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बुधवार, 31 जनवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 155 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 37


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व्यावहारिक निहितार्थ – 7

    हम देख चुके हैं कि प्रत्येक नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी, परमेश्वर ने उसे जहाँ रखा है, वहाँ पर परमेश्वर के प्रावधानों का भण्डारी भी है, हमारे वर्तमान संदर्भ में कलीसिया या मण्डली तथा परमेश्वर की अन्य संतानों के साथ सहभागिता रखने का भी भण्डारी है। क्योंकि वह इसके लिए परमेश्वर को उत्तरदायी है, इसलिए उसे अपने इस भण्डारीपन का निर्वाह, उसमें निवास करने वाले पवित्र आत्मा की सहायता और मार्गदर्शन, तथा इसके लिए उसे प्रदान किए गए पवित्र आत्मा के वरदान के द्वारा, उचित रीति से करना चाहिए। पिछले कुछ लेखों से हमने जो कुछ कलीसिया और अन्य विश्वासियों के साथ सहभागिता रखने के बारे में सीखा है, हम उसके व्यावहारिक उपयोग के बारे में देख रहे हैं। विश्वासियों के तथा कलीसिया या मण्डली के आत्मिक जीवन की बढ़ोतरी में आने वाली बाधाओं के बारे में विचार करते हुए हमने देखा है कि दो बाधाएँ परमेश्वर के वचन की सेवकाई से संबंधित हैं। एक तो परमेश्वर के वचन को अपने में लेने से संबंधित है – यह मात्रा तथा गुणवत्ता, दोनों में पर्याप्त होना चाहिए; अर्थात, जो वचन दिया जा रहा है, वह शुद्ध होना चाहिए, न कि मनुष्यों की धारणाओं और विचारों की मिलावट के साथ हो; तथा उसे नियमित रूप से और पर्याप्त मात्रा में दिया जाना चाहिए। और दूसरी थी, सुसमाचार तथा परमेश्वर के वचन को औरों के साथ न बाँटना। आज, तथा अगले लेख में हम बाइबल में से परमेश्वर के वचन की सेवकाई से संबंधित कुछ गुणों को देखेंगे जो विश्वासियों तथा कलीसिया, दोनों की बढ़ोतरी को सुनिश्चित करते हैं।

    हम कलीसिया के इतिहास से जानते हैं कि प्रथम शताब्दी में कलीसिया का सबसे अधिक तेजी से और सारे सँसार में प्रसार हुआ और उन्नति भी हुई। और यह तब, जब उनके पास लिखित रूप में परमेश्वर का वचन, विशेषकर नया नियम – जो उस समय लिखा जा रहा था, था ही नहीं। शिक्षाएँ मुख्यतः प्रेरितों के द्वारा मौखिक दी जाती थीं, या कुछ पत्रियों के द्वारा, जो किसी व्यक्ति अथवा कलीसिया को लिखी जाती थीं और आस-पास की कलीसियाओं में घुमा कर वहाँ भी पढ़ी-सुनाई जाती थीं। किन्तु प्रेरितों के द्वारा प्रचार किए जा रहे इस परमेश्वर के वचन में एक बात थी – वह परिशुद्ध था, अर्थात, जैसा उन्हें प्रभु या पवित्र आत्मा से मिला था (1 कुरिन्थियों 11:23; 15:3; गलतियों 1:11-12; 1 थिस्सलुनीकियों 4:2; 1 यूहन्ना 1:5), उसे वैसा ही, बिना उसमें उनकी अपनी बुद्धि के विचार और बातों को मिलाए (2 कुरिन्थियों 4:1-2, 5), बाँट दिया जाता था, और इसीलिए वह इतना प्रभावी था। यदि वही वचन जिसने उस समय कलीसिया की इतनी बढ़ोतरी और उन्नति की थी, उसी तरह से आज दिया जाए, तो निश्चय ही उसका वही प्रभाव होगा जो उस समय हुआ था।

    यह तर्क कोई मन-गढ़न्त बात नहीं है। हम परमेश्वर के वचन से देखते हैं कि यह परमेश्वर के वचन के प्रचार के द्वारा ही था कि कलीसियाएं दृढ़ हुईं और बढ़ीं (प्रेरितों 4:4; 6:7; 16:4-5; 12:24; 19:20)। कलीसियाओं की बढ़ोतरी के इस आरंभिक चरण में, वचन के मुख्य शिक्षक और प्रचारक प्रेरित तथा प्रभु यीशु के अन्य शिष्य थे। वे प्रभु के प्रति पूर्णतः और खराई से समर्पित थे और अपनी सेवकाई पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में करते थे। वह वचन जो पवित्र आत्मा से उन प्रेरितों तथा अगुवों में होकर आता था, उसके द्वारा यह बढ़ोतरी और उन्नति होती थी (प्रेरितों 16:4-5)। उस समय भी ऐसे लोग थे जो अपने ही विचारों, व्याख्याओं, और धारणाओं को परमेश्वर का वचन कहकर प्रचार करते थे (मत्ती 15:8-9; 2 कुरिन्थियों 2:17; 11:13-15), किन्तु उस से कभी भी कलीसिया या विश्वासियों की बढ़ोतरी अथवा उन्नति में कोई योगदान नहीं मिला, और बाइबल में उसकी भर्त्सना की गई है।

    बाइबल हमें विश्वासियों तथा कलीसिया की आत्मिक बढ़ोतरी और उन्नति के लिए तीन तरह की शिक्षाओं के बारे में बताती है। जिन्हें परमेश्वर के वचन की सेवकाई सौंपी गई है, उन्हें इसका ध्यान करना चाहिए और अपनी सेवकाई को, पवित्र आत्मा की अगुवाई में, इन के अनुसार स्वरूप देना चाहिए। ये तीन प्रकार हैं:

    पहली, सुसमाचार: प्रभु की सेवकाई के लिए, शिष्यों को करने के लिए कही गई प्राथमिक बात थी सुसमाचार का प्रचार (मत्ती 28:19; मरकुस 16:15; लूका 24:46-48; प्रेरितों 1:8)। पौलुस ने, कुरिन्थुस की मण्डली को लिखी अपनी पत्री, जिसमें उसने उनकी अनेकों गलतियों और कमियों को उजागर किया और उनके निवारण का उपाय बताया, के समापन पर आते हुए उन्हें फिर से सुसमाचार का स्मरण करवाया – 1 कुरिन्थियों 15:1-4। दूसरे शब्दों में, सुसमाचार केवल लोगों को उद्धार तक लाने के लिए ही नहीं है, वरन वह व्यक्तिगत तथा कलीसिया के जीवन में सभी समस्याओं का उपाय भी प्रदान करता है। तात्पर्य यह कि यदि विश्वासी बारंबार अपने जीवन, अपनी मान्यताओं, व्यवहार, उसे मिलने वाली शिक्षाओं, आदि को सुसमाचार के समक्ष लाकर, उन बातों का आँकलन करता है, तो वह सही और गलत की पहचान करने पाएगा, और भटकाएगा नहीं जा सकेगा। ऐसी कोई भी बात जो उसे प्रभु यीशु की शिक्षाओं से अलग ले जाती है, उनमें कुछ जोड़ती है या उनमें से कुछ हटाती है, और लोगों को क्रूस पर दिए गए प्रभु के बलिदान तथा उसके मृतकों में से पुनरुत्थान के अतिरिक्त अन्य किसी भी बात पर विश्वास करवाती है, वह गलत शिक्षा है, और उसे न तो स्वीकार किया जाना चाहिए और न ही उसका पालन किया जाना चाहिए; वह चाहे कितनी भी भक्तिपूर्ण, तर्कसंगत, और आकर्षक क्यों न लगे, और उसका निर्वाह करने, प्रचार करने, और सिखाने वाला चाहे कोई भी क्यों हो।

