क्या यूहन्ना 15:1-6 की काट डाली गई डाली विश्वासी के “काट डाले” जाने और नाश हो जाने को दिखाती है? - भाग 3
पिछले दो लेखों से हम यूहन्ना 15:1-6, विशेषकर 15:2, को देखते आ रहे हैं, यह जानने के लिए कि क्या यह इस बात का प्रमाण है कि उद्धार खोया जा सकता है और पाप करने वाला मसीही विश्वासी विनाश के लिए “काट डाला” जा सकता है कि नहीं, जैसा कि कुछ लोग इस पद 2 के आधार पर धारणा देते हैं। पहले लेख में हमने बाइबल के अध्ययन और व्याख्या के कुछ मूलभूत सिद्धान्तों को देखा था, जिनके आधार पर हम गलत व्याख्या से बच सकते हैं और गलत व्याख्याओं को पहचान भी सकते हैं। दूसरे लेख में हमने पद या खण्ड को उसके सन्दर्भ के साथ देखने और उसी के साथ व्याख्या करने के सिद्धान्त को इस खण्ड, यूहन्ना 15:1-6 पर लागू कर के उसे समझा था। सन्दर्भ के साथ देखने से यह प्रकट हो गया था कि यहाँ पर पद 2 का तात्पर्य यह नहीं हो सकता है कि उद्धार खोया जा सकता है और विश्वासी को विनाश के लिए काट डाला जा सकता है। इस खण्ड पर आज के इस तीसरे लेख में हम बाइबल अध्ययन और व्याख्या के एक और सिद्धांत को लागू कर के देखेंगे; यह सिद्धांत है कि बाइबल कभी भी अपने आप को काट नहीं सकती है, बाइबल में कोई विरोधाभास नहीं है, और न हो सकता है। जब हम यूहन्ना 15:2 को बाइबल के अन्य पदों और खण्डों के साथ देखते हैं तो प्रकट हो जाता है कि यदि यूहन्ना 15:2 के आधार पर यह कहा जाए कि उद्धार जा सकता है, विश्वासी का नाश हो सकता है, तो फिर यह बाइबल में विरोधाभास ले आता है, इसलिए यह इस खण्ड और पद की अस्वीकार्य व्याख्या है।
3. बाइबल की कुछ अन्य शिक्षाएँ, कि उद्धार कभी खोया नहीं जा सकता है:
रोमियों 8:1 कहता है कि जो मसीह में हैं “उन पर दण्ड की आज्ञा नहीं है।” यूहन्ना 15:2 उन जो “डालियों”, अर्थात प्रभु के शिष्यों के बारे में है जो प्रभु में हैं। यदि यूहन्ना 15:2 यह सिखाता है कि उद्धार जा सकता है, तो वह सीधे-सीधे रोमियों 8:1 के साथ विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न करता है। किन्तु क्योंकि बाइबल अपने आप को काट नहीं सकती है, स्वयं के साथ विरोधाभास उत्पन्न नहीं कर सकती है, इसलिए यह कहना कि यूहन्ना 15:2 सिखाता है कि उद्धार जा सकता है बाइबल के अनुसार असत्य और अस्वीकार्य है।
यूहन्ना 10:28, 29 कहते हैं कि परमेश्वर के, प्रभु यीशु के, हाथों से उसकी भेड़ों, उसके लोगों को कोई भी नहीं छीन सकता है। परमेश्वर के गुणों में से एक है कि केवल वही एकमात्र सर्वशक्तिमान है, अर्थात, कोई भी परमेश्वर से किसी भी रीति से, शारीरिक, आत्मिक, या बुद्धिमानी में, बढ़कर नहीं है। मरकुस 3:27 के आधार पर हम कह सकते हैं कि परमेश्वर के हाथों से किसी विश्वासी को विनाश के लिए छीन सकने का अर्थ है परमेश्वर से अधिक शक्तिशाली होना, परमेश्वर पर हावी होने की सामर्थ्य रखना – जो असंभव है। यदि शैतान परमेश्वर की संतान को, किसी भी रीति से, उसके हाथों से छीन सकता है और परमेश्वर इसके लिए कुछ भी कर पाने में असमर्थ रहता है, तो इसका अर्थ है कि शैतान परमेश्वर से अधिक शक्तिशाली है – जो एक और असम्भवता है। इसलिए यूहन्ना 15:2 का यह तात्पर्य संभव नहीं है कि विश्वासी उद्धार खो सकता है, नाश हो सकता है।
1 कुरिन्थियों 3:11-15 सिखाता है कि मसीही विश्वासी अपने प्रतिफलों की हानि उठा सकता है, किन्तु अपने उद्धार की हानि कभी नहीं उठा सकता है। दूसरे शब्दों में, एक बार उद्धार मिला तो वह अनन्त काल के लिए है।
हम लूका 15:13, 30 से देखते हैं कि उड़ाऊ पुत्र ने बहुत बुरा जीवन जिया था। लेकिन इसी दृष्टांत से हम यह भी देखते हैं कि जब वह पश्चाताप के साथ अपने पिता के पास लौट कर आया, तो सब कुछ क्षमा कर दिया गया, भुला दिया गया। यद्यपि उसने उस संपत्ति की, जिसे लेकर वह निकला था, हानि उठाई, उसे लज्जा, भूख, और अपमान को झेलना पड़ा, लेकिन उसके घर में उसके पुत्र होने का स्तर उससे कभी नहीं लिया गया। जैसे ही वह पश्चाताप के साथ घर लौट कर आया, उसे उसके उसी स्तर पर बहाल कर दिया गया, जो पहले से उसका था।
लूका 13:6-9 का अंजीर के वृक्ष दृष्टांत, जिसमें बारी का स्वामी तीन वर्ष तक फल ढूँढ़ता हुआ आया किन्तु न पाया; और इसलिए उसने कहा कि वृक्ष को काट डाला जाए। किन्तु बारी के रखवाले ने विनती कर के एक वर्ष और माँग लिया ताकि उसे फलदायी करने के लिए फिर से प्रयास करे। यह दृष्टांत परमेश्वर के विलम्ब से कोप करने और धैर्य रखने को दिखाता है। परमेश्वर, तुरंत नष्ट कर देने का दण्ड देने की बजाए अपने लोगों को लौटा कर अपने पास ले आने के लिए समय, उचित वातावरण, और अवसर प्रदान करता है (2 पतरस 3:15)।
यहाँ पर अंजीर के वृक्ष को श्राप दिए जाने की घटना (मरकुस 11:13-14, 20-21) को उपयोग नहीं किया जा सकता है क्योंकि उसका सन्दर्भ भिन्न है। इस घटना में वह वृक्ष एक ढोंग कर रहा था – वह अंजीर के फल का समय नहीं था, किन्तु उस वृक्ष ने पत्ते निकाले थे जो साथ ही फल भी होने का सूचक थे, किन्तु फल उसमें था ही नहीं। उस वृक्ष को उसके इस ढोंग इस पाखण्ड के लिए श्राप दिया गया, न कि उसमें फल न होने के कारण।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
