievements and desires. Where do you find yourself on the basis of an evaluation based on this fifth characteristic in your life? Is calling yourself a disciple of the Lord merely fulfilling formalities, following of rituals and traditions, and celebrating feasts and festivals for you, or are you actually a committed and obedient disciple of the Lord?
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 18-19
Acts 20:17-38