    दूसरी, आरंभिक शिक्षाएँ: इब्रानियों का लेखक, इब्रानियों 5:12 में लिखता है कि उसके पाठक इस हद तक पीछे हट चुके थे कि उन्हें परमेश्वर के वचन की आदि शिक्षा को फिर से सिखाने की आवश्यकता हो गई थी। फिर वह इब्रानियों 6:1-2 में उन छः आरंभ की बातों को बताता है, जिन्हें वह शिक्षा रूपी नेव कहता है, और इसलिए ये हैं वे बातें जिन्हें कलीसियाओं में सिखाए जाने की आवश्यकता है। ये छः बातें हैं: 1. मरे हुए कामों से मन फिराना, 2. परमेश्वर पर विश्वास करना, 3. बपतिस्मों, 4. हाथ रखना, 5. मरे हुओं के जी उठना, 6. अन्तिम न्याय। इन सिद्धांतों से संबंधित शिक्षाओं को भूल जाने का वही परिणाम होगा जो इब्रानियों के लेखक ने कहा है – विश्वासी अपने आत्मिक जीवन में पिछड़ जाएँगे, और इस कारण कलीसिया भी पिछड़ जाएगी।

    तीसरी, मसीही जीवन से संबंधित: सभी विश्वासियों के लिए कुछ निर्देश, पवित्र आत्मा की अगुवाई में, यरूशलेम में प्रेरितों और अगुवों के द्वारा निर्धारित और स्थापित किए गए थे (प्रेरितों 15:28-31); ये थे, “तुम मूरतों के बलि किए हुओं से, और लहू से, और गला घोंटे हुओं के मांस से, और व्यभिचार से, परे रहो। इन से परे रहो;” ये सभी कलीसियाओं के पालन के लिए थे, और उन्हें पहुँचाए गए, तथा इनके पालन से कलीसियाओं में उन्नति हुई (प्रेरितों 16:4-5)।

    यह कलीसियाओं के अगुवों की, तथा उनकी जिन्हें वचन की शिक्षा देने की सेवकाई सौंपी गई है, की ज़िम्मेदारी है कि वे यह देखें कि ये तीनों तरह की बातें प्रत्येक विश्वासी को, नया हो या पुराना, और कलीसिया को सिखाई तथा याद दिलाई जाएँ। जैसे कि आरंभिक बातों के संदर्भ में इब्रानियों 5:11-14 में लिखा गया है, इन नेव समान आरंभिक सिद्धांतों को न जानना या भूल जाना, आत्मिक परिपक्वता को हानि पहुँचता है, विश्वासियों को “ऊँचा सुनने” वाला बना देता है, और ठोस आत्मिक भोजन लेने के अयोग्य कर देता है। अगले लेख में हम परमेश्वर के वचन की सही अनिवार्य शिक्षा से संबंधित कुछ और बातें देखेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Practical Implications – 7

 

    We have seen that every Born-Again Christian Believer is also God’s steward of the provisions of God, for our current context of the Church or Assembly and of fellowshipping with other God children, where God has placed him. Since he is accountable to God for it, therefore, he must fulfill his stewardship worthily, with the help and guidance of God’s Holy Spirit residing in him, and the gifts that the Holy Spirit has given to him for this. For the last few articles, we are seeing the practical implications or what we have learnt about the Church and fellowshipping with other Believers. While considering the obstructions in the spiritual growth or the Believers and of the Church or the Assembly, we have seen two of the obstructions are related to the ministry of God’s Word. One was related to feeding upon God’s Word – it should be adequate, both in quality as well as quantity, i.e., the Word being given out should be pure, and unadulterated by man’s concepts and ideas; and it should be taught and received regularly, and in proper amounts. And the second was not sharing the gospel and God’s Word with others. Today and in the next article, we will look at some features of the ministry of God’s Word from the Bible, that ensure growth of the Believers and the Church.

    We know from Church history that in the first century, the Church grew very rapidly all over the world; although they did not have the written Word of God, particularly the New Testament – which was still being written. Primarily, the teachings were done by the Apostles orally, and through some letters written to individuals or some of the Churches, and circulated around to be read and heard there. But there was one thing about this Word of God being preached and taught by the Apostles – it was pure, i.e., as they had received I from the Lord or from the Holy Spirit (1 Corinthians 11:23; 15:3; Galatians 1:11-12; 1 Thessalonians 4:2; 1 John 1:5), and was delivered unadulterated by their own thoughts and wisdom (2 Corinthians 4:1-2, 5), and therefore it was so effective. If the same Word that caused the Church to grow and improve at that time, is ministered in the same manner as it was done at that time, it surely will have the same effect as it had in the first Church.

    This is argument not mere conjecture. We see from God's Word that it was through the preaching of the Word of God, that the Churches were strengthened and grew (Acts 4:4; 6:7; 16:4-5; 12:24; 19:20). In this initial phase of Church growth, the main teachers and preachers of the Word were the Apostles and other disciples of Christ. They were sincerely committed to be obedient to the Lord and carrying on their ministry under the guidance of the Holy Spirit. It was this Word that came through the Apostles and Elders under the guidance of the Holy Spirit that caused this growth (Acts 16:4-5). Even at that time, there were people who preached their own thoughts, interpretations, and ideas as God's Word (Matthew 15:8-9; 2 Corinthians 2:17; 11:13-15), but it never contributed in any way to the spiritual growth and development of the Believers or of the Churches, and has been denounced in the Bible.

