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व्यावहारिक निहितार्थ – 2
परमेश्वर ने प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को अपनी कलीसिया का अंग बनाया है और उसे अपनी अन्य सन्तानों के साथ सहभागिता में रखा है; और उनके लिए परमेश्वर का भण्डारी होने के नाते, परमेश्वर ने उन्हें इन विशेषाधिकारों के लिए उसे उत्तरदायी भी बनाया है। भण्डारी होने की इस ज़िम्मेदारी का योग्य निर्वाह करने के लिए, विश्वासी को कलीसिया के बारे में मूल बातों को जानना चाहिए, जिन्हें हमने पिछले लेखों में मत्ती 16:18 से सीखा है। विश्वासियों को कलीसिया तथा परमेश्वर की अन्य सन्तानों के साथ सहभागिता रखने से सम्बन्धित मूल बातों के व्यावहारिक निहितार्थों को अपने जीवन में लागू करने के बारे में भी जानना चाहिए – इसे हमने पिछले लेख से देखना आरम्भ किया है। पिछले लेख में हमने देखा था कि जिस कलीसिया या मण्डली में परमेश्वर ने विश्वासी को रखा है, उसे उसी में बने रहना है; तथा कलीसिया या मण्डली में दल या गुट बनाने, विभाजन करने जैसी किसी भी बात में कदापि सम्मिलित नहीं होना है। आज हम एक अन्य ज़िम्मेदारी के बारे में देखेंगे – अपनी सेवकाई के विषय कलीसिया के प्रति उत्तरदायी होना, उसके लिए परमेश्वर की महिमा करना, और सेवकाई के अपने अनुभवों को आनन्द के साथ कलीसिया के साथ बाँटना।
बाइबल हमें दिखाती है कि प्रत्येक विश्वासी, अपनी सेवकाई के लिए, जिस कलीसिया या मण्डली में प्रभु ने उसे रखा है, उसे उत्तरदायी है। यदि वह अपनी सेवकाई के लिए कलीसिया से प्रार्थनाओं की माँग करता है, तो उसे कलीसिया या मण्डली को उन प्रार्थनाओं और उनके उत्तरों के लिए धन्यवाद भी करना चाहिए, और साथ ही अपनी सेवकाई की गतिविधियों के बारे में उन्हें अवगत भी रखना चाहिए। हम इस बात को प्रेरित पौलुस के जीवन से बहुत अच्छे से चित्रित होते हुए देखते हैं। वह हमेशा ही, जब भी अपनी सेवकाई की यात्राओं से लौट कर आता था, तो कलीसिया और उसके लोगों को अपनी सेवकाई के बारे में बताता भी था (प्रेरितों 14:26-27; 15:12; 21:17-19)। जैसा कि हम इन हवालों से देखते हैं, यद्यपि वह सेवकाई पर परमेश्वर की बुलाहट से निकलता था, जहाँ परमेश्वर भेजता था वहीं जाता था, जिन लोगों को परमेश्वर उसके साथ जोड़ता था उन्हीं के साथ जाता था, और जो कुछ भी करने पाता था वह परमेश्वर की सामर्थ्य से ही कर पाता था; लेकिन इस से उसमें न तो कोई घमण्ड आया और न ही उसने अपने आप को कलीसिया के अन्य लोगों से उच्च या बेहतर समझा। उसने उन से उसकी तथा उसकी सेवकाई के लिए प्रार्थना करने के लिए कहा था, और वह समझता था कि अब यह उसकी ज़िम्मेदारी थी कि उसे उन प्रार्थनाओं के जो उत्तर प्राप्त हुए, उनके बारे में कलीसिया के लोगों को बताए। इन तीन हवालों में हम पौलुस की वापस लौट कर कलीसिया को बताने से सम्बन्धित बात के साथ जुड़ी हुई कुछ अन्य महत्वपूर्ण बातें भी देखते हैं, जिन्हें पौलुस किया करता था:
प्रेरितों 14:26-27 से हम देखते हैं कि कलीसिया ने उस से रिपोर्ट नहीं माँगी थी। बल्कि उन्होंने ही कलीसिया को एकत्रित कर के उन्हें अपनी रिपोर्ट दी, कि परमेश्वर ने कलीसिया की प्रार्थनाओं के उत्तर में क्या कुछ संभव किया था। पौलुस ने उत्तरदायी होने के पहले कदम को स्वयं ही उठाया, और अपनी ही पहल पर कलीसिया के सामने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, रिपोर्ट माँगे जाने की प्रतीक्षा नहीं की।
प्रेरितों 15:12 से हम देखते हैं कि उन्होंने सारी सभा, अर्थात सम्पूर्ण कलीसिया या मण्डली के सामने अपनी रिपोर्ट दी, न कि कुछ चुने हुए लोगों के या केवल अगुवों के सामने – और उन्होंने कलीसिया को सब कुछ जो उनके द्वारा हुआ था वह सब बताया। साथ ही, जो कुछ वे करने पाए थे, उसके लिए उन्होंने सारा आदर और महिमा केवल परमेश्वर ही को दी – अर्थात, वे घमण्ड से फूल नहीं गए, और न ही परमेश्वर से उसकी महिमा को चुराया। यह ध्यान देने के लिए बहुत आवश्यक बात है, क्योंकि परमेश्वर के बहुत से सेवक इस बात में चूक जाते हैं। बहुधा, सेवकों में यह प्रवृत्ति देखी जाती है कि वे अपने कार्यों और उपलब्धियों को ऐसे प्रस्तुत करते हैं, मानों उन्होंने स्वयं, अपनी ही सामर्थ्य और योग्यता से ही सब कुछ किया हो, न कि ऐसे कि परमेश्वर ने उनमें होकर किया है। ऐसा कभी नहीं करना चाहिए (यशायाह 42:8; 48:11; मलाकी 3:8)।
हम प्रेरितों 21:17-19 से देखते हैं कि यरूशलेम के अगुवों के सामने भी पौलुस ने अपनी सेवकाई का एक विस्तृत वर्णन रखा, न कि औपचारिकता निभाने के लिए कुछ ही शब्दों में कह कर समाप्त कर दिया; और वहाँ पर भी उनमें होकर काम करने के लिए सारा आदर और महिमा परमेश्वर को ही दिया, न कि उन अगुवों के सामने अपने आप को महिमान्वित किया।
फिर, हम यह भी देखते हैं कि परमेश्वर ने पौलुस को यरूशलेम के अगुवों के पास भेजा कि वहाँ जा कर उन्हें अपने सुसमाचार के बारे में, जिसका वह प्रचार कर रहा था, बताए। यद्यपि यरूशलेम के अगुवों को उसकी सेवकाई में कोई कमी नहीं दिखाई दी, और न ही वे उसे कुछ और बेहतर करने का कोई सुझाव दे सके (गलातीयों 2:1-2, 6) लेकिन फिर भी यह निष्फल सी प्रतीत होने वाली यात्रा करने से पौलुस विचलित बिल्कुल भी नहीं हुआ। परमेश्वर ने चाहा कि वह कुछ करे, और उसने परमेश्वर की आज्ञाकारिता में होकर उस काम को किया; उस बात के उद्देश्य और परिणाम के लिए कोई सवाल-जवाब नहीं किये। यह दीनता, जवाबदेही, औरों के साथ सेवकाई साझा करना और उन्हें उसके बारे में बताना, अपने जीवन और कार्यों के द्वारा स्वयं को नहीं बल्कि परमेश्वर ही को महिमा देना, उसे ही ऊँचे पर उठाना, जैसे पौलुस के जीवन का गुण था, उसी प्रकार से प्रत्येक मसीही विश्वासी का भी गुण होना चाहिए (1 कुरिन्थियों 11:1)।