- क्रमशः
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Does the Branch Cast Away in John 15:1-6 show that a Believer can be “Cut-Off” and be Destroyed? - Part 3
In the past two articles we have been considering John 15:1-6, particularly 15:2, to see whether it is a proof that salvation can be lost and the errant Believer can be cast away or destroyed or not, as some people allege on the basis of this verse 2. In the first article we had seen some basic principles of Bible study and interpretation, that help us in avoiding as well as identifying wrong interpretations and meanings. In the second article, we had applied the principle of studying the verse or passage in its context to this passage, i.e., John 15:1-6. By studying it in its context it had become apparent that this passage and its verse 2 cannot mean that salvation can be lost and a Believer can be cast away into destruction. Today, in this third article on this passage, we will apply another principle of Bible study and interpretation to this passage and verse 2, - that the Bible does not contradict itself, and see how interpreting John 15:2 to mean salvation can be lost, brings a contradiction with other Bible passages and verses, and therefore becomes an unacceptable interpretation of the passage and verse.
3. Some Other Related Bible Teachings, that Salvation cannot be lost:
Romans 8:1 says that there is no condemnation for those who are “in the Lord”. John 15:2, is about those “branches”, i.e., the disciples, who are “in the Lord”. If John 15:2 teaches salvation can be lost, then it directly contradicts Romans 8:1. But since the Bible never contradicts itself, therefore, the interpretation that John 15:2 teaches salvation can be lost is Biblically untrue and unacceptable.
John 10:28, 29 says that no one can take God’s people, His sheep, out of God’s and Jesus’s hands. A characteristic of God is that God alone is omnipotent, i.e., no one is stronger than God in any manner – neither physically, nor intellectually, nor spiritually. From Mark 3:27, we can see that to take a Believer away out of God's hands, for destruction means being stronger than God and able to over-power God – an impossibility. If Satan can take away a child of God out of His hands, then it implies that Satan is more powerful than God, physically, spiritually, and intellectually, and God is unable to do anything about it – another impossibility. Hence John 15:2 cannot imply that Satan can take away a Believer into destruction.
1 Corinthians 3:11-15 tells us that a Believer can suffer loss of his rewards, but never of his salvation. In other words, once saved is saved forever.
We see from Luke 15:13, 30 that the Prodigal Son lived a very wayward life. But we also see from this parable that once he repented and returned to his father, everything was forgiven and forgotten. Though he lost the possessions that he had left with from home, he suffered shame, hunger, and insult, but he never lost his status of being a son in his home. He was restored to the same status as he had earlier, as soon as he repented and returned home.
Parable of the Fig tree (Luke 13:6-9) – The owner came seeking fruit from the tree for three years, but never found any. Therefore, he wanted it cut and removed from his garden. But the gardener asked one more year, some more time to make renewed efforts to make it bear fruit. This shows the forbearance of God. Instead of being hasty in judgment, especially condemnation, God gives time, environment, and opportunity (2 Peter 3:15) to his wayward children.
The incidence of the cursing of the Fig tree (Mark 11:13-14, Mark 11:20-21) cannot be used here since the Fig tree in this instance was putting up a pretense – it was not the season for figs, but that tree had put out leaves, that suggested the presence of fruit in it, which actually was not there. The tree was cursed because of its hypocrisy, not for the absence of fruit.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
- To Be Continued