    The Bible gives us three Categories of Teachings for the spiritual growth and progress of the Believers and the Church. Those entrusted with the ministry of sharing God’s Word should take note and model their ministry accordingly, under the guidance of the Holy Spirit. These three categories are:

    First, the Gospel: Preaching the gospel was the basic thing that the disciples of the Lord Jesus were told to do in their ministry for the Lord (Matthew 28:19; Mark 16:15; Luke 24:46-48; Acts 1:8). Paul in concluding his first letter to Corinthians, in which he pointed out their numerous short-comings and errors, and showed them how to correct those errors, towards the conclusion of his letter, brought them back to the gospel - 1 Corinthians 15:1-4. In other words, the gospel is not meant only to bring people to salvation, but it is also the panacea for all problems in personal and Church life. The implication is that if the Believers learn to repeatedly evaluate their lives, beliefs, practices, teachings they have received, etc., against the gospel, they will also learn to identify the right from the wrong, and will not be led astray. Anything that leads them astray from the Lord Jesus’s teachings, adds to them or takes away from them, and makes them trust in anything other than the Lord’s sacrifice on the Cross and His resurrection from the grave, is a wrong teaching; and is not to be accepted or followed, no matter how pious, logical, and attractive it may seem, and no matter who practices, preaches, and teaches it.

    Second, the Basic Principles: The author of Hebrews says in Hebrews 5:12 that his audience had deteriorated to the point that they required the basic principles be taught again to them. Then in Hebrews 6:1-2 he mentions the six basic topics, the elementary principles, he calls them foundational teachings, therefore they are those that should be taught in the churches. These six are: 1. Repentance from dead works; 2. Faith towards God, 3. Doctrine of Baptisms, 4. Laying on of hands, 5. Resurrection of dead, 6. Eternal judgement. Forgetting the teachings related to these principles, will produce the same effect as the author of this letter to Hebrews has mentioned – Believers will deteriorate in their spiritual lives, and therefore, the Church will also deteriorate.

    Third, regarding Christian living: Some instructions for all the Believers, were determined and established by the Apostles and Elders of Jerusalem under the guidance of the Holy Spirit (Acts 15:28-31); namely, “abstain from things offered to idols, from blood, from things strangled, and from sexual immorality”. They were meant for all the Churches, were delivered to the Churches, and obeying them resulted in the growth of the Churches (Acts 16:4-5).

    It is the responsibility of the Church Elders and those entrusted with the ministry of teaching God’s Word to see that teachings of these three categories are taught and reminded to every Believer, new and old, and to the Church. As it is written in context of the basic principles, in Hebrews 5:11-14, not knowing, or forgetting these foundational Biblical teachings, leads to deterioration of spiritual maturity, makes the Believers “dull of hearing,” and unable to take in solid spiritual food. In the next article, we will see some more aspects of the necessary proper teaching of God’s Word.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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मंगलवार, 30 जनवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 154 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 36

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व्यावहारिक निहितार्थ – 6

 

    कलीसिया और कलीसिया में परमेश्वर के अन्य बच्चों के साथ सहभागिता रखने के बारे में मत्ती 16:18 से सीखने के बाद, हमने जो सीखा है, पिछले कुछ लेखों से उसके व्यावहारिक उपयोग के बारे में देखना आरंभ किया है। यह इसलिए आवश्यक है ताकि नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी उसे परमेश्वर द्वारा सौंपी गई परमेश्वर का भण्डारी होने की ज़िम्मेदारी का योग्य रीति से निर्वाह कर सके। पिछले लेख से हमने उन बातों के बारे देखना आरंभ किया है जिनके कारण विश्वासी के आत्मिक जीवन तथा कलीसिया की उन्नति और बढ़ोतरी बाधित होती है। पिछले लेख में हमने ऐसी दो कमियों के बारे में देखा था – विश्वासियों द्वारा अपनी ज़िम्मेदारियों का सही रीति से निर्वाह नहीं करना, और उन से जिन्हें परमेश्वर के वचन की सेवकाई सौंपी गई है, कलीसिया तथा विश्वासियों को वचन की शिक्षाओं का सही, पर्याप्त, और नियमित पोषण नहीं मिलना। आज हम आगे बढ़ेंगे, और दो अन्य कमियों देखेंगे जो विश्वासियों तथा कलीसिया की आत्मिक उन्नति और बढ़ोतरी में हानि लाती हैं।

3. सुसमाचार और परमेश्वर के वचन को नहीं बाँटना :

    इन परेशानियों से भरे अन्त के दिनों में तथा सँसार भर में प्रभु यीशु के शिष्यों पर निरन्तर बढ़ते हुए सताव के कारण, विश्वासी सामान्यतः सतर्क रहते हैं, और कोई जोखिम उठाने या मुसीबत को दावत देने से कतराते हैं। लेकिन कलीसिया का इतिहास यह दिखाता है कि कलीसिया सताव के समयों में ही अच्छे से बढ़ी है, मजबूत और स्थापित हुई है; और आराम के समयों में वह आलसी, दुर्बल, और शिथिल ही हुई है। साथ ही, यह तो संभव ही नहीं है कि विश्वासी किसी भी रीति से सताव से, अर्थात उसके मसीही विश्वास के लिए कभी-न-कभी परखे जाने से बच सके, वह चाहे अपने आप को कितना भी शान्त और अलग क्यों न रखे रहे। यह परमेश्वर के वचन की शिक्षा है कि सभी विश्वासियों को इस सँसार में दुःख उठाने ही पड़ेंगे (प्रेरितों 14:22; फिलिप्पियों 1:29; 2 तीमुथियुस 3:12); मसीही सेवकाई का अर्थ है दुःख-तकलीफ उठाना (2 तीमुथियुस 4:5); अपने प्रभु के समान महिमान्वित होने के लिए उसके समान सताव से होकर निकलना (रोमियों 8:17)। विश्वासियों का इन कष्टों से होकर निकलना, और दुःख उठाने का उद्देश्य है पाप करने की प्रवृत्ति से छूट जाना और शरीर की अभिलाषाओं के अनुसार नहीं, बल्कि परमेश्वर की इच्छा में होकर चलना सीखना (1 पतरस 4:1-2)।

    लेकिन परमेश्वर ने यह आश्वासन भी दिया है कि विश्वासी पर जो भी परीक्षा आएगी, वह परमेश्वर की अनुमति से ही होगी, उसके द्वारा निर्धारित की गई सीमाओं के अंतर्गत ही होगी, और उस परीक्षा के साथ ही प्रभु निकासी का मार्ग भी उपलब्ध करवाएगा (1 कुरिन्थियों 10:13)। इसलिए सुसमाचार तथा परमेश्वर के वचन को बाँटने के परमेश्वर के निर्देशों का पालन करने से क्यों डरना या घबराना?