अगले लेख में हम विश्वासी के अनिवार्यतः कलीसिया या मण्डली की सभाओं में सम्मिलित होने के बारे में देखेंगे, चाहे उसे वहाँ अनुचित व्यवहार तथा विपरीत परिस्थितियों का सामना ही क्यों न करना पड़े।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Practical Implications – 2
God has made every Born-Again Christian Believer a member of His Church, placed him fellowship with His other children; and, as their steward for God, He has also made the Believers accountable for these privileges entrusted to him. To fulfil this stewardship worthily, the Believer must know the basics about the Church, which we have learnt from Matthew 16:18 in the previous articles. The Believers should also be aware of applying the practical implications in their lives of these basic facts about the Church and fellowshipping with the other children of God – and we are considering these since the last article. In the last article we have seen about the necessity of the Believer not only remaining in the Church God has placed him in, but also of his never being involved in anything that would create factions or divisions in the Church. Today we will see about another responsibility – being accountable to the Church for his ministry, glorifying God for them, and joyfully sharing his ministry experiences with the Church.
The Bible shows us that every Believer is accountable to the Church or Assembly where God has placed him for his ministry. If he solicits the prayers of the Assembly for the ministry, then he also needs to thank the Church or Assembly for those prayers and the answers, and keep them informed about his missionary activities. We see this illustrated very well through the life of the Apostle Paul. He always, whenever he returned from his missionary journeys, gave an account of his missionary journeys to the Church and its people (Acts 14:26-27; 15:12; 21:17-19). As we see from these references, although he had gone out for the ministry on the call of God, to the places God had sent him, along with the people God had assigned to accompany him, and had accomplished things through God’s power; but that did not make him feel proud or superior to others in the Church. He had asked them to pray for him and his ministry, and he understood that it was his responsibility to let them know of the answers he had received for their prayers. In these three references we also see some other important aspects of this ‘reporting back’ that Paul used to do:
From Acts 14:26-27 we see that it was not the Church that had asked him for a report. Rather, they gathered the Church together to report to them, what God had accomplished through them and in answer to their support and prayers. Paul took the first step in showing this accountability, and on their own presented their report to their Church; did not wait to be asked for the report to be presented.
From Acts 15:12 we see that they spoke to ‘the multitude’ i.e., the whole Church or Assembly, not to just a few or only to the Elders; they told the Church everything – all the works done through them. Moreover, they gave all glory and honor to God for whatever they could do – i.e., they did not get puffed up and rob God of His glory. This is something important to note, since many ministers of God slip up on this. Very often ministers of God have a tendency of presenting their work and accomplishments as if they had done them on their own, through their own ability and wisdom, and not because of God getting it done through them. This should never be done (Isaiah 42:8; 48:11; Malachi 3:8).
From Acts 21:17-19 we see that even to the Elders in Jerusalem, Paul gave a detailed report of his ministry, not just a perfunctory report of a few words, and again giving the glory and honor to God for working through them, instead of taking the glorifying himself in front of those Elders.
Then, we also see that God sent him to report to the Elders in Jerusalem and inform them about the gospel he was preaching. Although the Elders in Jerusalem could not find anything amiss in him and his ministry, nor did they have any improvements to suggest (Galatians 2:1-2, 6), yet this apparently inconsequential visit to Jerusalem did not perturb Paul in any way. God wanted him to do something, and he did it in obedience to God; he did not raise any questions about the purpose or results of what he was asked to do. This humility, accountability, willingness to share and inform, and the tendency to glorify and exalt God, not self, through one’s life and works should be an essential feature of every Believer’s life, as was in Paul’s life (1 Corinthians 11:1).
In the next article we will see about the necessity of the Believer regularly attending Church and fellowship, even despite receiving an unpalatable behavior and unfavorable circumstances.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.