4. कलीसिया में दल या गुट बनाने और विभाजन करना:

    हमें यह याद रखना चाहिए कि परमेश्वर ही कलीसिया में लोगों को जोड़ता है, कोई लोग नहीं (प्रेरितों 2:47); इसी लिए कलीसिया या संगति से अलग करने का अधिकार भी केवल परमेश्वर ही के पास है, किसी मनुष्य के नहीं (हम इसके बारे में कलीसिया में अनुशासन से संबंधित आने वाले लेखों में देखेंगे)। पहली कलीसिया के संदर्भ में, प्रेरितों 5:14 और 11:24 में कलीसिया में लोगों के जुड़ने को प्रभु में जुड़ना लिखा गया है। इसलिए, जिस भी विश्वासी को प्रभु ने अपनी कलीसिया में जोड़ा है, वह प्रभु में भी जोड़ दिया गया है; जो कि कलीसिया के प्रभु की देह और दुल्हन होने के रूपक के साथ सटीक बैठता है। इसलिए, व्यक्तिगत मतभेदों और कलह के कारण, कोई भी विश्वासी कलीसिया या मण्डली में किसी अन्य विश्वासी से न तो अपने आप को और न ही उस दूसरे को अलग कर सकता है; और न ही औरों को ऐसा करने के निर्देश दे सकता है – कोई भी कैसे अपने आप को या किसी और को प्रभु की देह और दुल्हन में से निकाल या अलग कर सकता है? किन्तु इस प्रकट सामान्य-समझ की बात के बावजूद भी कलीसिया के ऐसे अगुवे और प्राचीन हैं जो न केवल बाइबल के विपरीत इस धारणा का पालन करते, प्रचार करते, और सिखाते हैं, वरन दूसरों पर दबाव डालते हैं, उन्हें बाध्य करते हैं कि वे भी ऐसा ही करें; अर्थात व्यक्तिगत मतभेदों के कारण अन्य विश्वासी या विश्वासियों से अलग हो जाएँ या उन्हें अपने में से अलग कर दें! यह कलीसिया में गुट या दल बनाना और विभाजन करना है।

    इसलिए, जिन्हें परमेश्वर के वचन की सेवकाई सौंपी गई है, यदि उनके जीवन का उदाहरण कलीसिया या मण्डली में दल बनाने या विभाजन को प्रोत्साहित करता है, अर्थात लोगों के प्रभु के या कलीसिया के साथ नहीं बल्कि किसी समूह या व्यक्ति के साथ जोड़े जाने के लिए प्रोत्साहित करता है; और यदि कलीसिया या मण्डली में प्रभु के द्वारा जोड़े गए लोगों से अलग रहने या उन्हें अलग रखने के लिए कहा जाता है, यद्यपि उनकी कमियों और गलतियों के बावजूद प्रभु ने उन्हें कलीसिया या मण्डली से अलग नहीं किया है; अर्थात, यदि कलीसिया या मण्डली में अगुवों और प्राचीनों के द्वारा लाए गए और बना कर रखे गए दल और विभाजन हैं, तो फिर यह सर्वथा अपेक्षित ही है कि कुलुस्सियों 2:9 में कही गई परमेश्वर द्वारा दी जाने वाली बढ़ोतरी कलीसिया में देखने को नहीं मिलेगी; क्योंकि ऐसे में कलीसिया विभाजित हो रही है बढ़ नहीं रही है, उसमें से घटाया जा रहा है, उसमें जोड़ा नहीं जा रहा है, और मसीह के देह के कुछ अंगों को अलग किया, उन्हें उनका पोषण मिलने से रोका जा रहा है।

    चाहे लोग परमेश्वर से प्रार्थनाएं करते रहें कि कलीसिया में औरों को जोड़े, उसे बढ़ाए, लौटे हुओं को वापस लौटा लाए, किन्तु यदि लोगों के कलीसिया या मण्डली को छोड़ने और चले जाने के कारणों का गंभीरता से विश्लेषण करके कारणों की पहचान और निवारण नहीं किया जाएगा, यदि 2 शमूएल 14:14 के निर्वाह की अवहेलना की जाएगी, यदि उन्नति और बढ़ोतरी में बाधा के कारणों की पहचान नहीं की जाएगी, यदि परमेश्वर के भय और आज्ञाकारिता में ठोस सुधार कार्यान्वित नहीं किए जाएँगे, तो ये सारी प्रार्थनाएं अप्रभावी और अनुत्तरित ही रहेंगी, केवल सुनने वालों को सुनाने के लिए कही गई मात्र कहने भर की बात, एक औपचारिकता को पूरा करना ही रहेंगी। साथ ही विश्वासियों को, कलीसिया या मण्डली के सदस्यों को भी ध्यान करना चाहिए कि वे मनुष्यों के भय में नहीं बल्कि परमेश्वर के भय में अपनी जिम्मेदारियों का उचित रीति से निर्वाह करें। अन्यथा कलीसिया में उन्नति और बढ़ोतरी नहीं होगी, और विश्वासी कलीसिया के भले भण्डारी नहीं होंगे, उन्हें अपनी आशीषों की हानि उठानी पड़ेगी।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Practical Implications – 6

 

Having learnt about the Church and fellowship with God’s children in the Church through Matthew 16:18, for the past few articles we have now started to look upon the practical applications of what we have learnt. This is necessary so that a Born-Again Christian Believer can fulfil his God given stewardship for these, worthily. Since the last article we are looking at deficiencies that obstruct the growth and development of the Believer’s spiritual life, as well as of the Church. In the last article we have seen two deficiencies, of Believers not fulfilling responsibilities properly, and of the Believers as well as the Church not receiving a proper, adequate, and regular nourishment of God’s Word through those entrusted with the ministry of God’s Word. Today we will carry on, and see two more deficiencies that bring loss in the Believer’s, as well as the Church’s spiritual life.

3. Deficiency in sharing the Gospel and God’s Word:

    In these troubling end-times and increasing world-wide persecution of the followers of the Lord Jesus, Believers are usually wary and fearful of sharing and preaching the gospel, not wanting to take any risks or invite trouble. But Church history shows us that the Church has always grown better and become stronger in times of and through persecution; and has become stagnant, weak, and lethargic in times of ease. Moreover, there is no way a Believer can avoid being persecuted, i.e., tested at some time or the other for his faith, no matter how silent and secluded he may keep himself. It is the teaching of God’s Word that the Believers will have to suffer in this world (Acts 14:22; Philippians 1:29; 2 Timothy 3:12); Christian ministry will mean enduring afflictions (2 Timothy 4:5). It is assigned for the Believers so that they can have rich treasures in heaven (2 Corinthians 4:17); to be glorified like their savior Lord, they have to suffer like Him (Romans 8:17). This suffering is meant to make the Believers cease from sin, stop living in the lusts of the flesh, and start living by the will of God (1 Peter 4:1-2).

    But God has also given the assurance that any testing that will come upon the Believers, will be by the permission of the Lord and within the limits set by Him; and along with that suffering the Lord will also provide a way out (1 Corinthians 10:13). Therefore, why be afraid and fearful of following God's instructions of sharing His Word and the gospel?

4. Deficiency because of Factionalism:

    We need to remember, that it is God who added to the Church (Acts 2:47), and not the people; therefore, the authority to put someone away from the Church or fellowship also rests with only the Lord, and not with any man (we will see more about this in the coming articles on Church discipline). In the first Church, people being added to the Church have been stated as being added to the Lord Acts 5:14; 11:24. Hence, any Believer whom the Lord has added to His Church, has also been added to the Lord; which also goes along with the metaphors of the Church being the body and the bride of the Lord. Therefore, due to personnel differences and discord, no Believer can disassociate himself from the other Believers in the Church or Assembly, or ask others to do this – how can anyone separate himself or another out of the Lord’s body or of the Lord’s bride? But despite this common-sense understanding, there are Church leaders and Elders who not only practice, preach, and teach this unBiblical concept, but at times even pressurize or compel others to do so; i.e., they separate away from some other Believers because of personal differences and ask, or even compel, others to do the same! This is forming and encouraging factionalism and divisions in the Church.

    So, if the ministry and example of the life of those entrusted with the ministry of God’s Word is such that it encourages people in the Church of the Lord for factionalism, i.e., encourages them to be added to a particular group of followers of a person, instead of being added to the Lord, to the Church; and if people are asked or encouraged to stay away from some other Believers in the Church whom the Lord had added and has not cast away despite their short-comings; i.e., if there are divisions in the Church, promoted and maintained by God’s ministers, then it is only to be expected that God’s growth of Colossians 2:19 will not happen in the Church; because then the Church is dividing not multiplying; subtracting, not adding, parts of the body of Christ are being separated and denied nourishment.

    So, if the Church is not growing in quality and quantity; if God is not sending/adding new members into the Church, and/or even the existing ones are going away, it is an indicator that there is something seriously wrong in the ministry of God’s Word, in the lives and practices of the Elders and leaders of the Church, and in the managing and functioning of the Church. Not just the Elders, but the whole congregation should pray and ponder over this, introspect about it and correct the deficiencies that God Shows.

    While people may keep praying for God to add to the Church, to make it grow, and to bring back those who have gone away, but if there is no serious effort of identifying and correcting the reason of people leaving and staying away from the Church, if fulfilling of 2 Samuel 14:14 is ignored, if identification of the reasons of this lack of growth is not done, and if taking of concrete remedial actions in the fear and guidance of God is not done, then all such prayers will remain ineffective and unanswered, will remain something to be said and a formality to be fulfilled for the sake of the listeners. The Believers, the Church members, on their must also make sure that they are doing what they are supposed to be doing in the fear of God, not man; else the Church will not grow, and the Believers will be poor stewards of the Church, will suffer loss of their blessings.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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सोमवार, 29 जनवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 153 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 35

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व्यावहारिक निहितार्थ – 5

 

हम देख चुके हैं कि प्रत्येक नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी परमेश्वर के लिए, परमेश्वर के द्वारा उसे दिए गए प्रावधानों और विशेषाधिकारों का भण्डारी भी है। इसलिए प्रत्येक विश्वासी को परमेश्वर ने जो उसे सौंपा है, उसके बारे में सीखना और जानना चाहिए, ताकि भण्डारी होने की अपनी जिम्मेदारियों को योग्य रीति से पूरा कर सके। इस सन्दर्भ में हमने मत्ती 16:18 से परमेश्वर की कलीसिया जहाँ परमेश्वर ने विश्वासी को रखा है तथा परमेश्वर के अन्य बच्चों के साथ सहभागिता रखने के बारे में सीखा है, और अब उस सीखे हुए के व्यावहारिक निहितार्थों पर विचार कर रहे हैं। पिछले लेख में हमने देखा था कि विश्वासी के जीवन में तथा कलीसिया में भी उन्नति एवं बढ़ोतरी होते रहना अनिवार्य है; और कलीसिया में बढ़ोतरी तभी होगी जब कलीसिया के सदस्य अपने आत्मिक जीवनों में उन्नति करेंगे। आज से हम उन कारणों को देखना आरम्भ करेंगे जो इस उन्नति और बढ़ोतरी में बाधा बनते हैं, विश्वासी के जीवन में तथा कलीसिया में भी।

यदि कलीसिया उन्नति नहीं कर रही है, या उचित रीति से उन्नति नहीं कर रही है, तो इसका अर्थ है कि उसके सदस्य परमेश्वर का भण्डारी होने की अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर रहे हैं, और उनके मसीही जीवनों में कोई गम्भीर गड़बड़ी है। यह बढ़ोतरी न होना विश्वासियों के जीवनों के विभिन्न पक्षों में कमियाँ होने के कारण हो सकती है।

1. जिम्मेदारियों का निर्वाह करने में कमी:

    हमने पिछले लेख में देखा है कि परमेश्वर द्वारा कलीसिया को बढ़ाने के लिए, प्रत्येक विश्वासी को अपनी भूमिका का निर्वाह करना पड़ेगा (इफिसियों 4:16)। बहुधा यह मान लिया जाता है कि कलीसिया या मण्डली की सारी ज़िम्मेदारी पास्टरों, अगुवों, कमेटी के सदस्यों, तथा जो वचन की सेवकाई में लगे हैं, केवल उन्हीं की है। इन्हें ही काम में लगे रहना है जबकि शेष लोग आराम से बैठ सकते हैं। लेकिन जैसे हमने कलीसिया के लिए उपयोग किए गए रूपकों से तथा परमेश्वर के वचन के कुछ अन्य हवालों से सीखा था, परमेश्वर ने प्रत्येक विश्वासी को कोई न कोई काम दिया है (इफिसियों 2:10), और उसी काम के अनुसार प्रत्येक विश्वासी को पवित्र आत्मा का कोई न कोई वरदान भी दिया गया है। यह कोई साधारण सा लगने वाला काम भी हो सकता है, जैसे फीबे कलीसिया में रख-रखाव करने वाली सेविका थी (रोमियों 16:1)। यह कलीसिया के बाहर, मण्डली के लोगों के मध्य भी हो सकता है, जैसे कि तबिता, या दोरकास की सेवकाई थी जिसके बारे में प्रेरितों 9:36-42 में लिखा है। इस स्त्री ने कोई सन्देश प्रचार नहीं किए अथवा सिखाए, परन्तु उसका जीवन ही एक जीवित सन्देश था। परमेश्वर का वचन उसके विषय गवाही देता है कि, “...वह बहुतेरे भले भले काम और दान किया करती थी” (प्रेरितों 9:36), और उसके इन कामों में से एक था कुरते और कपड़े बनाना (प्रेरितों 9:39। उसकी इस साधारण सी सेवकाई ने ही उसे अपने चारों के लोगों में इतना प्रिय बना दिया था कि उसकी मृत्यु होने पर उन लोगों ने तुरन्त पतरस को बुलाया, और परमेश्वर ने पतरस में होकर काम किया, उसे जिला उठाया (प्रेरितों 9:38-41), और उसकी मृत्यु तथा जिलाए जाने से बहुत से लोगों ने प्रभु यीशु में विश्वास किया (प्रेरितों 9:42)।

    जैसे-जैसे विश्वासी अपनी जिम्मेदारियों को योग्य रीति से निभाता है, वह प्रभु में बढ़ता जाता है; और कलीसिया के सदस्यों के इन जिम्मेदारियों के सामूहिक निर्वाह के द्वारा कलीसिया की उन्नति होती है। यदि सदस्य अपनी जिम्मेदारियों से अवगत ही न हों, और किसी भी कारण से, उन्हें निभा ही नहीं रहे हों, तब न तो उनकी और न ही कलीसिया की कोई बढ़ोतरी अथवा उन्नति होने पाएगी। इसलिए, सभी को प्रार्थना करके परमेश्वर से पता करना चाहिए कि उनकी सेवकाई और ज़िम्मेदारियाँ क्या हैं, और फिर एक प्रयास के साथ उन्हें निभाने का यत्न करना चाहिए।

2. परमेश्वर के वचन को अपने अन्दर लेना:

    बाइबल हमने बताती है कि कलीसिया की बढ़ोतरी का मुख्य कारण परमेश्वर का वचन है। परमेश्वर अपने वचन में होकर विश्वासियों से बात करता है, उनका मार्गदर्शन करता है। बाइबल में दिखाया गया नमूना है कि यदि मण्डली में परमेश्वर के वचन की सेवकाई सही है, तो कलीसिया की बढ़ोतरी और उन्नति भी होगी। जहाँ परमेश्वर का वचन पनपता है, वहाँ परमेश्वर के लोग भी पनपते हैं। यदि लोगों को परमेश्वर के वचन का उचित पोषण नहीं मिलेगा, वह चाहे उनकी अपनी कमियों-कमजोरियों के कारण हो (1 कुरिन्थियों 3:1-13; इब्रानियों 5:12), या परमेश्वर के वचन के सेवकों में कोई कमियों-कमजोरियों के कारण हो, तो विश्वासियों की, तथा साथ ही कलीसिया की भी परिपक्वता और बढ़ोतरी की हानि होगी। इसे हम पवित्र आत्मा द्वारा पौलुस में होकर तीमुथियुस को दी गई चेतावनी में देखते हैं (2 तीमुथियुस 2:14-17), जहाँ पौलुस तीमुथियुस को लिखता है कि परमेश्वर के वचन का सही उपयोग न करना लज्जा, अभक्ति, अशुद्ध बकवाद का कारण हो जाता है, ऐसे सन्देश सड़े-घाव के समान फैलते चले जाते हैं और सुनने वालों की हानि का कारण हो जाते हैं (साथ ही 1 तीमुथियुस 6:20 और तीतुस 3:9 भी देखिए)।

    इसलिए, परमेश्वर से बढ़ोतरी (कुलुस्सियों 2:9) का न मिलना, इस बात का संकेत है कि कलीसिया में परमेश्वर के वचन को लेने और देने में कोई गड़बड़ी है। जैसे कि मानव-शरीर में, वैसे ही कलीसिया में यह बढ़ोतरी और उन्नति सही वचन – परमेश्वर के वचन के पर्याप्त और नियमित पोषण के मिलते रहने से होती है। इसलिए यदि कलीसिया की उन्नति नहीं हो रही है, तो दूध-पीने वाले बच्चे की बढ़ोतरी न होने के समान, दूध में कोई कमी है, अर्थात उस कलीसिया में परमेश्वर के वचन की सेवकाई में कुछ कमी है।

    यह कमी दो तरह से हो सकती है, और उन दोनों में से कोई एक, अथवा दोनों ही कार्यकारी हो सकती हैं। वह “दूध,” अर्थात परमेश्वर का वचन, या तो मात्रा में कम हो सकता है, अथवा गुणवत्ता में कम हो सकता है, या ये दोनों ही बातें एक साथ होना भी संभव है। मुख्यतः, यह इस बात का सूचक है कि जिन्हें वचन की सेवकाई सौंपी गई है, या तो उनके जीवन में कोई समस्या है जिसके कारण वे परमेश्वर के साथ सही और उचित संपर्क रख कर उस से वचन को प्राप्त नहीं करने पा रहे हैं; या वे प्रभु के साथ पर्याप्त समय नहीं बिता रहे हैं कि उस से उसका वचन उन्हें मिल सके; या फिर वे अपने संदेशों को परमेश्वर के वचन में मनुष्य की बातों की मिलावट के द्वारा बना रहे हैं, और ये मिलावट की बातें उनकी स्वयं की अथवा किसी अन्य मनुष्य की बातों से ली गई हो सकती हैं। यदि सेवक परमेश्वर के वचन में मनुष्य की बातों से मिलावट कर रहे हैं, तो फिर उनके द्वारा सिखाए गए, प्रचार किए गए, सुनाए गए संदेश चाहे कितने भी भक्तिपूर्ण, सुनने में अच्छे, और रोचक क्यों न हों, लेकिन उनमें इब्रानियों 4:12 को पूरा करने और लोगों में परिवर्तन लाने वाली परमेश्वर की सामर्थ्य कभी नहीं होगी; उन से कोई उन्नति अथवा बढ़ोतरी नहीं होगी।

    अगले लेख में हम यहाँ से और आगे बढ़ेंगे तथा कमियों के दो और कारणों को देखेंगे जो विश्वासियों और कलीसिया की आत्मिक बढ़ोतरी तथा उन्नति में बाधा बनती हैं।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Practical Implications – 5

 

    We have seen that every Born-Again Christian Believer is also a steward of God for the provisions and privileges given to him by God. Therefore, every Believer should learn and know about all that God has entrusted him with, to worthily fulfil his stewardship responsibilities. In this context, having learnt from Matthew 16:18 about the Church of God and about being in fellowship with God’s other children, where God has placed the Believer, we are now considering the practical implications of what we have learnt. In the last article we had seen that growth of the Church as well as of Believer’s spiritual life is essential; and that the Church will grow when the Believers, the members of the Church grow in their spiritual lives. Today we will start considering the causes that obstruct this growth, of the Believer, as well as of the Church.

    If a Church is not growing, or not growing adequately, that means its members are not fulfilling their responsibilities as God’s stewards, and that there is something seriously wrong in their Christian lives. This lack of growth can be due to deficiencies in various aspects in the lives of the Believers.

1. Deficiency in fulfilling responsibilities:

    We have seen in the last article, for God to grow the Church, every Believer must do his part, must fulfil his responsibility (Ephesians 4:16). It is often assumed that all responsibility of the Church or the Assembly rests only with the Pastors, Elders, the committee members, and those engaged in ministering the Word of God. The rest of the congregation can sit back and let these people do the work. But as we have seen from the metaphors used for the Church and other references from God’s Word, God has given some work or the other, to every Believer (Ephesians 2:10), and some gift of the Holy Spirit to every Believer in accordance with the work assigned to him. This can even be a seemingly ordinary work, e.g., like Phoebe, who was a servant in the Church. It may even be outside the Church, amongst the congregation, as was the ministry of Tabitha, or Dorcas in the first Church; written in Acts 9:36-42. This lady did not preach or teach any sermons, but her life was a living sermon. God’s Word testifies for her that “…This woman was full of good works and charitable deeds which she did” (Acts 9:36), and one of her works was making tunics and garments for others (Acts 9:39). This simple ministry had so endeared her to the people around her that after her death they sent for Peter, and God worked through Peter to bring her back to life (Acts 9:38-41), and then her death and coming back to life brough many others to faith in the Lord Jesus (Acts 9:42).

    As the Believer fulfils his responsibilities worthily, he grows in the Lord; and it is the collective fulfilment of these responsibilities by the members that results in the growth of the Church. If the members are not aware of their responsibilities, and are not carrying them out due to whatever reasons, neither their own nor the Church growth will happen. Therefore, everyone should pray and ask God to show them their ministry and responsibilities in the body of Christ, and then strive diligently to fulfil it.

2. Deficiency in feeding on the Word of God:

    The Bible tells us that the primary means of Church growth is God's Word. God speaks to the Believers and guides them through His Word. The Biblical pattern is that if the ministry of God's Word is proper, then Church growth will happen. Where God's Word grows, God's people also grow. If the people do not receive the proper nourishment of the Word of God, whether due to their own deficiencies (1 Corinthians 3:1-3; Hebrews 5:12), or due to deficiencies in the ministers of God’s Word, then the spiritual growth and maturity of the Believers, as well as the Church will suffer. This is seen in Paul’s warning to Timothy through the Holy Spirit (2 Timothy 2:14-17), where Paul writes to Timothy that not rightly dividing the Word of God is like profanity, idle babblings, that promote ungodliness, and such messages spread like cancer, ruining the hearers (also see 1 Timothy 6:20; Titus 3:9).

    Therefore, the increase from God (Colossians 2:19) not coming would imply there is something wrong in the Church receiving and/or serving God's Word. This growth, as for the human body, happens through the Church receiving the proper, regular, and adequate nourishment of the Word - God's Word. So, if the Church is not growing, then taking an analogy from a milk-fed child's growth, there is a deficiency in the milk, i.e., the Word of God in that Church.

    This can be in two forms, and either one, or both may be the operative reason for this deficiency. The 'Milk,' i.e., God’s Word is either deficient in quantity, or it is deficient in quality, or in both. Primarily it indicates that those entrusted with the Word ministry either have some problem in their own lives, therefore are not able to connect with God and receive His Word from Him; or, they are not spending adequate time with the Lord to receive the Word from Him; or they are making up their messages by adulterating God’s Word with man's word - either their own, or borrowed from someone else. If the ministers are adulterating God’s Word with man’s words, then although what they say, preach, and teach may sound pious, nice, and interesting, but it will never have the power of God to fulfil Hebrews 4:12 and transform others.

    We will carry on from here in the next article and look at two more deficiencies that obstruct the spiritual growth of Believers and the growth of the Church.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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रविवार, 28 जनवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 152 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 34

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व्यावहारिक निहितार्थ – 4 

    परमेश्वर की कलीसिया के अंग होने और परमेश्वर की अन्य सन्तानों के साथ सहभागिता में रखे जाने के कारण, प्रत्येक मसीही विश्वासी परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए इन प्रावधानों का भण्डारी भी है। परमेश्वर ने ये प्रावधान उसे इसलिए उपलब्ध करवाए हैं कि वह योग्य रीति से अपने मसीही जीवन को जी सके और परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई को पूरा कर सके। परमेश्वर के प्रावधान का भण्डारी होने, अर्थात जिस कलीसिया या मण्डली में परमेश्वर ने उसे रखा है, वहाँ परमेश्वर का भण्डारी होने के नाते, उसे प्रयास करने चाहिए कि वह उस कलीसिया या मण्डली के ठीक से कार्य करते रहने में सहायक बना रहे। इन व्यावहारिक निहितार्थों के आरंभिक लेख में हमने देखा था कि ऐसा करने का एक तरीका है कलीसिया में कोई भी दल या गुट बनाने वाली और विभाजन लाने वाली सभी बातों से विश्वासी को दूर रहना चाहिए, और ऐसी प्रत्येक प्रवृत्ति के उठने या उसके आगे बढ़ने को रोकना चाहिए। आज हम इसी से सम्बन्धित एक और बात पर ध्यान देंगे, अर्थात कलीसिया की बढ़ोतरी होने के प्रति विश्वासी की ज़िम्मेदारी, और फिर अगले लेख में हम उन कुछ मुख्य कारणों को देखेंगे जो कलीसिया की बढ़ोतरी में बाधा बनते हैं।

    परमेश्वर का वचन बाइबल हमें सिखाती है कि उन्नति या बढ़ोतरी होते रहना मसीही विश्वासी का एक गुण होना चाहिए; वे किसी एक स्थान पर आकर कभी रुक नहीं सकते हैं (भजन 92:12-14)। पवित्र आत्मा पौलुस में होकर, इफिसियों 4:15 में विश्वासियों से कहता है कि सब बातों में मसीह में बढ़ते चले जाएँ। बाइबल में शारीरिक बढ़ोतरी के सभी चरणों को रूपक के समान आत्मिक बढ़ोतरी के लिए भी उपयोग किया गया है। प्रत्येक मसीही विश्वासी एक नए जन्मे हुए शिशु के समान नया-जन्म लेता है, और फिर परमेश्वर के वचन के निर्मल आत्मिक दूध के द्वारा बढ़ना आरंभ करता है (1 पतरस 2:1-2)। नए जन्मे हुए शिशु से फिर वह बाल्यावस्था में आता है (1 कुरिन्थियों 3:1), फिर बालक होने से जवान, और फिर पिता होने तक पहुंचता है (1 यूहन्ना 2:12-13)। इसी दौरान, किसी स्तर पर उससे अपेक्षा रखी जाती है कि वह औरों को भी परमेश्वर का वचन सिखाने लायक परिपक्व हो जाएगा (इब्रानियों 5:12)।

    इसी प्रकार से कलीसिया भी एक क्रियाशील संरचना है, क्योंकि वह अभी भी निर्माणाधीन है (1 पतरस 2:5)। पौलुस में होकर पवित्र आत्मा इफिसियों 2:21 में कहता है कि सारी रचना एक साथ मिल कर प्रभु में एक पवित्र मन्दिर बनती चली जा रही है। यह बढ़ोतरी या उन्नति प्रभु के आने तक दो कारणों से चलती ही रहेगी। पहला कारण है कि इस मन्दिर, प्रभु की कलीसिया का प्रत्येक अंग, जब तक कि वह इस पृथ्वी पर है, जैसा कि हमने ऊपर देखा है, आत्मिकता में बढ़ता और परिपक्व होता चला जाता रहेगा, इसलिए कलीसिया भी, जिसका वह अंग है आत्मिक रीति से क्रियाशील रहेगी, बढ़ती और परिपक्व होती रहेगी। दूसरी बात, प्रभु की कलीसिया में नए विश्वासी तब तक जोड़े जाते रहेंगे जब तक कि प्रभु के आगमन से पहले अंतिम न जोड़ दिया जाए। इसलिए दोनों कारणों से कलीसिया एक गतिशील संरचना रहेगी, निरन्तर सँख्या एवं गुणवत्ता में – गिनती तथा आत्मिकता में बढ़ती चली जाएगी, कभी किसी स्थान पर आकर रुक नहीं जाएगी।

    यह मसीही विश्वासियों को, कलीसिया के प्रत्येक अंग को, परमेश्वर द्वारा दी गई ज़िम्मेदारी है और उनके परमेश्वर की कलीसिया का भण्डारी होने का एक भाग है कि जिस स्थानीय कलीसिया में परमेश्वर ने उन्हें रखा है, उसकी उन्नति एवं बढ़ोतरी में योगदान करें, और यह उनके जीवन भर एक निरन्तर चलती रहने वाली बात होनी चाहिए। कलीसिया या मण्डली की यह बढ़ोतरी उसके सदस्यों की संख्या में, अर्थात, स्थानीय कलीसियाओं में नया-जन्म पाए हुए नए लोगों के जोड़े चले जाने, और साथ ही गुणवत्ता में, उन लोगों के आत्मिक स्तर में बढ़ते जाने के द्वारा दिखनी चाहिए; सदस्यों को अपनी सेवकाई में लगे रहना चाहिए, और प्रभु के लिए उपयोगी बने रहना चाहिए।

    कलीसिया की बढ़ोतरी और उन्नति परमेश्वर की ओर से होती है (कुलुस्सियों 2:19), और परमेश्वर की आशीषें उसकी आज्ञाकारिता में बने रहने से आती हैं। इसलिए, परमेश्वर से यह बढ़ोतरी तब आएगी जब प्रत्येक अंग, अर्थात प्रत्येक सदस्य, अपनी ज़िम्मेदारी को निभाएगा (इफिसियों 4:16)। प्रत्येक के द्वारा उनकी निज ज़िम्मेदारी का निर्वाह और परमेश्वर द्वारा सौंपी गई सेवकाई को योग्य रीति से करना, व्यक्तिगत रूप में उस सदस्य पर तथा सामूहिक रूप में कलीसिया पर परमेश्वर की आशीष को लाता है, और उस सदस्य की तथा देह, अर्थात कलीसिया की बढ़ोतरी होती है।

    यदि कोई कलीसिया या मण्डली बढ़ नहीं रही है, या उसमें पर्याप्त उन्नति एवं बढ़ोतरी नहीं है, तो इसका अर्थ है कि उसके अंग, उसके सदस्य, अपनी जिम्मेदारियों को, अपनी सेवकाइयों को सही रीति से पूरा नहीं कर रहे हैं, और उनके मसीही जीवनों में कुछ गंभीर गड़बड़ी है। बढ़ोतरी में यह घटी विश्वासियों के जीवनों में कुछ कमियों के कारण हो सकती है, जिसे हम अगले लेख में देखेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Practical Implications – 4

    As members of God’s Church and having being placed in fellowship with God’s children, every Christian Believer is also God’s steward of these God given provisions. These provisions have been made available to him by God for worthily living his Christian life and fulfilling his God assigned ministry. As a steward of God’s provision, namely, being a steward of the Church where God has made him a member and placed him, he must make efforts to help in the proper functioning of the Church or Assembly. In the initial article on these practical implications, we have seen that one way of doing this is to stay away from all things that lead to factionalism and divisions in the Church, and try to stop any such tendency from occurring or developing any further. Today we will start looking at another related aspect, i.e. the Believer’s responsibility for the growth of the Church, and in the next article we will look at some main reasons that obstruct the growth of the Church.

    God’s Word the Bible teaches us that growth must be a characteristic of the Christian Believers; they cannot remain static at any point (Psalm 92:12-14). In Ephesians 4:15 the Holy Spirit through Paul says to the Believers to grow up in all things in the Lord Jesus. The Bible metaphorically mentions various stages of physical growth as stages of spiritual growth as well. Every Christian Believer is Born-Again as a spiritual infant, he feeds on the milk of God’s Word and grows thereby (1 Peter 2:1-2). From a new-born he grows up to be an infant (1 Corinthians 3:1), then to being a child, then a young person, going on to be a father (1 John 2:12-13). Somewhere along this process, it is expected of him to be mature enough to start teaching God’s Word to others also (Hebrews 5:12).

    Similarly, the Church too is a dynamic structure, since it is still under construction (1 Peter 2:5). The Holy Spirit through Paul says in Ephesians 2:21 that the whole building being joined together grows into a holy temple in the Lord. This growth will continue till the Lord comes, for two reasons. One is that every member of this temple, the Church of the Lord Jesus Christ, as we have seen above will continue to grow and mature spiritually, as long as he is on earth, therefore, the Church, of which he is a part will also remain dynamic and growing spiritually. Secondly, the Born-Again Believers will continue to be added to the Lord’s Church, till the last one is added before the Lord’s coming. Therefore, on both counts, the Church will remain a dynamic entity, continually growing in quantity as well as quality - numbers as well as spirituality, never static or stagnant at any point.

This is the God given responsibility of the Christian Believers, of every Church member, and it is a part of their stewardship towards the Church of God, to see that they all contribute towards the growth of the local Church where God has placed them, and this should be a continual process in their lives. This growth of the Church must be evident in its quantity, or, numbers - i.e., new saved Born-Again people being added to the local churches, as well as in quality through the growth in spiritual status of the members; the members must remain involved in fulfilling their ministry, and being useful for the Lord.

    The growth of the Church comes about because of the increase that comes from God (Colossians 2:19), and God’s blessings come with being obedient to Him. So, this increase from God will come about when every part, i.e., every member of the Church, does his share (Ephesians 4:16). The fulfilling of their respective responsibility and worthily carrying out their God assigned ministry by every individual member of the Church, leads to God’s blessings individually upon the members as well as collectively upon the Church, and causes the growth of the individual as well as of the whole body i.e., the Church.

    If a Church is not growing, or not growing adequately, that means its members are not fulfilling their responsibilities and ministry, and that there is something seriously wrong in their Christian lives. This lack of growth can be due to deficiencies in various aspects in the lives of the Believers, which we will see in the next article.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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